भगवान शंकर माता पार्वती को ऐसे उपदेश दे रहे हैं, जो मानव जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। महापुरुषों ने इस उपदेश को श्रीराम कथा के रूप में जाना है। मानव का असली उद्देश्य केवल इस नश्वर शरीर से भोग करना नहीं है। निश्चित रूप से, यह शरीर एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा। लेकिन इससे पहले कि हम मिट्टी में मिल जाएं, हमें ईश्वर को जानने का प्रयास करना चाहिए। दुर्भाग्यवश, मनुष्य अपने सिर को संतों के चरणों में झुकाने के बजाय अकड़ता है। भगवान शंकर इस स्थिति को देखकर कहते हैं-
‘तेसिर कटु तुंबरि समतूला।
जे नमत हरि गुर पद मूला।।’
भगवान शंकर ने कहा कि जो लोग अपने सिर को श्रीहरि और गुरु के चरणों में नहीं झुकाते, उनका सिर ऐसा है जैसे तुमड़ी। तुमड़ी एक ऐसा फल है जो देखने में सुंदर होता है, लेकिन यदि कोई इसे काटता है, तो उसमें से कड़वाहट निकलती है। इसी प्रकार, जो गुरु और श्रीहरि के चरणों में नहीं झुकता, वह दिखने में कितना भी सुंदर क्यों न हो, वह तुमड़ी के फल के समान है। औरंगजेब ने भले ही अपना राज्य फैलाया हो और उसके सिर पर सुंदर ताज हो, लेकिन उसका मूल्य केवल इतना था कि उसे तुमड़ी कहा जा सकता था।
संतों का हमेशा यही संदेश रहा है कि जीवन क्षणभंगुर है। इसलिए इसे महान कार्यों में लगाना चाहिए, ताकि माटी होने के बाद भी लोग हमारे मृत स्थान पर सिर झुकाएं। यह तभी संभव है जब हम भक्ति मार्ग का अनुसरण करें।
भगवान शंकर आगे कहते हैं-
‘जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी।
जीवत सव समान तेइ प्रानी।।
जो नहिं करइ राम गुन गाना।
जीह सो दादुर जीह समाना।।’
अर्थात, जिस हृदय में ईश्वर की भक्ति नहीं है, वह जीवित होते हुए भी मृत की श्रेणी में आता है। ऐसे व्यक्ति में सदैव विकारों की दुर्गंध रहती है। यह दुर्गंध रावण में भी थी, जिसने उसे नष्ट कर दिया।
भगवान शंकर ने उन लोगों का भी उल्लेख किया जो दिनभर निंदा और चुगली करते हैं। वे बिना चुगली के रोटी भी नहीं पचा सकते। भोलेनाथ कहते हैं कि ऐसे लोगों को मैं मेंढक की श्रेणी में रखता हूँ। मेंढक केवल टर्र टर्र करता है, लेकिन समाज का कल्याण नहीं करता। इसलिए हमें प्रभु की महिमा गाने में ही अपना कल्याण करना चाहिए।
क्रमशः
- सुखी भारती