पूर्व प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू एक शौकीन और आधुनिक विचारों वाले व्यक्ति थे. तमाम फिल्म कलाकार, निर्माता-निर्देशक, शायर-लेखक से उनके गहरे ताल्लुक रहे. कुछेक विवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर फिल्मी सितारे उनको खूब पसंद करते थे और अपनी-अपनी फिल्मों में नेहरूवियन सोच और फलसफे को शामिल भी करते थे. जबकि इंदिरा गांधी को सिनेमा के कलाकारों से अपने पिता जैसा गहरा लगाव नहीं था. केवल राज्यसभा, लोकसभा में आने वाले फिल्मी कलाकार से उनके बहुत नजदीकी संबंध थे. आपातकाल में तो बहुत से फिल्मी सितारे इंदिरा गांधी के विरोधी भी बन गए. लेकिन दिलचस्प बात ये कि सिनेमा में नेहरू के किरदारों का वैसा चित्रण नहीं हुआ जैसा कि इंदिरा गांधी का. नेहरू को किसी भी फिल्म में नायक की तरह पेश नहीं किया गया, जैसा कि महात्मा गांधी को या कि इंदिरा गांधी को.
हालांकि नेहरू की तरह इंदिरा गांधी भी सिनेमा में आधुनिक और खासतौर पर महिला सशक्तिकरण के विचारों को प्रभावित करती रही हैं. सन् 1973 की बॉबी में सबसे पहले कोई नायिका इक्कीसवीं सदी की बात करती है. डिंपल कपाड़िया एक सीन में कहती हैं- पिक्चर देखने मैं अकेले जा सकती हूं. मैं इक्कीसवीं सदी की लड़की हूं. यह प्रसंग इंदिरा गांधी के महिला सशक्तिकरण का प्रभाव था. लेकिन आपातकाल के चलते विरोधियों ने जब उन्हें भारतीय राजनीति की नायिका से खलनायिका बना दिया तब फिल्मों में उनके व्यक्तित्व का चित्रण का मिजाज ही बदल गया.
1971 की लड़ाई और आपातकालजब-जब पर्दे पर 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध, बांग्लादेश का निर्माण और आपातकाल की कहानी दिखाई गई, इंदिरा गांधी को दिखाना लाजिमी समझा गया. सबसे हाल में आज की सबसे चर्चित अभिनेत्री और लोकसभा सांसद कंगना रनौत ने तो इंदिरा गांधी पर बायोपिक ही बना दी. इसकी कहानी भले ही इंदिरा के राजनीतिक जीवन के प्रमुख राजनीतिक घटनाक्रमों पर आधारित थी, लेकिन फिल्म का टाइटल रखा- इमरजेंसी. इस पर सवाल भी उठे थे. सवाल नजरिया और इरादों को लेकर भी उठा था.
वैसे अकेले कंगना रनौत ही नहीं हैं, जिन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासनकाल और इमरजेंसी को अपनी फिल्म का विषय बनाया है. पिछले करीब दसेक साल में ऐसी अनेक फिल्में आईं हैं जिसमें इंदिरा और आपातकाल का विशेष तौर पर चित्रण हुआ है. इसमें कोई दो राय नहीं कि आपातकाल दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के इतिहास का काला अध्याय था. इस दौरान नागरिक अधिकारों का हनन हुआ, प्रदर्शनकारी विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारियां हुईं, मीडिया और सिनेमा की दुनिया भी इससे प्रभावित हुई. कई फिल्म कलाकार निशाने पर आए. उनके गीतों और फिल्मों के प्रसारण पर बैन लगाया गया.
इंदिरा गांधी के नाम पर कितनी फिल्मेंइंदिरा गांधी की शख्सियत और उनकी राजनीति पर फिल्मों में तंज कसने या सियासी निशाना साधने की शुरुआत आपातकाल के दौर में ही हो गई थी. आपातकाल से पहले ही मनोज कुमार की ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ आ चुकी थी. बुनियादी जरूरतों को लेकर बनाई गई उस फिल्म में भ्रष्टाचार, महंगाई, जमाखोरी और कालाबाजारी का मुद्दा प्रमुख था. वहीं 1975 में हिंदी के प्रसिद्ध लेखक कमलेश्वर के उपन्यास ‘काली आंधी’ पर गुलज़ार ने ‘आंधी’ बनाई थी. हालांकि इसकी कहानी अलग थी. लेकिन जिस समय रिलीज हुई और जिस प्रकार एक महिला नेता को केंद्रीय भूमिका में प्रमुखता से दिखाया गया, उसके गेटअप, चाल-ढाल, पोषाक आदि में इंदिरा की छवि देखी जाने लगी. फिल्म में सुचित्रा सेन को इंदिरा गांधी का प्रतिरूप समझा गया. इसी वजह से इस फिल्म पर प्रतिबंध भी लगा था, जिसे बाद में हटा लिया गया.
इसके बाद अमृत नाहटा ने ‘किस्सा कुर्सी का’ तो वहीं आईएस जौहर ने ‘नसबंदी’ बनाकर करारा तंज कसा. ‘किस्सा कुर्सी का’ में इंदिरा गांधी और आपातकाल पर कटाक्ष था तो ‘नसबंदी’ में संजय गांधी पर. इसके बाद की फिल्मों में भ्रष्टाचार और महंगाई का मुद्दा तेजी से उभरा. इस बहाने तत्कालीन सत्ता और सरकार से सीधे सवाल होने लगे. लेकिन लंबे समय तक हिंदी फिल्मों से ये दोनों मुद्दे गायब रहें. इसकी दोबारा शुरुआत होती है साल 2017 में आई मधुर भंडारकर की फिल्म टइंदु सरकारट से. यह एक पॉलिटिकल फैंटेसी ड्रामा थी. जब यह फिल्म आई तो पहली नजर में इंदु सरकार मतलब इंदिरा सरकार लगा. लेकिन फिल्म देखने के बाद पता चला इसमें किरदार का नाम है- इंदु सरकार, जिसे कीर्ति कुलहरी ने निभाया था.
हालांकि फैशन, कॉरपोरेट वाले मधुर भंडारकर की यह सबसे खराब फिल्म मानी गई. उसमें आपातकाल और तब के राजनीतिक परिवेश का चित्रण किया गया था. इंदिरा के साथ-साथ संजय भी थे. नील नितिन मुकेश संजय गांधी बने थे. इसके बाद इंदिरा को किसी ना किसी तरह से कहानी के केंद्र में रखकर बनने वाली फिल्मों की लाइन लग गई. अनुपम खेर की ‘दी एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ के अलावा अक्षय कुमार की ‘बेलबॉटम’, अजय देवगन की ‘भुज: द प्राइड ऑफ इंडिया’, विकी कौशल अभिनीत जनरल सैम मानेक शॉ की बायोपिक ‘सैम बहादुर’, श्याम बेनेगल की ‘मुजीब’ तो वहीं विद्युत जामवाल की ‘IB71’ जैसी फिल्मों में इंदिरा सरकार की उपस्थिति देखी गई.
कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में विमान अपहरण कांडअक्षय कुमार की बेलबॉटम में लारा दत्ता बनीं इंदिरा गांधी. अक्षय कुमार रॉ एजेंट बने थे. बेलबॉटम की कहानी में 1984 में भारतीय विमान के अपहरण कांड को दिखाया गया था. बताया गया कि भारतीय जेलों में बंद आतंकियों को छोड़ने के बदले विमान का अपहरण किया गया था. इसी तरह से अजय देवगन की भुज: द प्राइड ऑफ इंडिया में 1971 की कहानी दिखाई गई थी. बांग्लादेश विभाजन से पाकिस्तान बौखला चुका था. तब पाकिस्तानी हमले में भुज एयरबेस को काफी नुकसान हुआ था. इस घटना को लेकर फिल्म में इंदिरा को बहुत ही विवश दिखाया गया है. तब वायु सेना अफसर की बहादुरी काम आई. अजय देवगन इसी अफसर की भूमिका में थे. उस अफसर ने 300 स्थानीय महिलाओं के सहयोग से रातों रात एयरबेस बनाया.
वहीं विद्युत जामवाल की IB71 में एक विमान अपहरण की एक कहानी का आधार बनाया गया था. दिलचस्प बात ये कि इंदिरा गांधी के शासनकाल की कहानी में इंदिरा गांधी को ही नहीं दिखाया गया. तत्कालीन रक्षा मंत्री जगजीवन राम ही वहां सारे फैसले लेते दिखते हैं. मेघना गुलजार की सैम बहादुर भी 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और बांग्लादेश के निर्माण की पृष्ठभूमि पर बनी थी. फिल्म सैम मानेक शॉ की जीवन गाथा कहती है. यहां युद्ध को लेकर इंदिरा के साथ उनके मतभेद पर भी फोकस है. फिल्म में सैम शॉ के आगे इंदिरा गांधी कमजोर सी दिखती हैं.
हालांकि इस मामले में श्याम बेनेगल ने अलग समझदारी दिखाई. शेख मुजीबुर्रहमान की बायोपिक में इंदिरा गांधी के रोल का किसी से अभिनय नहीं करवाया. उन्होंने फिल्म में इंदिरा गांधी के एक इंटरव्यू का हिस्सा दिखाना ही ज्यादा मुनासिब समझा. इस तरह इंदिरा, आपातकाल और 71 के भारत पाकिस्तान युद्ध पर जितनी फिल्में, उतना ही नजरिया भी देखने को मिला.
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