बिहार में हालिया चुनाव ने एक बार फिर जातीय समीकरणों को प्रमुखता दी है। सभी 243 सीटों पर चुनाव जाति के आधार पर लड़ा गया, और मतदाताओं का व्यवहार भी इसी के अनुसार निर्धारित हुआ। हालांकि कुछ अपवाद हैं, लेकिन इनसे चुनाव की व्यापक तस्वीर नहीं बदली जा सकती। इस बार चुनाव में न तो कोई लहर दिखाई दी और न ही कोई अंतर्धारा। नीतीश कुमार का शासन पिछले 20 वर्षों से जारी है, और इसके बावजूद विपक्ष उनके खिलाफ कोई प्रभावी माहौल नहीं बना सका। इसके विपरीत, नीतीश के समर्थन में एक मौन सहमति नजर आई। मतदान में वृद्धि का कारण सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि नीतीश कुमार को फिर से सत्ता में लाने की इच्छा प्रतीत होती है। इस चुनाव को हाइपर लोकल कहा जा सकता है, क्योंकि कोई केंद्रीय नैरेटिव इसे मार्गदर्शित नहीं कर रहा था।
बिहार में जाति की भूमिका को समझने के लिए सेंस एक्सिस माय इंडिया के एक्जिट पोल के अनुमानों पर ध्यान देना आवश्यक है। हालांकि ये अनुमान पूरी तरह सटीक नहीं होते, लेकिन जातीय गोलबंदी की तस्वीर पेश करते हैं। अनुमान के अनुसार, 90 प्रतिशत यादव और 67 प्रतिशत मुस्लिम वोट महागठबंधन को मिले हैं। एक जाति का 90 प्रतिशत समर्थन दिखाता है कि चुनाव में जाति कितनी महत्वपूर्ण है। लेकिन क्या यह एमवाई समीकरण राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन को बढ़त दिला पाएगा? ऐसा नहीं लगता, क्योंकि यह संख्या की राजनीति पर निर्भर करता है।
चुनाव से पहले तेजस्वी यादव ने ‘ए टू जेड’ और ‘माई-बाप’ समीकरण की बात की थी। उनके लिए अन्य जातियों का समर्थन जुटाना आवश्यक था, क्योंकि इसके बिना राजद का गठबंधन 122 सीटों के जादुई अंक तक नहीं पहुंच सकता था। तेजस्वी ने जातीय विविधता के आधार पर उम्मीदवारों का चयन किया, लेकिन यह एक तदर्थ उपाय था। यादवों को 53 सीटें देने के बाद, उन्होंने कुछ अन्य जातियों के उम्मीदवारों की संख्या बढ़ाई, लेकिन इससे महागठबंधन को व्यापक समर्थन नहीं मिला।
महागठबंधन को 37 प्रतिशत वोट हासिल करने के लिए तेजस्वी को अपने वोट आधार को बढ़ाना था। हालांकि, इस बार वह ऐसा करने में असफल रहे। मुकेश सहनी की पार्टी वीआईपी और आईपी गुप्ता की पार्टी आईआईपी उनके साथ जुड़ी, लेकिन सहनी का वोट महागठबंधन के साथ नहीं आया। सीट बंटवारे में भी काफी मतभेद रहे, जिससे गठबंधन में दरारें आईं।
एनडीए में भी गड़बड़ियां हुईं, लेकिन जातीय समीकरण के मामले में उनका गठबंधन मजबूत दिखा। नीतीश कुमार का गैर यादव पिछड़ा, अति पिछड़ा, दलित और सवर्ण का समीकरण एकजुट रहा। चुनाव के बाद के सर्वेक्षण एनडीए का वोट प्रतिशत 43 से 49 तक बता रहे हैं। महिला मतदाताओं का समर्थन भी नीतीश कुमार की ओर स्पष्ट रूप से झुका हुआ है।
नीतीश कुमार की सरकार ने चुनाव से पहले कई योजनाएं शुरू कीं, जैसे कि विधवा, दिव्यांगजन और बुजुर्गों की पेंशन बढ़ाना और महिलाओं के लिए उद्यमी योजना। इन योजनाओं का उद्देश्य पहले से जुड़े मतदाताओं की नाराजगी को दूर करना था, जिसमें उन्हें काफी हद तक सफलता मिली।
एनडीए की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का दावेदार नहीं घोषित किया गया। इसके अलावा, भाजपा ने अपने ज्यादातर विधायकों को रिपीट किया, जिससे स्थानीय स्तर पर विरोध का सामना करना पड़ा।
युवा और प्रवासी मतदाता भी चुनाव में महत्वपूर्ण रहे। तेजस्वी यादव ने युवा मतदाताओं के सहारे अपनी रणनीति बनाई, जबकि प्रशांत किशोर ने प्रवासी मतदाताओं को अपने प्रदर्शन का आधार बनाया। लेकिन ये दोनों फैक्टर जाति, महिला और लाभार्थी के नैरेटिव को प्रभावी तरीके से ओवरराइड नहीं कर सके।