सुप्रीम कोर्ट – कभी सोचा है कि किसी की अपनी ही प्रॉपर्टी उसे वापस पाने में 63 साल लग जाएं? वो भी तब जब घर शहर के सबसे पॉश इलाके में हो और किराएदार न किराया दे, न घर खाली करे! कुछ ऐसा ही हुआ एक परिवार के साथ, जिसने दो पीढ़ियों तक अदालत में मुकदमा लड़कर आखिरकार सुप्रीम कोर्ट से इंसाफ पाया। 2025 में आए इस ऐतिहासिक फैसले ने ना सिर्फ मकान मालिक के हक की पुष्टि की बल्कि किराएदारी और प्रॉपर्टी विवादों में कानूनी समझ को भी एक नया मोड़ दिया।
यह विवाद 1952 में शुरू हुआ था जब प्रॉपर्टी मालिक (व्यक्ति A) ने अपनी संपत्ति 10 साल के लिए एक व्यक्ति (B) को किराए पर दी। सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा था, लेकिन 1962 में A ने अपनी प्रॉपर्टी बेच दी और नया मालिक (C) सामने आया। C ने जब 1965 में देखा कि किराएदार तो न किराया दे रहे हैं, न ही प्रॉपर्टी छोड़ने को तैयार हैं, तो उन्होंने जिला अदालत में केस कर दिया।
इस दौरान प्रॉपर्टी मालिक की मृत्यु हो गई और उनके बेटों ने ये कानूनी लड़ाई जारी रखी।
किराएदारों के वकील ने दलील दी कि मकान मालिक की मौत के बाद उनके बेटे यह दावा नहीं कर सकते क्योंकि मामला मालिक की निजी जरूरत के आधार पर था। यानी पिता को मकान चाहिए था, बच्चों को नहीं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को नकारते हुए कहा कि:
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि उत्तर प्रदेश शहरी भवन (नियमन अधिनियम) 1972 की धारा 21(7) के तहत कानूनी उत्तराधिकारी भी केस को आगे बढ़ा सकते हैं।
कोर्ट ने यह कहते हुए सख्त रुख अपनाया कि अब इस तरह के मामलों में देर नहीं की जा सकती।
इस केस ने यह भी दिखा दिया कि भारत में किराएदारी को लेकर अब अदालतें ज्यादा सख्त और स्पष्ट हो रही हैं। पहले जहां किराएदारों को “कमजोर पक्ष” मानकर सहानुभूति मिलती थी, अब वैध मालिकों के अधिकारों को भी समान रूप से अहमियत दी जा रही है।
ये मामला इस बात की मिसाल है कि अदालतें देर कर सकती हैं, लेकिन अंधेर नहीं करतीं। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से देशभर के लाखों प्रॉपर्टी मालिकों को हौसला मिलेगा, जो सालों से अपने ही घर को पाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। अब किराएदारों को भी समझना होगा कि कानून का दुरुपयोग कर कब्जा जमाए रखना लंबे समय तक नहीं चलेगा।