“शाम तक सुबह की नजरों से उतर जाते हैं, इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं”… बनारस के करीब तीन लाख बुनकरों की जिंदगी की यही कहानी है. घर में रोज दो वक्त का खाना बनता रहे, इसके लिए एक बुनकर जी तोड़ मेहनत करता है, लेकिन दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में उसके बच्चे का स्कूल छूट जाता है. ये कोई फिल्मी कहानी का सीन नहीं, बल्कि बनारस के बुनकर बाहुल्य इलाके की सच्चाई है. आज सात अगस्त यानी नेशनल हैंडलूम डे पर बुनकरों की जिंदगी और उनकी मुश्किलों पर बात करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि 2015 में नेशनल हैंडलूम डे की शुरुआत करते हुए तब केंद्र सरकार ने ये कहा था कि बुनकरों की जिंदगी में खुशहाली लाने और स्वदेशी को बढ़ावा देने के लिए हम ‘नेशनल हैंडलूम डे’ की शुरुआत कर रहे हैं.
तो इन 10 सालों में बुनकरों के जीवन में क्या बदलाव आए और उनकी जिंदगी कितनी बदली, ये समझने के लिए टीवी9 डिजिटल की टीम पहुंची बुनकर बाहुल्य इलाके जलालीपुरा में…
जलालीपुरा के वार्ड नंबर-63 में मकान है बशीर मियां का. बशीर मियां पिछले 40 साल से बुनकर का काम कर रहे हैं. उनके पांच बच्चों में से सिर्फ उनकी बिटिया गुलनार ही स्थानीय मदरसे में जाती हैं. बाकी के बच्चे स्कूल नहीं जाते. बशीर बताते हैं कि जलालीपुरा के 75% बच्चे स्कूल नहीं जाते. बशीर कहते हैं कि यहां के बुनकरों का मानना है कि प्राइवेट स्कूल में भेजने की हमारी हैसियत नहीं है और सरकारी स्कूलों में भेजने से अच्छा है कि कोई काम-काज ही सीख लें. बशीर मियां की पत्नी शहनाज कहती हैं कि 25 साल हो गए उनको शादी कर के आए, तब से उनकी यही जिंदगी है. दो वक्त के खाने को लेकर रोज एक लड़ाई लड़नी पड़ती है.
बशीर मियां से हमने पूछा कि ये हालात कब से हैं?बशीर मियां ने बताया कि 1990 के बाद से. हैंडलूम के जमाने तक बुनकर एक शानदार जिंदगी जी रहा था. फिर ऐसा लगा कि सरकारें एकदम से हमसे रूठ गई हैं. सरकारी नीतियां, सियासी गुणा-गणित सबने मिलकर एक बुनकर की जिंदगी को कठिन बनाने में अपना योगदान दिया है. वहीं जलालीपुरा के पार्षद ओकास अंसारी कहते हैं कि, “इस पूरे इलाके में बुनकरों के हालात ठीक नही हैं. अब तक करीब चार लाख बुनकर यहां से पलायन कर सूरत और बेंगलुरु चले गए हैं. मजदूरी लगातार कम होती गई और बच्चों का स्कूल छूटता चला गया.”
ओकास अंसारी ने बताया कि पहले की सरकारों में जो बुनकरों को फैसिलिटी मिलती थी, उसको वर्तमान सरकार ने खत्म कर दिया. यार्न डिपो बंद कर दिए गए, पॉवर लूम के पार्ट्स सरकार उपलब्ध कराती थी, वो बंद हो गया और यूपीका हैंडलूम जैसी संस्थाएं भी बंद कर दी गईं. प्रधानमंत्री कहते हैं कि उनकी मंशा है कि घर-घर करघा चले, लेकिन ऐसा लगता है कि पीएम जो कहते हैं, उसका उल्टा ही होता है.
हमने ओकास अंसारी से पूछा कि क्या बुनकरों का कोई अपना संगठन नहीं है, जो बुनकरों के हित की बात करे? ओकास अंसारी ने बताया कि बनारस में बुनकरों के संगठन को बुनकर बिरादराना कहते हैं. यहां छह तरीके के बुनकर बिरादराना हैं. इसके प्रमुखों को सरदार कहते हैं, लेकिन ये भी बस नाम मात्र के ही हैं. हकीकत ये है कि एक बुनकर को अपनी तकलीफ खुद ही झेलनी पड़ती है.
हमने ये सवाल किया बनारस के बड़े साड़ी व्यवसायी और बीजेपी के वरिष्ठ नेता अशोक धवन से….. नेशनल हैंडलूम डे के 10 सालों का हासिल क्या है? हमारा बुनकर आज जहां खड़ा है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है?
अशोक धवन ने कहा कि ये सही है कि हालात बहुत खराब हैं, लेकिन ये कहना ठीक नहीं होगा कि सरकार की नियत नहीं थी इस सेक्टर को बेहतर करने की. पहली बात तो ये कि आज बनारस का साड़ी उद्योग एक कुटीर उद्योग है, जो 95% पॉवर लूम पर और 5% हैंडलूम पर साड़ी बनाता है. जहां तक बनारसी साड़ी की ब्रांडिंग और प्रमोशन की बात है तो संतोष गंगवार जब कपड़ा मंत्री थे तो उन्होंने देश के जितने बड़े डिजाइनर थे, सबको बनारसी साड़ी से जोड़ा ताकि इस सेक्टर में बूम आए.
अशोक धवन ने बताया कि ऋतु कुमार, रीना ढाका, ऋतु बेरी, मनीष मल्होत्रा जैसे डिजाइनर जुड़े भी. ट्रेड फैसिलिटी सेंटर, जिसको हस्त कला शंकुल कहते हैं, वो खुला निफ्ट का ब्रांच बनारस में खोला गया, लेकिन इतना सब होने के बाद भी इस सेक्टर को वो हासिल नहीं हुआ, जो होना चाहिए था. उसमें सबसे बड़ा रोड़ा तो सपा सरकार ही बनी. जब ट्रेड फैसिलिटी सेंटर के लिए जमीन देने की बात हुई तो वो टालते रहे.
चौकाघाट इलाके में वो जमीन चाहिए थी, ताकि बुनकर और बायर्स दोनों के लिए आसान हो, लेकिन उन्होंने जमीन नहीं दी तो सीपीडब्लूडी की जमीन लालपुर में ये सेंटर बना, जो कि जगह के लिहाज से बुनकरों और बायर्स दोनों के लिए आउट ऑफ रूट था. दूसरा बड़ा रोड़ा है डुप्लीकेसी, जो कपड़ा बनारस हजार रुपए में तैयार करता है, उसको सूरत 400 रुपए में बेच देता है. अशोक धवन ने कहा कि लेकिन इसको लेकर एक बात कहूंगा तो लोग बुरा मानेंगे और वो ये कि सूरत को ये ताकत किसने दी? बनारस से गए हुए बुनकर ही सूरत को ताकत दे रहे हैं. फिलहाल इतना कहूंगा कि इस सेक्टर की बेहतरी यदि सरकार चाहती हो तो बनारस को एक टेक्सटाइल पार्क दे दे.
‘गृहस्ता खुद इस हालत में नही है कि वो अपना काम बढ़ाए तो वो कहां से बुनकर को काम दे पाएगा- शमीम अहमद, गृहस्ता.
शमीम अहमद पीलीकोठी में रहते हैं और वो बनारसी साड़ी के गृहस्ता हैं. उन्होंने टीवी9 डिजिटल को बताया कि लॉकडाउन के बाद से हालात बिगड़े हैं. इसके पहले खराब से खराब हालात में भी बुनकर अपना परिवार चला लेते थे. आज महीने में 15 से 20 दिन भी बुनकरों को काम मिल जाए तो वो तकदीरवाला है. हम खुद परेशान हैं सूरत और बंगलौर से. उनसे रेट के मामले में जब मुकाबला नहीं कर पाए तो हम भी सूरत का माल बनारस का कहकर बेच रहे हैं. सूरत की तैयार साड़ी की डिजाइन हमारी, टेक्निक हमारी और रेट आधा, बताइए कहां तक हम लड़ पाएंगे?
सूरत में वहां की सरकार ने जो किया वो हमारी सरकार क्यों नहीं कर पाई?अब्दुल कयूम अंसारी कई पुश्तों से साड़ी के काम में लगे हुए हैं. वो भी एक गृहस्ता ही हैं. वो कहते हैं कि हम जो साड़ी बनाते हैं, उसकी कॉस्ट इतनी होती है कि मुनाफा निकलना मुश्किल होता है. टेक्सटाइल को लेकर कोई बड़ा प्रोजेक्ट बनारस में लगा नहीं. धागे की कोई कंपनी भी बनारस में नहीं लगी. तो धागे और बाकी चीजों पर हम सूरत पर निर्भर हो गए. उससे ट्रांसपोर्ट का खर्च बढ़ा और इसका नुकसान गृहस्ता और गद्दीदार दोनों पर पड़ा. गद्दीदार भी परेशान ही हैं, नहीं तो वो अच्छे दिनों में हमें अच्छा पैसा देते रहे थे.
बनारसी साड़ी के गद्दीदार और बीजेपी के अल्पसंख्यक मोर्चा के प्रदेश उपाध्यक्ष हाजी अनवार अंसारी बनारस के बदहाल बुनकरों के लिए सूरत को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. हाजी अंसारी कहते हैं कि बनारस के बुनकर और बनारसी साड़ी को बचाना है तो यहां की डिजाइन के कॉपी करने पर रोक लगानी होगी. बनारस में बदहाली पॉवर लूम में ही है, जो की करीब 95% है. अभी भी बनारसी कढुआ का कोई मुकाबला नहीं है. शिक्षा का अभाव भी बुनकरों की बदहाली के लिए बड़ा कारण है.
प्रमोशन और ब्रांडिंग के लिए हस्तकला शंकुल सरकार ने दिया है, लेकिन पढ़े-लिखे न होने के कारण वो लाभ नहीं उठा पाते. दूसरा बैंकिंग सेक्टर से जो सहयोग मिलना था लोन और योजनाओं को लेकर वो भी नहीं मिला. योजनाओं की सही जानकारी भी बुनकरों को नहीं मिलने से उनको कोई सरकारी लाभ नहीं मिल पाता. अंतर्राष्ट्रीय नीति का भी पर्याप्त असर पड़ता है. जब तक पाकिस्तान और बंगलादेश में माल की खपत थी, तब तक बुनकरों की हालत आज की तूलना में बेहतर थी.
कैबिनेट मंत्री संजय निषाद के अजीबोगरीब तर्क!संजय निषाद ने कहा कि अंग्रेजों और मुगलों से लड़ते-लड़ते बुनकर समाज भूमिहीन हो गया. शिक्षा उसको मिली नहीं और पिछली सरकारों ने कोई कार्य योजना बनाई नहीं तो इनकी हालत लगातार खराब होती गई. ज्यादातर जुलाहों ने धर्म परिवर्तन करा कर इस्लाम स्वीकार कर लिए और अंसारी हो गए. अब अंसारी समाज के बुनकर जालीदार टोपी वालों के चक्कर में फंसे हुए हैं. हमारी सरकार ने कार्ययोजना बनाई, सस्ते दर पर बिजली दी, एक्सपो लगवा रही है, ताकि बुनकर अपना माल अच्छे दाम पर बेच सकें. ओडीओपी के माध्यम से इनकी बनाई साड़ियों की ब्रांडिंग हो रही है, वो बिक रहे हैं. मदरसों में इनके बच्चों को आधुनिक शिक्षा दे रहे हैं, लेकिन हकीकत ये है कि अब भी ये समाज उन्ही लोगों के चक्कर में है, जिन्होंने इनका शोषण किया है.
कृषि के बाद कपड़ा देश में रोजगार देने वाला दूसरा सबसे बड़ा सेक्टर है, लेकिन अफसोस की आज यही सेक्टर सरकार की गलत नीतियों की वजह से न सिर्फ उपेक्षित है, बल्कि इस सेक्टर से जुड़े लाखों बुनकर जो कभी कारीगर कहलाते थे, आज मजदूरों से भी बदहाल स्थिति में हैं और सरकार की तरफ उम्मीद से टकटकी लगाए हुए हैं, लेकिन क्या इनकी उम्मीदें कभी पूरी होंगी?