एक बेहूदी और घटिया बहस छिड़ी हुई है. क्या ईश्वर की कथा बांचने का अधिकार सिर्फ ब्राह्मणों का है. क्या आराध्य की भक्ति और उसकी महिमा का गान सिर्फ जन्म के आधार पर ब्राह्मणों के पास होना चाहिए. फिर अगर कोई अब्राह्मण प्रभु की कथा का वाचन करे तो उसकी शिखा काट लेनी चाहिए, सिर मूंड़ देना चाहिए और मूत्राभिषेक कर उसे अपमानित करना चाहिए? धर्म के नाम पर रोज़ी रोटी कमाने वाले कुछ निर्लज्ज इसके पक्ष में दलील दे रहे हैं. ऐसे लोग ईश्वर के भक्त नहीं हो सकते. भक्त की बड़ी अनूठी दुनिया होती है. अलग ही उसका लोक है- गणित का नहीं, विज्ञान का नहीं, तर्क का नहीं, यह लोक होता है प्रेम का, प्रार्थना का, परमात्मा का.
इस बहस का जवाब अनेक बार भारतीय धर्म परंपरा में अवतरित होता रहा है. समस्या यह है कि हम जात के अंधे हैं. हम उन्हें देखकर भी देख नहीं पा रहे. जड़मति बने हुए हैं. अगर हमें थोड़ा भी बोध रहे कि भारत की धर्म परंपरा और संत परंपरा क्या और कैसी रही है तो ये भेद घुलकर और धुलकर अपने आप निकल जाएगा. भगवान की कथा कहने के लिए जातीय अर्हता की वकालत करने वालों को यह बुनियादी बात पता नहीं है कि हमारी पौराणिक कथाओं, धर्म, आध्यात्म और कर्मकाण्ड के जो दो बीज ग्रन्थ रामायण और महाभारत हैं, वह अब्राह्मणों ने लिखे हैं.
रामायण वाल्मिकी ने और महाभारत मछुआरिन मां के गर्भ से जन्मे वेदव्यास ने लिखी है. सूत जी, जिन्हें कथावाचक या सूत्रधार के रूप में पुराणों को लोकमानस तक पहुंचाने का श्रेय जाता है, वे ब्राह्मण नहीं, वर्ण से शूद्र थे. महर्षि वेदव्यास ने गणेश जी को महाभारत की पूरी कथा सुनाई. जिसे गणेश जी ने लिखा. आप कह सकते हैं कि इस लिहाज से व्यास जी किसी महाग्रंथ के संसार के पहले आशु-वक्ता और गणेश जी पहले आशु-लिपिक थे.
21 जून को इटावा के दांदरपुर गांव में कथावाचक मुकुट मणि यादव और उनके दो सहयोगियों के साथ धर्म के नाम पर जो कुछ घटा वह न सिर्फ शर्मनाक था बल्कि हमारे धार्मिक ताने बाने को छिन्न भिन्न करता है. इटावा में छिड़ी इस बहस का जवाब एक हजार साल पहले विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य ने दे दिया था. उन्होंने मंदिर के प्रबंधन और पूजा पद्धति को ब्राह्मणों से मुक्त करा उसे पचास प्रतिशत से ज्यादा अब्राहमणों को सौंप सामाजिक समरसता का संदेश दिया. मित्रों, ब्राह्मणत्व जन्म नहीं आचरण का विषय है.
महाभारत में क्या है जिक्र?राम कथा और कृष्ण कथा को जन-जन तक पहुंचाने वाले अधिकांश भक्त कवि ब्राह्मण नहीं थे. हमारा पूरा का पूरा भक्ति आंदोलन मुस्लिम आक्रान्ताओं के सामने छिन्न भिन्न हो जाता अगर हमारे अब्राहम्ण कथा वाचक संत न होते. रामानंद, कबीर, रैदास, बोधा, आलम, पीपा, दादू, धन्ना, सेन, रज्जब, तुकाराम, नामदेव, तुलसीदास के गुरू नरहरि दास, दक्षिण के 12 अलवार संत, 63 नयनार संत सभी अब्राह्मण थे. अगर भक्ति आन्दोलन ब्राह्मणों के भरोसे रहता तो क्या होता? वैष्णव शास्त्रों में 64 अपराधों को श्रेणीबद्ध किया गया है, उनके मुताबिक भक्तों में जाति भेद रखना भी एक अपराध है.
इस बहस का जबाब महाभारत भी देता है. यदि शूद्र में सत्य आदि उपयुक्त लक्षण हैं और ब्राह्मण में नहीं हैं, तो वह शूद्र शूद्र नहीं है, न वह ब्राह्मण ब्राह्मण. युधिष्ठिर कहते हैं कि हे सर्प जिसमें सत्य आदि ये लक्षण मौजूद हों, वह ब्राह्मण माना गया है और जिसमें इन लक्षणों का अभाव हो, उसे शूद्र कहना चाहिए. -महाभारत, वनपर्व सर्प-युधिष्ठिर संवाद
महाभारत और स्कंद पुराण दोनों में कहा गया है- जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्चते! यानी अपने कर्मों से ही व्यक्ति ब्राह्मण होता है. भारतीय ज्ञान परंपरा की अमूल्य निधि, वैदिक वांग्मय की रचना अकेले ब्राह्मणों ने नहीं की है. ऋषि परंपरा में वर्ण व्यवस्था नहीं थी. प्रकारान्तर में वे ब्राह्मण माने गए जिन्होंने तप, साधना और ज्ञान से ब्रह्म के रहस्य को जाना. वेद सहित उस समय का रचा हुआ समग्र साहित्य श्रुति और स्मृति परंपरा से होते हुए उस काल तक पहुंचा जहां जनसंचार के साधन मिलने शुरू हुए. जब यह ज्ञान वृहद ग्रंथों के रूप में संकलित होने लगा तब इसमें ग्रंथकारों की ओर से क्षेपक और बुद्धि विलास बखानने का काम शुरू हुआ. वैदिक ग्रंथों की टीकाएं सुविधानुसार की जाने लगीं, इससे ज्ञान की मूल अवधारणा दूषित होने लगी.
पंडित जी संबोधन का क्या है अर्थ?कथावाचकों और पुरोहितों तथा पुजारियों के लिए पंडित जी संबोधन सामान्य है. इस संबोधन का ब्राह्मण समुदाय से कोई वास्ता नहीं है. पंडित हमारे यहां पांडित्य का सूचक माना गया है न कि जाति का. पंडित हरिप्रसाद चौरसिया और पंडित कुमार गन्धर्व इसी पांडित्य के कारण पंडित लिखे जाते हैं. आज भी अगर हम देखें तो बाबा रामदेव के करोड़ों भक्त हैं. क्या रामदेव ब्राह्मण हैं? संत मुरारी बापू ब्राह्मण हैं? संतों की कोई जाति नहीं होती. एक नहीं अनेक उदाहरण हैं. उमा भारती ,साध्वी ऋतम्भरा, साक्षी महाराज, साध्वी निरंजन ज्योति, बाबा जय गुरूदेव, इन सभी की कथा/ प्रवचन करोड़ों लोग सुनते हैं और ये सभी ग़ैर ब्राह्मण हैं.
12वीं शताब्दी की शुरुआत में रामानुज श्रीरंगम मंदिर के प्रधान बने. यहां से वैष्णववाद की दिशा बदलती है. श्रीरंगम वैष्णव प्रतिष्ठानों में सबसे महत्वपूर्ण था. रामानुज ने वैदिक परंपराओं को भक्ति की चाशनी में पाग दिया. रामानुज का दर्शन विशिष्टाद्वैत बना. उन्होंने भक्ति का मार्ग सभी जातियों, पंथों और समुदायों के लिए समान रूप से खोल दिया. उन्होंने सभी जाति, वर्ग के अनुयायियों को शिष्य के रूप में स्वीकार किया. धर्म और मंदिर प्रबंधन को जाति की जकड़न से मुक्त किया. रामानंद इसी वैष्णववाद के विचारों को 15वीं सदी में उत्तर भारत लेकर आए थे.
भारतीय संत परम्परा का इतिहास बहुत प्राचीन है. संत शब्द सबसे पहले विष्णुसहस्रनाम में आया. वीराह रक्षण संत:। शंकराचार्य ने इसका अर्थ किया- सन्मार्ग वितिन संत: यानी सत्य मार्ग पर चलने वाला ही संत है. श्रीमद्भागवत कहती है, संतों के हृदय में भगवान बसते हैं. भारत के दर्शन को ऋषियों ने गढ़ा था और भारत के आध्यात्मिक मन को संतों ने. हमारे धर्म और अध्यात्म की नींव इन्हीं दोनों पर टिकी है. इन्हीं के जरिए वैचारिक क्रांतियां भी हुईं और सामाजिक सुधार भी. यानी हमारी अध्यात्म परंपरा और संस्कृति संतों के बिना अधूरी है.
रामचरितमानस में गरुड़ ने सात सवाल किए. उसमें दो सवाल थे- सबसे बड़ा दुख और सबसे बड़ा सुख क्या है? काकभुशुण्डि जवाब देते हैं- नहिं दरिद्र सम दु:ख जग माहीं, संत मिलन सम सुख जग नाहीं. संत के लक्षण बताते हुए काकभुशुण्डि कहते हैं- मन, वचन और काया से परोपकार करना उसका सहज स्वभाव है. कहीं नहीं कहा गया है कि जाति के आधार पर संत होता है. पर यहां संत इस बात में उलझे हैं कि ब्राह्मण के अलावा किसी को कथा कहने का अधिकार नहीं है.
ढाई आखर प्रेम का…अफ़सोस कि एक हज़ार साल के बाद फिर वही सवाल मुंह बाए खड़ा हो गया. शुरुआत हुई इटावा के दांदरपुर गांव से. वहां कथावाचक मुकुट मणि यादव और उनके दो सहयोगियों का वीडियो वायरल होता है जिसमें गांव के कुछ लोग उनसे जाति पूछ रहे हैं. मुकुट कहते हैं मेरी कोई जाति नहीं है. मैं चौदह साल से कथा कह रहा हूं. लोग मानने को राजी नहीं थे. उन्हें पीटा गया. शिखा काटी गई. आरोप तो ये भी लगे कि जल छिड़ककर उनका शुद्धिकरण किया गया. किसी ने कहा कि ब्राह्मण के मूत्र से शुद्ध किया गया. दूसरी तरफ़ से आरोप लगा कि कथावाचकों ने अपनी जाति छिपाई, जजमान के साथ अभद्रता की. दोनों तरफ़ से मुकदमे हुए. लेकिन विवाद को बढ़ा दिया शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने, जिन्होंने घटना की निंदा तो की लेकिन ये कह दिया कि सार्वजनिक रूप से कथा सुनाने का अधिकार सिर्फ़ ब्राह्मणों को है. व्यास पीठ की मर्यादा भंग हुई है. अब उन्हें कौन समझाए कि जिस व्यास पीठ पर बैठकर कथा बांची जाती है, वे व्यास जी स्वयं सत्यवती नाम की एक मछुआरी कन्या के पुत्र थे! आचार्य जी!
शायद इन्हीं आचार्य के लिए कबीर ने कहा होगा- जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान. मोल करो तरवार का, पड़ी रहन दो म्यान. पर आज के स्वयंभू संतों का इससे क्या लेना देना. वे लगातार समाज तोड़क धर्मादेश दे रहे हैं. संत यानी जो सत्य मार्ग पर चले. उसे सिर्फ सत्य का बोध ही न हो, सत्य के प्रति उसमें अनंत आस्था हो. संत पोथी की महिमा से नहीं आंखन देखी से जीवन का मार्ग ढूंढता है. इसी रास्ते वह परमात्मा के लिए जरिया बनता है. संत कौन! इसका सार सूत्र है- तरुवर फल नहीं खात है, सरवर पियत न नीर, परमारथ के कारने संतन धरा सरीर. सदियों से हमारे समाज की आत्मा राजसत्ता में नहीं, धार्मिक आस्थाओं में थी. जब राजा पराजित होते थे, राज्य नष्ट होते थे, तब संत ही मार्गदर्शक और उद्धारक होते थे. संत वह है जिसके भीतर परमात्मा बोलता है. जिसके भीतर परमात्मा शब्द बनता है. रूप धरता है.
भक्तिकाल के सबसे तेजस्वी संत कबीर जुलाहा थे. उन्होंने ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय’ का संदेश दिया. निम्न जाति से होने की उनमें कोई कुंठा नहीं थी, बल्कि वह स्वाभिमान से कहते हैं, ‘मैं काशी का एक जुलाहा, बूझहु मोर गियाना. कबीर जाति-धर्म को नहीं, ज्ञान को ही सर्वोपरि मानते हैं. संत कबीर रामानंद के शिष्य थे. रामानंद वैष्णव थे. मन चंगा तो कठौती में गंगा का उद्घोष करने वाले रैदास या गुरू रविदास चमार थे. कथा वाचन पर अपनी बपौती जताने वाले मूर्खों पर उनका कहना था, ऐसी मेरी जाति बिख्यात चमारं, हिरदै राम गोब्यंद गुण सारं॥ मेरी जाति लोक-प्रसिद्ध चमार जाति है किंतु मेरे हृदय में गोविंद के गुणों का सार भरा हुआ है.
रामानन्द के एक और भक्त कवि धन्ना जाट थे. जिन्हें भगत धन्ना के नाम से भी जाना जाता है. वैष्णव भक्त, कवि और रहस्यवादी संत थे. धन्नो कहै ते धिग नरां, धन देख्यां गरबाहिं. धन तरवर का पानड़ा, लागै अर उड़ि जाहिं. रामानंद के दूसरे बड़े भक्त कवि थे सेना. 14वीं-15वीं शताब्दी में हुए सेना भगवान विट्ठल के भक्त थे. सेना जाति से नाई थे. सैन भगत के नाम से भी जाना जाता है. बांधवगढ़ राजदरबार में रहे पर भक्ति ऐसी उपजी की सब छोड़ काशी पहुंच गए. बनारस का सेनपुरा मुहल्ला इन्हीं के नाम पर है. वे लिखते हैं. दो कौड़ी का सेना नाई, सतगुरु कृपा करी। ना कोई ठौर ठिकानो पूरो, ना कोई धिरत धरी.
राम कथा और कृष्ण कथा कहने वाले कौन?16वीं शताब्दी के प्रसिद्ध संत दादू दयाल धुनिया जाति से थे. बाद में वे घुमक्कड़ कथा वाचक बन गए. राजस्थान के रहने वाले दादू 1642 ई. में अकबर से फतेहपुर सीकरी में मिले थे. अकबर ने उनसे पूछा कि ख़ुदा की जात, अंग, वजूद और रंग क्या है? दादू ने जवाब दिया, “इसक अलाह की जाति है, इसक अलाह का अंग. इसके अलाह औजूद है, इसक अलाह का रंग॥”
भक्ति आंदोलन के बड़े संत रज्जब थे. रज्जब ‘निर्गुण’ संत थे, जो राम और रहीम, केशव और करीम की एकता में विश्वास रखते थे. संतों वसुधा वृक्ष समाई, अद्भुत बात कही को माने, कोण पतीजे भाई.
सोलहवीं शताब्दी में ओडिशा में प्रसिद्ध पांच प्रसिद्ध संत हुए जो आपस में मित्र थे और भगवान जगन्नाथ के भक्त. उन्हें ही ओडिशा में पंचसखा कहा जाता है. ये पंचसखा थे- अच्युतानंद दास, अनंत दास, जसवंत दास, जगन्नाथ दास और बलराम दास. ये पांचों ग़ैर ब्राह्मण थे. अच्युतानंद दास जी भगवान जगन्नाथ के परमभक्त, कवि, दृष्टा और वैष्णव संत थे.
राम कथा और कृष्ण कथा को जन-जन तक पहुंचाने वाले अधिकांश भक्त कवि ब्राह्मण नहीं थे. ईसा की पांचवीं सदी से तमिलनाडु में अलवार संतों ने विष्णु कथा की शुरुआत की. ये अलवार संत ब्राह्मण नहीं बल्कि वहां की कमतर जातियों से थे. 12 अलवार संत थे और 63 शिव भक्त नायनार. पांचवीं से दसवीं शताब्दी तक ये अलवार और नायनार संत समाज में प्रतिष्ठित हो चुके थे. इन्हीं संतों से प्रेरणा लेकर कुछ आचार्य उत्तर की तरफ आए. भक्ति परंपरा को रामानंद लाए लेकिन वे किसी ब्राह्मण परंपरा से इतर थे. कबीर और तुलसी दोनों उनके शिष्य थे. अदिपट्टन नयनार 63 नयनार संतों में से एक थे, जो भगवान शिव के भक्त थे. वे तमिलनाडु में रहते थे और मछुआरे थे.
अखा भगत (जिन्हें आमतौर पर अखो के नाम से जाना जाता है. समय लगभग 1591-1656) या अखा रहियादास सोनी एक मध्यकालीन गुजराती कवि थे जिन्होंने भक्ति आंदोलन की परंपरा में लिखा था. उन्होंने अपनी कविताओं को छप्पा (छह छंद वाली व्यंग्य कविताएँ) नाम में लिखा था. वे पेशे से सुनार थे.
कनक दास (1509-1606) जिन्हें दास श्रेष्ठ कनक दास के नाम से भी जाना जाता है, कर्नाटक के रहने वाले द्वैत वेदांत के दार्शनिक और कथावाचक थे. वे माधवाचार्य के द्वैत दर्शन के अनुयायी और व्यास तीर्थ के शिष्य थे. वे कर्नाटक संगीत के रचयिता, कवि, सुधारक और संगीतकार थे. कनक दास का जन्म कन्नड़ कुरुबा परिवार में हुआ था. ये भी ब्राह्मण नहीं थे.
महाराष्ट्र के मशहूर संत नामदेव जी 1270 में हुए. भगवान विट्ठल के भक्त थे. वारकरी समुदाय उन्हें और संत तुकाराम को अपना सबसे बड़ा गुरु मानता है. नामदेव दर्जी थे. तुकाराम महाराष्ट्र के महान संत और कवि थे. वे केवल वारकरी संप्रदाय के ही शिखर नहीं, वरन दुनियाभर के साहित्य में भी उनकी जगह असाधारण है. भक्ति साहित्य में उनके अभंग (पद) बेमिसाल हैं. उनके अभंग अंग्रेजी भाषा में भी अनुवादित हुए हैं. यही वजह है कि आज सैकड़ों वर्षों बाद भी वे आम आदमी के मन में सीधे उतरते हैं. संत तुकाराम ने महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन की नींव डाली. संत तुकाराम दलित थे.
रहीम भक्तिकाल के प्रमुख कवि थे. सरल ब्रजभाषा के प्रयोग के ज़रिए काव्य में भक्ति, नीति, प्रेम और श्रृंगार के संगम के लिए याद किए जाते हैं. ये स्वयं भी कवियों के आश्रयदाता थे. केशव, आसकरन, मण्डन, नरहरि और गंग जैसे कवियों ने इनकी प्रशंसा की है. ये अकबर के अभिभावक बैरम खां के पुत्र थे. रहीम अरबी, तुर्की, फारसी, संस्कृत और हिन्दी के अच्छे जानकार थे. हिन्दू संस्कृति से ये भलीभांति परिचित थे. इनकी नीतिपरक उक्तियों पर संस्कृत कवियों की स्पष्ट छाप है.
तुलसी की रामकथा के तीन वाचक और तीन श्रोता हैं. पहले शिव, फिर याज्ञलव्य और तब काकभुशुंडी. श्रोता भी तीन हैं पार्वती, भारद्वाज और गरुड़. काकभुशुंडी कौवा जाति के हैं. पक्षियों में निकृष्ट. गरुड़ पक्षियों में श्रेष्ठ. काकभुशुंडी के पांडित्य के कारण ही गरुड़ उनके शिष्य बनते हैं. यानी छोटी जाति का कोई भी व्यक्ति यदि ज्ञानी गुणी है तो वह पूज्य है और पंडित है. जातिवादी ब्राह्मणों ने तुलसी को भी नहीं छोड़ा. उन्हें षडयंत्रकारी, दग़ाबाज़ी करनेवाला और अनेक कुसाजो को रचने वाला कह नकारा गया. तुलसी खुद लिखते हैं…
कोउ कहै, करत कुसाज, दगाबाज बड़ो,
कोऊ कहै राम को गुलामु खरो खूब है।
साधु जानैं महासाधु, खल जानैं महाखल,
बानी झूँठी-साँची कोटि उठत हबूब है।
चहत न काहूसों न कहत काहूकी कछू,
सबकी सहत, उर अंतर न ऊब है।
तुलसी ने पथभ्रष्ट ब्राह्मणों की भी निंदा की है. “सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना। तजि निज धरमु बिषय लयलीना।।” या “विप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी।।”
तुलसीदास को पंडितों ने ब्राह्मण मानने से ही इंकार कर दिया था. किसी ने उनको राजपूत कहा तो किसी ने जुलाहा कहा. किसी ने धूर्त कहा तो किसी ने अवधूत कहा. यहां तक कि तुलसीदास को मंदिरों में भी चैन से सोने नहीं दिया गया और वह मस्जिदों में जाकर सोने को विवश हुए थे. इसका प्रमाण यह है कि तुलसीदास ने अपनी इस व्यथा को अपनी ‘कवितावली’ नामक रचना में अत्यंत खेद व्यक्त करते हुए लिखा है-
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटी सों, बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ।
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको, रुचै सो कहै कछु ओऊ।
माँगि कै खैबो, मसीत को सोईबो, लैबो को, एकु न दैबे को दोऊ॥ (कवितावली, छंद संख्या 106)
यानी, कोई मुझे धूर्त कहे अथवा परमहंस कहे, राजपूत कहे या जुलाहा कहे, मुझे किसी की बेटी से तो बेटे का ब्याह करना नहीं है, न मैं किसी से संपर्क रखकर उसकी जाति ही बिगाड़ूंगा. तुलसीदास तो श्रीराम का प्रसिद्ध ग़ुलाम है, जिसको जो रुचे सो कहो. मुझको तो मांग के खाना और मसजिद में सोना है, न किसी से एक लेना है, न दो देना है.
हमें रामानुजाचार्य की दृष्टि चाहिएआज जिस बहस में हम खड़े हैं वहां से अगर दृष्टि चाहिए तो हमें रामानुजाचार्य की ओर देखना होगा. इस सवाल का समाधान उनके पास है. इसलिए मैं अपनी बात पूरी करने से पहले आपको फिर से रामानुजाचार्य के पास ले चलता हूं.
आदि शंकर के बाद सनातन धर्म पर जिन महात्मा का सर्वाधिक असर हुआ वह रामानुजाचार्य थे. आचार्य शंकर, रामानुजाचार्य, माधवाचार्य, ये तीन विभूतियां ऐसी थीं जिन्होंने हिन्दू आध्यात्मिक जीवन को एक समेकित आधार दिया. हालांकि तीनों एक दूसरे के समर्थक नहीं थे. हिन्दू धर्म से जातीय गैर बराबरी दूर कर समानता का सन्देश देने वाले रामानुजाचार्य पहले संत थे. उन्होंने जाति की जकड़न से धर्म और हिन्दू संत परम्परा को मुक्त कर मंदिर प्रबंधन में पूजा का अधिकार ग़ैर ब्राह्मणों को दिया. एक हजार साल पहले उन्होंने गैर बराबरी तोड़ते, समानता का परचम लहराते हुए, मंदिर के आचार्यत्व, धर्म, कर्म, पूजा अर्चन सभी जातियों के लिए खोल दिया. उन्होंने अछूत और पिछड़ी जातियों के लिए भी धर्म, भक्ति और पूजा के दरवाजे खोले.
हम आज जातियों तो तोड़ने और एक समरस भारत को बनाने का संकल्प लेते हैं. कल्पना कीजिए एक हजार साल पहले रामानुजाचार्य ने तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था की परिधि में रहते हुए भक्ति में समानता का उद्घोष किया. जाति प्रथा के प्रति उनका दृष्टिकोण आचार्य शंकर जितना रूढ़ नहीं था. उनका कहना था भक्ति सभी जातियों और सम्प्रदायों से ऊपर है. वे ईश्वर की आराधना के लिए जातीय समानता के हिमायती थे. जिस समानता के सिद्धांत को हमने 73 साल पहले अपने संविधान में अपनाया, रामानुजाचार्य एक हजार साल पहले उसकी आवाज बन रहे थे.
इन्हीं रामानुजाचार्य से ही भक्ति आन्दोलन उत्तर भारत पहुंचा. उनके खास शिष्य रामानंद ने ही उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन के वाहक की भूमिका निभाई. इसलिए कहा गया भक्ति द्रविड़ उपजी लाये रामानन्द, प्रकट किया कबीर ने, सात दीप नौ खंड. रामानंद के शिष्यों में सभी जाति और वर्ग के लोग भेदभाव भूलकर आए. पिछड़ी जातियों ने भी अपने संत और भक्त कवि पैदा किए.
समरसता का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है कि उन्होंने अपने ‘गुरु मंत्र’ को भी सभी के साथ साझा किया. चाहे वह किसी भी जाति का हो. मंत्रों की प्राप्ति के लिए वे एक ही योग्यता चाहते थे समर्पण और सीखने की उत्सुकता.
एक कथा है. रामानुज के गुरु यादव प्रकाश जी ने रामानुज जी को कान में गुरु मंत्र दिया. गुरु मंत्र गोपनीय तरीके से दिया जाता है. गुरु जी ने यह भी कहा कि यह मनुष्य की मुक्ति का मंत्र है. इसे अपने पास गुप्त रूप से रखना. रामानुजाचार्य मंदिर की छत पर चढ़ गए. देखा, ढेर सारे भक्त आए हैं. वह चिल्ला-चिल्लाकर सबके सामने मंत्र का उच्चारण करने लगे. गुरु ने इससे नाराज होकर उन्हें नर्क जाने का श्राप दिया. इस पर रामानुजाचार्य ने कहा, गुरुदेव, अगर मेरे नर्क जाने से हजारों नर नारियों की मुक्ति होती हो तो मुझे नर्क जाना स्वीकार है. रामानुज की इस उदारता से गुरु प्रसन्न हुए. उन्होंने कहा, जाओ आज से विशिष्टाद्वैत मत तुम्हारे नाम से रामानुज दर्शन के नाम से जाना जाएगा. ऐसे थे रामानुजाचार्य जो मानते थे कि जीवन से मुक्ति का मंत्र केवल मेरे पास ही क्यों रहे उसे जन-जन तक जाना चाहिए.
रामानुज जी के समय समाज के प्रशासन और प्रबंधन का केंद्र मंदिर हुआ करते थे. और मंदिरों पर ब्राह्मणों का नियंत्रण था. रामानुजाचार्य ने बाकी जातियों के लोगों को मंदिर का 50 प्रतिशत का काम आवंटित कर धर्म में समावेशिता को प्रोत्साहित किया. उनके प्रयास से मंदिरों में प्रवेश के लिए जाति के आधार पर कोई प्रतिबंध नहीं रह गया. उन्होंने तय किया कि मंदिरों के रखरखाव में पूजा के लिए सभी जातियों की भूमिका हो. जो प्रेरणास्रोत भी बने. उन दिनों मंदिर ही ज्ञान, रोजगार और संस्कृति के केंद्र हुआ करते थे. वही तबके विश्वविद्यालय थे. व्यापार और मेलजोल के केन्द्र थे. उनका मानना था कि भोजन भले अलग-अलग हो पर भजन साथ-साथ हो. बाद में उन्होंने इस अवरोध को भी तोड़ दिया और कहा कि ईश्वर की भक्ति में किसी पुरोहित वर्ग की जरूरत नहीं है.
रामानुजाचार्य ने आदिशंकराचार्य के मायावाद का भी खंडन किया. शंकराचार्य ने जगत को माया करार देते हुए इसे मिथ्या बताया है. लेकिन रामानुज के अनुसार, जगत का निर्माण भी ब्रह्म ने ही किया है, अतः यह मिथ्या नहीं हो सकता है. उनके अनुसार, माया का अर्थ ईश्वर की अद्भुत रचना-शक्ति से तथा अविद्या का अर्थ जीव की अज्ञानता से है. रामानुज ने शंकराचार्य के मायावाद का खंडन करने के लिये सात तर्क दिये हैं, जिन्हें सप्तानुपत्ति कहा जाता है.
रामानुजाचार्य प्रतिदिन नदी पर स्नान करने जाया करते थे. जब वे स्नान करने जाते तो एक ब्राह्मण दाशरथि के कंधे का सहारा लेकर जाते और लौटते समय एक शूद्र के कंधे का सहारा लेते. वृद्धावस्था के कारण उन्हें किसी के सहारे की आवश्यकता है, यह बात तो सभी समझते थे किंतु आते समय ब्राह्मण का और लौटते समय शूद्र धनुर्दास का सहारा सबकी समझ से परे था. उनसे इस विषय में प्रश्न करने का साहस भी किसी में न था. लोग आपस में चर्चा करते कि वृद्धावस्था में रामानुजाचार्य की बुद्धि को क्या हो गया है? नदी स्नान कर शुद्ध हो जाने के बाद अपवित्र शूद्र को छूने से स्नान का महत्व ही भला क्या रह जाता है? शूद्र का सहारा लेकर आएं और स्नान के बाद ब्राह्मण का सहारा लेकर जाएं तो भी बात समझ में आती है.
एक दिन एक पंडित से रहा नहीं गया, उसने रामानुजाचार्य से पूछ ही लिया- प्रभु आप स्नान करने आते हैं तो ब्राह्मण का सहारा लेते हैं किंतु स्नान कर लौटते समय शूद्र आपको सहारा देता है. क्या यह नीति के विपरीत नहीं है? यह सुनकर आचार्य बोले- भाई! मैं तो शरीर और मन दोनों का स्नान करता हूं. ब्राह्मण का सहारा लेकर आता हूं और शरीर का स्नान करता हूं किंतु तब मन का स्नान नहीं होता क्योंकि उच्चता का भाव पानी से नहीं मिटता, वह तो स्नान कर शूद्र का सहारा लेने पर ही मिटता है. ऐसा करने से मेरा अहंकार धुल जाता है और सच्चे धर्म के पालन की अनुभूति होती है.
जहां भाव होता है, वहां सब छोटाइस दृष्टि से दुनिया को, जगत को देखने का इतना श्रेष्ठ उदाहरण हमारे पास है. हम फिर भी उत्थान की आस पर कपास की पट्टी बांधे जाति प्रमाणपत्र देखने में लगे हैं. भारत जब-जब और जहां जहां कमजोर पड़ा, उसके मूल में कहीं न कहीं टूटा हुआ, बिखरा हुआ, बंटा हुआ समाज नज़र आएगा. भारत जब जब मज़बूत हुआ, उसमें हमेशा आपको एकजुट, समेकित, समावेशी, उदार और समता मूलक भारत नज़र आएगा. रामानुजाचार्य ने और भारत की महान संत परंपरा ने कितना श्रम निवेश किया है इसे समझाने में और एक हम हैं कि इतना भी समझना नहीं चाहते. अपनी जड़ताओं और अज्ञानता के ग़ुलाम बनकर हम पंडित कैसे हो सकते हैं. और वो ब्राह्मण फिर ब्राह्मण ही क्या जिसके पास पांडित्य नहीं है.
दरअसल, ऐसा वही लोग कर सकते हैं जो चेतना और ज्ञान से जड़ हैं. जिन्हें न धर्म की समझ है, न भक्ति की. जो अभी तक यह नहीं जान सके कि दुनिया के किसी भी ग्रंथ और किसी भी कर्मकांड से भी श्रेष्ठ है भाव, भक्ति, प्रेम और समर्पण. और जहां भाव होता है, भक्ति होती है, प्रेम और समर्पण होता है वहां सारे मंत्र, यंत्र, तंत्र छोटे पड़ जाते हैं. आपके पास विद्या न हो, पुस्तक न हो, पुरोहित न हो लेकिन अगर ये चार चीजें हैं तो आप ईश्वर का सानिध्य पा सकते हैं. और अगर आपके पास पुरोहित, पुस्तक, सभी साधन और व्यवस्था हो लेकिन ये चार चीजें न हों तो आपकी पूजा सिर्फ एक दिखावा है, वो ईश्वर के दरवाजे पर दस्तक नहीं दे पाती.