आज परशुराम जयंती का पर्व मनाया जा रहा है, जो सनातन धर्म में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। भगवान परशुराम को भगवान विष्णु का छठा अवतार माना जाता है और उन्हें भगवान शिव का अनन्य भक्त माना जाता है। उनका जन्म माता रेणुका और ऋषि जमदग्नि के घर प्रदोष काल में हुआ था। वह अपने माता-पिता के प्रति आज्ञाकारी थे, लेकिन एक घटना ने उनके जीवन को बदल दिया। आइए जानते हैं कि परशुराम जी को अपनी माता की गर्दन काटने का निर्णय क्यों लेना पड़ा और इसके परिणाम क्या रहे।
भगवान विष्णु के छठे अवतार के रूप में परशुराम का जीवन त्याग, आज्ञाकारिता और तपस्या का प्रतीक है। एक कथा के अनुसार, परशुराम ने अपने पिता के आदेश पर अपनी मां की हत्या की थी, जिसके बाद उन्हें कठोर तपस्या करनी पड़ी। एक बार, जब रेणुका देवी झील में स्नान कर रही थीं, तब राजा चित्ररथ वहां नौका विहार कर रहे थे। राजा को देखकर उनका मन क्षण भर के लिए विचलित हो गया। जब वह आश्रम लौटीं, तो ऋषि जमदग्नि ने उनकी मनोदशा को भांप लिया और अत्यंत क्रोधित हो गए।
ऋषि ने अपने पुत्रों को मां को मारने का आदेश दिया, लेकिन कोई भी इस कार्य को करने को तैयार नहीं था। अंततः जब जमदग्नि ने अपने सबसे छोटे पुत्र परशुराम को यह आज्ञा दी, तो उसने बिना किसी हिचकिचाहट के अपने पिता की आज्ञा का पालन किया और अपनी माता का वध कर दिया। अन्य पुत्रों को जिन्होंने पिता की आज्ञा का उल्लंघन किया था, ऋषि ने विवेकहीन होने का शाप दिया। परशुराम ने अपनी मां को पुनर्जीवित करने का वरदान मांगा, जो उन्हें प्राप्त हुआ।
परशुराम की बुद्धिमत्ता और निष्ठा से प्रसन्न होकर ऋषि जमदग्नि ने उन्हें सभी शास्त्रों और शस्त्रों का ज्ञान दिया। हालांकि, अपनी मां की हत्या के कारण परशुराम को 'मातृहत्या' का पाप लगा। इस पाप से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने भगवान शिव की कठोर तपस्या की। भगवान शिव उनकी तपस्या से प्रसन्न हुए, उन्हें पाप से मुक्त किया और 'परशु' नामक दिव्य अस्त्र प्रदान किया। इसीलिए उन्हें 'परशुराम' कहा जाता है। आज भी परशुराम का जीवन आज्ञापालन, तपस्या और धर्म की रक्षा के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है।