हमारे राष्ट्र नायकों में जवाहरलाल नेहरू एक ऐसे किरदार हैं, जिनको सब कुछ मिला पर हर जगह प्रताड़ना भी सही. वे एक ऐसे परिवार में पैदा हुए जहां सब कुछ था. अथाह पैसा, इकलौता पुत्र होने के कारण मां-बाप का अपार प्यार, बहनों का स्नेह आदि सब कुछ. मगर सदैव उनके चारों तरफ एक बाड़-सी लगी रही. वे हर किसी की सख्त निगरानी में थे. बचपन से युवावस्था तक परिवार की बंदिश और फिर स्वतंत्रता संग्राम में कूदने पर गांधी जी का कठोर अनुशासन. 57 वर्ष की उम्र में वे प्रधानमंत्री बन तो गए लेकिन पार्टी की अंतर्कलह में वे सदैव निंदा के शिकार रहे. पार्टी के भीतर भी और पार्टी के बाहर भी.
उधर जनता का उनको अथाह स्नेह मिला. उनकी मृत्यु पर मद्रास में एक महिला ने आत्मदाह कर लिया था. उनके अंतिम दर्शन के लिए जनता उमड़ पड़ी थी. उनकी अस्थियां जब संगम ले जाई जा रही थीं, तब दिल्ली से प्रयागराज तक रेलवे लाइन के दोनों किनारों पर खड़ी ठसाठस भीड़ आंसू बहा रही थी.
‘साड्डा रब चला गया!यह दृश्य मेरा देखा हुआ है. जब उनकी मृत्यु हुई तब मेरा पांचवीं कक्षा का नतीजा आया था और छठी क्लास में मेरा एडमिशन कानपुर के टॉप इंटर कॉलेज में हो गया था. मैं यह खुशी घर में बताने के लिए भाग कर घर पहुंचा तो पाया कि सब रुआंसे बैठे हैं. डरते-डरते अम्मा से पूछा तो पता चला पंडित जी नहीं रहे. पंडित जी यानी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, हम बच्चों के चाचा. घर में तब रेडियो नहीं था. ब्लॉक के दूसरे कोने पर रह रहे प्रोफेसर शुक्ला के यहां पिताजी ले गए. उनके घर रेडियो था और लाइव टेलिकास्ट सुनने के लिए वहां मेला लगा था. सब लोग रो रहे थे.
हमारे गोविंद नगर में पंजाबी शरणार्थी बहुत बसाये गये थे. बंटवारे के दौरान पूर्वी पंजाब (अब पाकिस्तान) से आए इन शरणार्थियों को पंडित जी ने पुनर्वास दिया था. वे रोते हुए चीख रहे थे- ‘साड्डा रब चला गया! पिताजी ने बताया, गांधी जी की मृत्यु पर ऐसा ही दृश्य था.
मृत्यु के बाद नेहरू का भूत!एक ऐसे राजनेता को आजकल हर तरफ से घेरा जा रहा है. उनके विचारों और कार्यों पर भाजपा तो टिप्पणी करती ही है, कांग्रेसी उन्हें खुदा बनाने के लिए उन्हें मानवेतर बना देते हैं. गांधी जी भारत की जनता से प्यार करने वाले राजनेता थे. उन्होंने जो किया वह भारत की अखंडता और यहां के बहु जातीय, बहु सांस्कृतिक, बहु धर्मी तथा बहु भाषी स्वरूप को बचाने के लिए किया. उन्होंने नेहरू के भीतर विदेशों में उनकी स्वीकार्यता देखी, इसलिए उनका नाम कांग्रेस में आगे बढ़ाया.
देश 200 वर्षों की औपनिवेशिक गुलामी के बाद नया-नया आजाद हुआ था. अंग्रेज तो यहां की समस्याओं को और जटिल बना कर चले गए थे. तब आजादी की लड़ाई को जीतकर निकले नेता तो बहुत थे परंतु कूटनीतिक समझ रखने वाले बस गिनती के थे. परंतु नेहरू की ये नीतियां हर राजनीतिक दल को भूत की तरह डराती हैं.
कश्मीर की समस्यादेश की 524 रियासतों का विलय और ऊपर से कश्मीर को बचाए रखना बहुत टेढ़ी खीर था. सबसे जटिल समस्या कश्मीर के महाराजा हरि सिंह की ने खड़ी कर दी, उनके अंदर राज करने की इच्छा हिलोरे ले रही थी. उनकी यही महत्त्वाकांक्षा कश्मीर के लिए मुसीबत बन गई. कभी रहा होगा महाराजा गुलाब सिंह का विशाल राज्य और विशाल फौज पर अंग्रेजों ने उनके वंशजों को राज सुख तो भोगने दिया किंतु फ़ौज छीन ली.
इसलिए महाराजा हरि सिंह पाक घुसपैठियों से निपट नहीं सके और कई शर्तों के साथ भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए. लेकिन तब तक वे कश्मीर का बड़ा हिस्सा गंवा चुके थे. किसी तरह से सरदार पटेल और नेहरू ने कश्मीर का भारत के साथ विलय किया. ऐसे नाजुक मौके पर पंडित नेहरू की उदार रणनीति और उनके गृह मंत्री सरदार पटेल की सख्ती काम आई.
नेहरू की दूरदर्शिता15 अगस्त 1947 को हमें आजादी तो मिली पर देश का पूर्वी और पश्चिमी भाग रक्त से बिंधा हुआ था. अंग्रेजों ने सदियों से चले आए हिंदू-मुस्लिम संबंधों में जहर भर दिया था और देश के बहुसंख्यक हिंदू समाज के जातीय विभाजन को पारस्परिक घृणा से ओत-प्रोत कर दिया था. इन सारी खाइयों को गांधी जी भर सकते थे, किंतु आजादी मिलने के साढ़े पांच महीने में ही उनकी हत्या हो गई.
देश की हालत निराश्रित जैसी थी. ऐसे वक्त में नेहरू जी की दूरदर्शिता ही काम आई. उन्होंने सदैव बीच का रास्ता पकड़ा क्योंकि उस वक्त अनुदार हो जाने का मतलब था देश के दुश्मनों को चालें चलने का अवसर देना. शीत युद्ध का दौर था. दुनिया या तो अमेरिका की NATO संधि से बंधी थी अथवा सोवियत खेमे में थी. वे हर तरह की सांप्रदायिकता और जातिवादी राजनीति के विरोधी थे.
1957 में उन्होंने मद्रास राज्य के मुख्यमंत्री के कामराज को पत्र लिखा था कि ई. रामस्वामी जिस तरह से एंटी ब्राह्मण आंदोलन चला रहे हैं, वह देश की एकता के लिए ठीक नहीं है.
नेहरू की निर्गुट चलने की नीतिनेहरू जी ने निर्गुट रहने का फैसला किया. निर्गुट अर्थात् किसी पाले में नहीं. नेहरू जी ने इस गुट निरपेक्ष आंदोलन (NAM- Non Aligned Movement) को धार दी. उनके साथ थे युगोस्लाविया के मार्शल टीटो, मिस्र के गमाल अब्दुल नासिर, इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो. इन लोगों ने 1961 में NAM को खड़ा किया. बाद में और कई देश उनके इस आंदोलन से जुड़े.
NAM का उद्देश्य था स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता को बढ़ावा देना तथा जातिवाद और रंग भेद के विरुद्ध एकजुट होना. इसके चलते विश्व नेताओं में भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति का लोहा माना. नेहरू जी धर्म की सांस्कृतिक विरासत को तो स्वीकार करते थे परंतु धर्म और राजनीति के घालमेल से उन्हें घृणा थी. धर्म की नैतिक अनिवार्यता को वे भी गांधी जी की तरह व्यावहारिक जरूरत मानते थे. किंतु राजनीति से उसे दूर रखने के हामी थे.
वे सेकुलर थे पर अनाध्यात्मिक नहींपंडित जवाहरलाल नेहरू सेकुलर थे लेकिन मार्क्सवादियों की तरह अनाध्यात्मिक नहीं. आर्थिक नीतियों के मामले में उनकी सोच समाजवादी थी. किंतु राजनीतिक रूप से वे उदारवादी थे. यह सच है कि उन्होंने कुछ सेवाओं में सरकारी दखल को स्वीकार किया. लेकिन निजी क्षेत्रों को भी उनकी सीमा के अंदर कारखाने लगाने, उद्योग खड़े करने की छूट दी. अलबत्ता उनकी मजदूर नीति में श्रमिक कल्याण को प्रमुखता थी.
श्रमिकों के लिए आवास और चिकित्सा हेतु राज्य सरकार की तरफ़ से बीमा (ESIC) उनकी इसी सोच को बताते थे. कर्मचारी भविष्य निधि के तहत सेवा से मुक्त होने पर औद्योगिक मजदूरों को एकमुश्त रकम मिल जाती थी, जिससे वे अपनी शेष जिंदगी गुजार सकें. उन्होंने राज्य के लिए कल्याणकारी सरकार की अवधारणा प्रस्तुत की. उनकी ये नीतियां उन्हें जन सरोकार से जोड़ती थीं.
अकेले पड़ता रहा उनका निजी जीवनइसके बावजूद उन्हें अपने जीवन काल में सदैव आलोचना का शिकार होना पड़ा. परिवार में मां-बाप, बहनों तथा पत्नी और बेटी के होते हुए भी उन्हें परिवार से अलग रहना पड़ा. पत्नी कमला नेहरू उनसे 10 साल छोटी थीं और एक सामान्य कश्मीरी ब्राह्मण परिवार से आई थीं, जबकि जवाहरलाल नेहरू के पिता उन दिनों देश के कुछ धनवान लोगों में से एक थे. जवाहरलाल जी ने तो पत्नी को भरपूर प्यार दिया किंतु वे इस अत्याधुनिक परिवार के अनुकूल नहीं बन पाईं. वे अंग्रेज़ी बोलने में निपुण नहीं थीं जबकि ससुराली जन देशी बोली बोलना अपना अपमान समझते थे.
पति को अक्सर जेल में रहना पड़ता था इसलिए वे भी स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ीं परंतु उन्हें टीबी हो गई और मात्र 37 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया. नेहरू के लिए अब देश को स्वतंत्र कराना ही लक्ष्य था. वे परिवार से दूर होते चले गए.
एडविना से रिश्तेइतना विशाल व्यक्ति अपने निजी जीवन में कितना अकेला था, इसको कभी समझा नहीं गया, उलटे अक्सर उनके और लॉर्ड माउंटबेटन की पत्नी एडविना के रिश्तों को उनकी चारित्रिक कमज़ोरी बताया गया. यह सच है कि उनके एडविना के साथ गहरे आत्मिक और बौद्धिक रिश्ते थे. मगर हर रिश्ते को चरित्र से जोड़ना मानव स्वभाव की कमजोरी है. भारत के राजनेता तो उनके इन संबंधों पर प्रहार करते ही थे ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चर्चिल ने माउंटबेटन से कह दिया कि तुम अपनी बीबी को नेहरू के हाथों सौंप चुके हो.
चर्चिल पर बने वृत्त चित्र में यह कहते हुए बताया गया है. कांग्रेस में मौलाना आज़ाद ने अपनी किताब इंडिया विन्स फ़्रीडम में भी इस बात की तरफ इशारा किया है. यह नेहरू पर प्रहार था. फिर भी वे हर प्रहार को झेलते हुए देश की अखंडता के प्रश्न पर अपनी दृष्टि से काम करते रहे.
उनको न देवता माना जाए न दानव!पंडित जवाहरलाल नेहरू एक मध्य मार्गी उदारवादी राजनेता थे. वे कभी सख़्त भले न पड़े हों किंतु उनकी नाराज़गी से सब डरते भी थे. इसलिए उन्होंने अपने नजरिए से देश को आगे बढ़ाया. कई बार उन्हें धोखे भी मिले. उन्हें कितनी बार चेताया गया किंतु उन्होंने तिब्बत को चीन का हिस्सा माना और चीन के साथ सिंधु जल समझौता किया. पर चीन ने अक्टूबर 1962 में भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया.
इस युद्ध में भारत को मात मिली. ऐसी बहुत सारी भूलें होती रहती हैं. लेकिन इससे किसी नेता की विश्वसनीयता पर शक नहीं किया जा सकता. उनका देश प्रेम अखंड था और उनकी दूरदर्शिता बेमिसाल. आज जिस तरीके से नेहरू को देश का विलेन बताया जा रहा है, वह उचित नहीं है. नेहरू भी मनुष्य थे इसलिए उनके अंदर अति मानवीयता देखने की कोशिश करना भी मूर्खता है.