Sholay की इमोशनल और अधूरी कहानियां, विधवा विवाह का बन गया था प्लान! अमिताभ-जया की वो कहानी
TV9 Bharatvarsh August 19, 2025 02:42 PM

Sholay 50 Years: हिंदी के मशहूर कवि हरिवंश राय बच्चन ने लिखा कि ‘और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला’. कुछ यही हाल कल्ट मूवी शोले का भी है. संजीव कुमार और अमजद खान जैसे स्टार्स की शोले की रिलीज को पचास साल पूरे हो गए. इन पांच दशकों में पुरानी पीढ़ियां गईं और नई पीढ़ियां आ गईं, लेकिन पचास साल बाद भी हिंदुस्तान की कोई दूसरी फिल्म रमेश सिप्पी की शोले जैसी इतनी चर्चा नहीं पा सकी. शोले के डायलॉग, शोले के सीन, शोले के कैरेक्टर्स सालों साल से चिर युवा बने हुए हैं. इन्हीं में ठाकुर-गब्बर के तेवर जितने चर्चित रहे तो अमिताभ-जया के किरदारों के प्रसंग भी उतने ही भावुक. इन किरदारों के माध्यम से राइटर-डायरेक्टर विधवा विवाह का संदेश भी देना चाहते थे.

हैरत की बात ये भी है कि जिस फिल्म को रिलीज के वक्त समीक्षकों से बहुत ही खराब रेटिंग मिली, पत्र-पत्रिकाओं ने खारिज कर दिया था. थिएटरों में शुरुआती कुछ दिनों तक भीड़ नहीं जुट सकी, उसी फिल्म पर बाद में मोटी-मोटी किताबें लिखी गईं, देशभर के सिनेमाघरों में वह महीनों चलती रहीं. मुंबई के मिनर्वा हॉल में कुल मिलाकर पांच महीने तक चली. वाकई यह तथ्य बहुत ही अनोखा हो जाता है. लेकिन उसी शोले को जब हम आज के दौर में दोबारा देखते हैं तो ऐसा लगता है कि जैसे कई बातें अधूरी रह गईं.

जया-अमिताभ की अधूरी कहानी

तो आज हम शोले की कुछ अधूरी कहानियों पर रोशनी डालने की कोशिश करेंगे. हालांकि मैं यहां जिन अधूरी कहानियों का जिक्र कर रहा हूं उसकी चर्चा गाहे-बगाहे कई बार हो चुकी हैं लेकिन ये अधूरी कहानियां ऐसी हैं जो पूरी हो भी सकती थीं. मसलन अमिताभ बच्चन और जया बच्चन के किरदार. याद कीजिए रामगढ़ में जब जय और वीरू यानी अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र आते हैं. वीरू का इमोशनल कनेक्शन बसंती यानी हेमा मालिनी से हो जाता है. वे दोनों एक-दूसरे से प्रेम करने लग जाते हैं. दूसरी तरफ जय का विधवा राधा यानी जया बच्चन का इमोशनल कनेक्शन मन ही मन दबा रहता है. वह अव्यक्त है. दोनों का आमना-सामना होता है. जय राधा को कभी चाभी, बकरी का बच्चा सौंपते हैं और राधा की मुस्कान में एक उष्मा को महसूस करते हैं, जिसमें वह अपने लिए सुनहरे भविष्य का आकार लेता हुआ पाते हैं.

फिल्म में राधा ठाकुर बलदेव प्रताप सिंह यानी संजीव कुमार की छोटी बहू हैं, जोकि गब्बर के हाथों मारे जाने के बाद युवा अवस्था में विधवा हो चुकी थी. कई बार ऐसा देखा गया कि जय देर रात तक माउथ ऑर्गन बजाते रहते हैं. वहीं दूसरी तरफ राधा लैंप बुझा रही होती हैं. दोनों के बीच दूरी है. राधा की नजर जय की तरफ जाती है, जय की नजर भी राधा की तरफ जाती है. ऐसा अहसास होता है दोनों एक-दूसरे के प्रति सम्मोहित हो रहे हैं.

दोनों के दिलों की अनुभूति ठाकुर साहब और नौकर रामलाल के मन तक पहुंच चुकी है. यही वजह है कि ठाकुर साहब राधा के पिता (इफ्तेखार) को जाकर कहते हैं- आप चलकर जय को एक बार खुद देख लीजिए. जय बहुत अच्छा लड़का है. तब इफ्तेखार कहते हैं- राधा अब आपकी भी बेटी है, आप जो भी कहेंगे, उसमें मैं साथ हूं. यानी ठाकुर साहब और राधा के पिता भी दोनों के रिश्ते के खिलाफ नहीं हैं. लेकिन नियति कुछ और थी. गब्बर सिंह के गिरोह से लड़ाई के दौरान जय जख्मी होते हैं. उसी वक्त राधा दौड़ते हुए आती है और जख्मी जय को देखती हैं. कलेजा एक बार फिर से पीड़ा से भर जाता है. इस वक्त जया बच्चन चेहरा पीड़ा से भर जाता है.

वीरू की गोद में लेटा हुआ जख्मी जय राधा की तरफ देखकर कहता है- देखो वीरू, यह कहानी भी अधूरी रह गई. उस फिल्म में इस प्रकार विधवा विवाह के प्रति एक संकेत करने की कोशिश की गई थी. खास बात ये कि बाद में इसे साकार करने के बारे में भी सोचा गया. शोले रिलीज का ये शुरुआती हफ्ता था. सिनेमा हॉल हाउसफुल नहीं होने पर अमिताभ बच्चन के घर पर रमेश सिप्पी, सलीम-जावेद आदि के साथ एक मीटिंग हुई. उस बैठक में कहानी के एक हिस्से में बदलाव का विचार किया गया. जय और राधा की शादी कराने पर सहमति जताई गई. सोचा गया कि इससे समाज में विधवा विवाह का मैसेज जाएगा. रमेश सिप्पी ने कहा- एक दिन और देख लेते हैं. लेकिन इसी बीच सिनेमा हॉल में दर्शकों की संख्या बढ़ने लगी. इस वजह से वह कहानी वहीं अधूरी छोड़ दी गई.

इमाम साहब-अहमद की अधूरी कहानी

शोले में अधूरी कहानियां और भी है. एक किरदार हैं इमाम साहब. एके हंगल ने यह किरदार निभाया है. इनके बेटे हैं- अहमद मियां, जिसका रोल सचिन ने किया था. सचिन इसमें एक किशोर युवा हैं. पिता इमाम साहब उसे जबलपुर बीड़ी के कारखाने में नौकरी पर जाने के लिए बार-बार कहते हैं. अहमद को लेकर इमाम साहब के सपने बुन रखे हैं. अगर अहमद नौकरी कर ले तो उसका विवाह होगा. परिवार बसेगा. लेकिन रास्ते में गब्बर सिंह गिरोह का डाकू उसकी हत्या कर देता है. गांव में मातम पसर गया. इमाम साहब की भी ख्वाहिश अधूरी रह जाती है.

ठाकुर के पोते को मारने से बचा जा सकता था

शोले में अधूरी कहानी और भी है. आमतौर पर डकैत कथानक वाली फिल्मों में डकैत का सरदार किसी घर पर हमला करने के दौरान वहां के बच्चे को उठाकर अपने साथ ले जाता है. उसको पाल कर बड़ा डाकू बना देता है. लेकिन शोले में ऐसा नहीं होता. गब्बर सिंह और उसके गिरोह के डाकू जब ठाकुर के परिवार पर हमला करने आते हैं, और परिवार के सारे सदस्यों की हत्या कर देते हैं, उस दौरान ठाकुर के मासूम पोता को भी नहीं बख्शते. जो कि उस वक्त मुश्किल से 8 से 10 साल का रहा होगा. गब्बर सिंह उसकी भी बहुत ही निर्ममता से हत्या कर देता है. राधा मंदिर जाने की वजह से बच जाती है.

डायरेक्टर और राइटर अगर चाहते तो मासूम की हत्या से बच सकते थे. अगर गब्बर सिंह उस बच्चे को उठाकर ले जाता और अंत में जब गब्बर को पुलिस के हवाले किया जाता है वहां पर पुलिस बच्चे को छुड़ाकर ठाकुर के हाथों सौंप देते तो भी कहानी में कोई फर्क नहीं पड़ता. हालांकि रमेश सिप्पी ने शोले को सबसे अलग तरह की फिल्म बनाने की ठानी थी. वह नहीं चाहते थे कि अब तक हिंदी फिल्मों में डकैतों को जिस तरह से दिखाया गया है, वही यहां भी रिपीट हो. शायद यही वजह हो कि मासूम का अपहरण के बदले उसकी हत्या दिखाई गई.

धन्नो और मौसी को छोड़ बसंती क्यों चली गई?

जब जय और वीरू रामगढ़ आते हैं और ट्रेन में डकैती के दौरान भी ठाकुर और जय-वीरू की बातचीत से पता चलता है कि दोनों बदमाश हैं और उनका कोई ठिकाना नहीं. अपराध करना, जेल जाना और फिर अपराध करना यही उनका काम है. वे कहां से आए, ये भी नहीं मालूम. कहानी में दोनों की कोई बैक स्टोरी नहीं है. लेकिन जब कहानी खत्म होती है तो ठाकुर वीरू को रेलवे स्टेशन छोड़ने आते हैं. वीरू दोस्त जय के साथ आया था लेकिन अकेला उदास जा रहा है.

ट्रेन प्लेटफॉर्म पर आती है. वीरू बोगी में जैसे ही आगे बढ़ते हैं सामने वाली सीट पर बसंती दिखाई देती है. बसंती भी अकेली है. वीरू अचरज भरी निगाहों से देखता है. वहीं बसंती की आंखों में एक हसरत है. दोनों अपना-अपना अकेलापन दूर होता महसूस करते हैं. एक दूसरे की तरफ आगे बढ़ते हैं. गले मिलते हैं. लेकिन अब आप कहेंगे इसमें अधूरी कहानी क्या है.

दरअसल बसंती अपने घर में मौसी के साथ रहती है. मौसी बूढ़ी हो चुकी है. बसंती तांगे चलाती है. उसी से उसका, धन्नो का और मौसी का गुजारा होता है. यानी बसंती अकेली उस घर में कमाने वाली है. ऐसे में बसंती धन्नो और मौसी को छोड़ ट्रेन में वीरू के साथ चली जाती है. धन्नो और मौसी का क्या होगा? उनकी देखभाल कौन करेगा. इसका ख्याल नहीं. दूसरी बात कि वीरू आखिर जाता कहां है? इसका कुछ अता पता नहीं है.

अगर डायरेक्टर-राइटर चाहते तो ठाकुर के पोते की जिंदगी बचाने के साथ साथ वीरू को भी रामगढ़ में बसा सकते थे. क्योंकि वह एक जगह जय से बातचीत में कहता भी है, वह यहीं जमीन खरीदकर खेती करना चाहता है. अगर वीरू रामगढ़ में ही बसंती के साथ बस जाता तो भी कहानी में कोई कमी नहीं आती. बल्कि मैं जिन अधूरी कहानियों की चर्चा कर रहा हूं, उसकी आज जरूरत नहीं पड़ती.

हालांकि तमाम अधूरी कहानियों और कमियों के बावजूद शोले एक कल्ट मूवी है. फिल्म रिलीज के 50 साल पूरे होने पर भी देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर में इसकी चर्चा हो रही है. ये हाल देखकर अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि 100 साल बाद भी लोग शोले को नहीं भूलेंगे.

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