जैसा बाप, वैसा बेटा…औरंगजेब की तरह बेटे बहादुर ने सत्ता के लिए भाइयों का क्या हश्र किया? पढ़ें 10 किस्से
TV9 Bharatvarsh October 14, 2025 03:42 PM

मुग़ल साम्राज्य का इतिहास हमेशा से सत्ता के लिए संघर्ष, परिवार के भीतर की लड़ाइयों और चतुर रणनीतियों से भरा रहा है. “जैसा बाप, वैसा बेटा” वाली कहावत मुग़लों के संदर्भ में, खासकर औरंगज़ेब आलमगीर (1618-1707) और उसके बेटों पर बिल्कुल सटीक बैठती है. जिस तरह औरंगज़ेब ने अपने पिता शाहजहां के समय में अपने भाइयों दारा शिकोह, शुजा और मुराद को युद्ध में हराकर दिल्ली की राजनीति को अपने पक्ष में करके सत्ता हासिल की थी, ठीक वैसा ही संघर्ष उसके बेटों के बीच भी देखने को मिला.

औरंगज़ेब के निधन के बाद उसके पुत्रों मुहम्मद आज़म शाह, मुहम्मद मुअज़्ज़म उर्फ बहादुर शाह जफर प्रथम और कम बख़्त के बीच गद्दी के लिए जंग छिड़ गई. इसमें बहादुर शाह प्रथम विजयी हुआ. बहादुर शाह जफर प्रथम की बर्थ एनिवर्सिरी पर जानिए सत्ता संघर्ष से जुड़े किस्से.

1) शाहजहां का उत्तराधिकार संकट और औरंगज़ेब का उदय

शाहजहां जब बीमार पड़े (लगभग 1657-58), तो उनके चारों बेटों के बीच गद्दी के लिए ज़बरदस्त लड़ाई छिड़ गई. दारा शिकोह, जो शाहजहां के सबसे प्यारे और उत्तराधिकारी घोषित किए गए थे, उन्हें हिंदुस्तानी सूफी संस्कृति के करीब माना जाता था. वहीं, औरंगज़ेब धार्मिक नियमों का सख्ती से पालन करने वाला, कुशल सैन्य रणनीतिकार और धैर्यवान राजनेता के रूप में उभरा. उसने युद्ध के मैदान पर अपनी सूझबूझ, सही समय पर गठबंधन बनाने और पिता के खिलाफ सीधे विद्रोह से बचते हुए पहले दारा को अकेला किया, और फिर निर्णायक लड़ाइयां जीतीं. यह तरीका बाद में उनके बेटों के संघर्ष में भी दिखाई दिया.

मुगल बादशाह शाहजहां.

2) समूगढ़ (1658) से दिल्ली तक जीत का अधिकार

समूगढ़ की महत्वपूर्ण लड़ाई में दारा शिकोह हार गए. औरंगज़ेब ने गद्दी पर बैठने के लिए दो चीज़ों का सहारा लिया. एक धार्मिक वैधता (जिसके लिए उन्होंने सुनियोजित फतवे जारी करवाए और औपचारिक शपथ ली), और दूसरा विजेता का अधिकार. औरंगजेब ने यह दिखाया कि वह न केवल सबसे योग्य है, बल्कि अल्लाह की इच्छा से भी उसे यह सत्ता मिली है. सत्ता को वैध ठहराना और बल का प्रयोग करना, दोनों ही मुग़ल उत्तराधिकार की कुंजी थे. बाद में औरंगजेब के बेटों ने भी सत्ता हासिल करने को यही तरीके अपनाने का प्रयास किया.

3) बूढ़ा सम्राट और शक्तिशाली सूबेदार

साल 1700 के दशक की शुरुआत तक औरंगज़ेब बहुत बूढ़ा हो चुका था. दक्षिण में लंबे समय तक चले दक्कनी अभियानों, मराठों के साथ लगातार संघर्ष और उत्तर में राजपूतों व क्षेत्रीय राजनीति के कारण साम्राज्य थक चुका था. ऐसे माहौल में शहज़ादे- खासकर मुहम्मद आज़म शाह (जो दक्कन में काफी प्रभावशाली थे) और मुहम्मद मुअज़्ज़म (जिन्हें काबुल, लाहौर और अकबराबाद जैसे क्षेत्रों का अनुभव था)- अपने-अपने शक्ति-केंद्र बना रहे थे.

जिस शहज़ादे के पास प्रांतों के सैन्य संसाधन होते, वह उत्तराधिकार के संकट में निर्णायक स्थिति में आ जाता था. यह बात औरंगज़ेब के समय भी सच थी और उनके बाद भी सच साबित हुई, जब एन-केन प्रकारेण बेटे मुहम्मद आज़म शाह ने सत्ता हासिल कर ली.

औरंगजेब ने तो सत्ता के लिए भाइयों को भी रास्ते से हटा दिया था.

4) औरंगज़ेब का निधन और सत्ता पर दावेदारी

3 मार्च 1707 को औरंगज़ेब का देहांत हो गया. उसके मरते ही गद्दी के लिए दावेदारों की बाढ़ आ गई. आज़म शाह ने अहमदनगर के पास अपनी दावेदारी मज़बूत की, जबकि मुहम्मद मुअज़्ज़म ने उत्तर भारत की ओर से अपनी वैधता और समर्थन जुटाया. जैसे औरंगज़ेब ने शाहजहां के समय में तेज़ी से पहल करके दारा के खिलाफ मोर्चा लिया था, वैसे ही आज़म शाह ने भी तुरंत पहल की लेकिन राजनीतिक गठजोड़ और अनुभवी सरदारों का झुकाव अंततः मुअज़्ज़म उर्फ बहादुर शाह की ओर गया और वह सत्ता पाने में कामयाब हुआ.

5) भाई बनाम भाई, इतिहास की पुनरावृत्ति

आगरा और फतेहपुर सीकरी के बीच जाजऊ के मैदान में आज़म शाह और मुहम्मद मुअज़्ज़म की सेनाओं के बीच एक निर्णायक युद्ध हुआ. इस युद्ध का परिणाम यह हुआ कि आज़म शाह न केवल हार गया बल्कि मारा भी गया. इस तरह मुअज़्ज़म दिल्ली की गद्दी तक पहुंचने में कामयाब हुआ. उसने बाद में बहादुर शाह प्रथम के रूप में अपना राज्याभिषेक करवाया. जैसे समूगढ़ में औरंगज़ेब ने दारा के शाही समर्थन को तोड़ा था, वैसे ही जाजऊ में बहादुर शाह ने आज़म शाह के दक्षिणी आधार को कमज़ोर कर दिया.

मुहम्मद मुअज़्ज़म उर्फ बहादुर शाह जफर प्रथम.

6) कुछ यूं लड़ा गया वैधता का संघर्ष

औरंगज़ेब की धार्मिक-राजनीतिक छवि- जैसे शरीयत का सख्ती से पालन, जज़िया कर को फिर से लगाना और दक्कन की नीति ने उनके उत्तराधिकारियों के लिए वैधता की भाषा तय कर दी थी. आज़म शाह ने खुद को पिता का “स्वाभाविक उत्तराधिकारी” दिखाने की कोशिश की, जबकि मुअज़्ज़म ने ज़्यादा व्यावहारिक और समझौता परक रवैया अपनाते हुए दरबार के अलग-अलग गुटों को साथ लाने का प्रयास किया.

जैसे औरंगज़ेब ने दारा के “राजमहल से मिली वैधता” पर “युद्ध के मैदान की वैधता” से जीत हासिल की, वैसे ही बहादुर शाह ने आज़म शाह के दावे के खिलाफ अपनी राजनीतिक समझदारी और व्यवहारकुशलता से अपनी वैधता को मज़बूत किया.

7) किसके पास बेहतर गठजोड़?

मुग़ल उत्तराधिकार की लड़ाइयों में शक्तिशाली उमराओं- जैसे राजपूत, पठान, ईरानी-तुर्की मूल के सरदार का समर्थन बहुत निर्णायक होता था. औरंगज़ेब के समय में भी मुराद, शुजा और दारा के मुकाबले उनके साथ खड़े अनुभवी सेनापति ही निर्णायक साबित हुए थे. बाद के समय में, बहादुर शाह के साथ सैयद बंधुओं और कई प्रभावशाली गुटों का सैन्य और राजनीतिक समर्थन जुड़ा, जिसने उन्हें जीत दिलाई. “विजेता अकेला नहीं जीतता”; साम्राज्य के शक्तिशाली केंद्रों का झुकाव ही अंततः यह तय करता है कि “किस बेटे ने किस भाई को हराया”- इस कहानी का असली जवाब यहीं छिपा है.

8) जाजऊ बनाम समूगढ़

समूगढ़ (1658) और जाजऊ (1707) दोनों ही यमुना-आगरा-अकबराबाद के इलाके में हुए थे, जहां रसद की आपूर्ति, नदियों और नालों से बचाव या अवरोध, और घुड़सवारों की तैनाती बहुत महत्वपूर्ण थी. समूगढ़ में औरंगज़ेब ने अपनी अनुशासित तोपखाने और सेना की सही तैनाती से दारा को हराया था. वहीं, जाजऊ में बहादुर शाह ने अपने गुटों के बीच बेहतर तालमेल, बचाव और पलटवार के सही अवसरों का इस्तेमाल किया. मैदान की समझ का यह वह कौशल था जो पिता से पुत्र तक पहुँचा. कहां रुकना है, कब आगे बढ़ना है, और कब दुश्मन को भ्रमित करना है.

9) सुलह, समझौते और शाही कहानी

औरंगज़ेब ने सत्ता में आते ही दरबारी इतिहास-लेखन, फरमानों और अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक नीतियों से अपनी कहानी गढ़ी. बहादुर शाह प्रथम ने भी अपेक्षाकृत नरम नीति अपनाई, विभिन्न गुटों को साथ लाने की कोशिश की और राजपूतों व मराठों के साथ व्यावहारिक संबंध बनाकर अपने शासन को स्थिर करने का प्रयास किया. भाई को हराना सत्ता हासिल करने का पहला कदम है; असली चुनौती पराजित गुटों को फिर से साम्राज्य के ढांचे में शामिल करने की कला है- और दोनों पीढ़ियों में यह चुनौती बहुत महत्वपूर्ण रही.

10) उत्तर-मुग़ल विघटन और सबक

औरंगज़ेब की लंबे समय तक चली युद्ध-नीति ने साम्राज्य के संसाधनों को बहुत थका दिया था. उसके बाद के उत्तराधिकार युद्धों जाजऊ सहित अनेक ने सम्राट की प्रतिष्ठा तो बनाए रखी, लेकिन केंद्र की शक्ति धीरे-धीरे कम होती गई. इसका व्यापक परिणाम यह हुआ कि क्षेत्रीय शक्तियां जैसे मराठा संघ, सिख मिसलें, राजपूत रियासतें, और हैदराबाद, अवध, बंगाल जैसे सूबे ने अपनी स्वायत्तता बढ़ा ली.

बहादुर शाह प्रथम का शासन एक बदलाव का दौर था. उन्होंने भाई को हराकर गद्दी तो ली, लेकिन पूरे हिंदुस्तान पर केंद्र की अटूट पकड़ जैसा औरंगज़ेब का सपना फिर से स्थापित नहीं हो सका. पिता और पुत्र, दोनों पीढ़ियों में सैन्य कौशल और तत्परता समान दिखती है, लेकिन साम्राज्य का ढांचागत आधार कमज़ोर हो चुका था; यही कारण है कि जीत के बावजूद केंद्रीकृत सत्ता स्थायी रूप से मज़बूत नहीं रह पाई.

इतिहासकार जदूनाथ सरकार हों या सतीश चंद्र. खाफी खान हों या इरफान हबीब, रिचर्ड ईटन. लगभग सबके लेखन का सार यही रहा कि औरंगज़ेब ने समूगढ़ में दारा को हराकर विजेता की वैधता स्थापित की; तो उसके बेटे ने जाजऊ में आज़म शाह को हराकर उसी परंपरा को आगे बढ़ाया.

दोनों ही मामलों में तेज़ी से पहल करना, युद्ध के मैदान की रणनीति और प्रभावशाली सरदारों का समर्थन निर्णायक साबित हुआ. धार्मिक वैधता और शक्ति के बल पर वैधता को दोनों ने अपनाया. जीत के बाद अपनी कहानी गढ़ना और अलग-अलग गुटों को फिर से शामिल करना, शासन को स्थिर रखने की कुंजी थी लेकिन ढांचागत रूप से उत्तर-मुग़ल काल में साम्राज्य का मूल आधार कमज़ोर हो चुका था; यही वजह है कि जीतें हमेशा लंबी स्थिरता में नहीं बदल पाईं.

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