Ganga Crossing : अयोध्या छोड़ जब पहली बार किसी राजा से मिले श्री राम, जानें कौन थे उनके वो मित्र?
_476034619.jpg)
News India Live, Digital Desk: रामायण की महागाथा सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि त्याग, मर्यादा, प्रेम और भक्ति की एक जीवित मिसाल है। इस गाथा का एक-एक प्रसंग हमें जीवन के गहरे सबक सिखाता है। ऐसा ही एक बेहद भावुक और प्रेरक प्रसंग है, जब भगवान श्री राम, माता सीता और भाई लक्ष्मण के साथ अयोध्या के राजसुख को त्यागकर वनवास के लिए निकलते हैं।यह वह सफर था जिसने एक राजकुमार को मर्यादा पुरुषोत्तम बनाया। चलिए, आज हम आपको रामायण के उसी सुनहरे पन्ने पर ले चलते हैं, जहां से वनवास का वास्तविक संघर्ष और प्रभु की लीलाएं शुरू होती हैं।राजमहल छोड़ वन की ओर पहला कदमअयोध्या की सीमाओं को लांघकर जब श्री राम का रथ आगे बढ़ा, तो उनके पीछे रह गया था अपार वैभव, राजमहल और बिलखते अयोध्यावासी। कई दिनों की यात्रा के बाद, वे तीनों तमसा नदी के तट पर पहुंचे। वहां से आगे बढ़ते हुए वेश्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो गंगा नदी के किनारे बसा था।यह निषादों के राजा गुह का राज्य था। निषादराज गुह, श्री राम के बहुत अच्छे मित्र और भक्त थे। जैसे ही उन्हें पता चला कि प्रभु श्री राम उनके राज्य में पधारे हैं, वह अपना सब कुछ छोड़कर उनके स्वागत के लिए दौड़ पड़े।निषादराज से भेंट: एक मित्र की सच्ची भक्तिनिषादराज ने देखा कि उनके प्रभु, जो कोमल शैया पर सोने के आदी थे, आज जमीन पर घास-फूस का बिछौना बनाकर लेटे हैं। यह देखकर उनका हृदय पीड़ा से भर गया। उन्होंने श्री राम, सीता और लक्ष्मण से अपने महल में चलकर विश्राम करने की बहुत विनती की, लेकिन श्री राम ने संन्यासी धर्म का पालन करते हुए विनम्रता से मना कर दिया। वह रात, तीनों ने गंगा किनारे एक पेड़ के नीचे ही बिताई।वो अद्भुत संवाद: जब केवट ने प्रभु के चरण धोएअगली सुबह, गंगा नदी को पार करने का समय आया। निषादराज ने अपने सबसे भरोसेमंद केवट (नाविक) को नाव लेकर आने को कहा। जब केवट आया और उसने प्रभु श्री राम को अपनी नाव में बैठाने से पहले एक शर्त रख दी।उसने हाथ जोड़कर कहा, "प्रभु, मैंने सुना है कि आपके चरणों की धूल के स्पर्श से पत्थर की शिला भी सुंदर स्त्री (अहिल्या) बन गई थी। मेरी तो यह छोटी सी नाव है, जो लकड़ी की बनी है और यही मेरे परिवार के पेट पालने का एकमात्र जरिया है। अगर आपके चरण लगते ही यह भी कोई स्त्री बनकर उड़ गई, तो मेरा क्या होगा? इसलिए प्रभु, जब तक मैं आपके चरणों को अच्छी तरह से धो नहीं लेता, तब तक मैं आपको अपनी नाव में नहीं बैठाऊंगा।"केवट की इस भोली और प्रेम भरी चतुराई को देखकर भगवान राम मुस्कुरा दिए। उन्होंने केवट को अपने चरण धोने की अनुमति दे दी। केवट ने बड़े ही प्रेम और भक्तिभाव से प्रभु के चरण धोए और उस चरणामृत को पीकर धन्य हो गया।जब गंगा पार हो गई, तो माता सीता ने अपनी अंगूठी उतारकर केवट को उतराई (नाव का किराया) के रूप में देनी चाही, लेकिन केवट ने उसे लेने से साफ मना कर दिया। उसने कहा, "प्रभु, आज मैंने आपको यह छोटी सी नदी पार कराई है, जब मेरा अंतिम समय आएगा तो आप मुझे यह भवसागर (जीवन-मृत्यु का सागर) पार करा देना। बस यही मेरी मजदूरी होगी।"प्रयाग और चित्रकूट: वनवास का नया ठिकानागंगा पार करके श्री राम, सीता और लक्ष्मण प्रयागराज पहुंचे, जहां गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती का पावन संगम है। यहां उन्होंने महर्षि भारद्वाज के आश्रम में विश्राम किया और उनसे आशीर्वाद लिया।महर्षि भारद्वाज ने ही उन्हें वनवास में रहने के लिए सबसे उत्तम स्थान,चित्रकूट जाने की सलाह दी। उन्होंने बताया कि वह पर्वत बहुत ही शांत, सुंदर और तपस्वियों के रहने योग्य है। महर्षि की आज्ञा मानकर, तीनों यमुना नदी को पार करके चित्रकूट की ओर चल दिए और वहीं अपनी कुटिया बनाकर रहने लगे।यह यात्रा सिर्फ एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचना नहीं थी, बल्कि यह राजमहल के सुखों को त्यागकर प्रकृति की गोद में संन्यासी जीवन को अपनाने की एक अद्भुत कहानी है, जो आज भी हमें निस्वार्थ मित्रता, सच्ची भक्ति और धर्म के पालन का संदेश देती है।