आकार पटेल का लेख: कनाडा-अमेरिका से उलझे राजनयिक रिश्ते और हमारी राष्ट्रीय रक्षा रणनीति
Navjivan Hindi October 21, 2024 06:42 AM

अंतर्राष्ट्रीय नियमों पर आधारित व्यवस्था, अस्ल में जंगल राज का एक पर्याय है जो वैश्विक शक्ति राजनीति को परिभाषित करता है।

‘ताकतवर या मजबूत लोग वही करते हैं जो वे कर सकते हैं और कमज़ोर लोग वही सहते हैं जो उन्हें सहना पड़ता है’ यह पंक्ति लगभग 2400 साल पहले लिखे गए एक प्रसिद्ध इतिहास ग्रंथ की है जो अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत की नींव है। यह आज भी सच और चरितार्थ है, भले ही आज हमारी व्यवस्था में संयुक्त राष्ट्र और इसकी सुरक्षा परिषद सहित असंख्य संस्थाएं हैं। मसलन, फ़िलिस्तीनियों या लेबनान के लोगों को ऐसे समय में यह बताने की कोशिश की जाए कि एक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था है, जिस समय उनके बच्चों की एकतरफ़ा युद्ध में हत्या की जा रही है। ऐसा ही कुछ यूक्रेन, ईरान, क्यूबा, वियतनाम और अफगानिस्तान के लोगों के साथ है।

इस हकीकत को देखते हुए, यह स्वाभाविक है कि जब अंतरराष्ट्रीय मामलों की बात आती है तो सरकारें या राज्य सिर्फ या आमतौर पर अपने हित को ही पहले देखते हैं। चलन कुछ ऐसा ही है और यह समझ में भी आता है।

भारत पर आरोप है कि वह ऐसे देशों में कुछ व्यक्तियों पर हमले कराकर व्यवस्था का उल्लंघन कर रहा है, जिनके साथ उसके रिश्ते दोस्ताना माने जाते हैं। वास्तविकता यह है कि अगर भारत को लगता है कि उसकी सीमाओं के पार से कोई खतरा पैदा हो रहा है, और उसे लगता है कि वह कोई कार्रवाई करने में सक्षम है, तो वह कार्रवाई करेगा। यह भी समझ में आता है।

कई सवाल उठ रहे हैं, लेकिन आइए एक खास मामले की पड़ताल करते हैं। आखिर खतरे की प्रकृति क्या थी जिस पर कार्रवाई करने का हमारे ऊपर आरोप लग रहा है और अब वह खतरा कितना गंभीर है।

ऐसी कार्रवाइयों में हुई मौतों के आंकड़ों से कुछ अर्थपूर्ण चीजें सामने आएंगी। साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल का कहना है कि पंजाब में हिंसा की शुरुआत 1984 में 456 लोगों की मौते के साथ हुई थी। यह निश्चित रूप से ऑपरेशन ब्लू स्टार और एक प्रधानमंत्री की हत्या वाला था। मौतों के आंकड़े तीन दशक पहले यानी 1991 में चरम पर पहुंचे थे। उस सा 5000 से ज़्यादा लोग मारे गए थे। अगले साल इसमें कमी तो आई लेकिन फिर भी आंकड़ा लगभग 4000 ही रहा। इसके बाद इसमें गिरावट दर्ज हुई।

1998 से 2014 यानी 12 साल के दौरान मौतों का आंकड़ा नगण्य रहा, कई बार शून्य ही रहा। बीते 6 साल के दौरान भी संख्या एक अंक से ऊपर नहीं गई और किसी भी सुरक्षा बल के जवान या अधिकारी की मौत नहीं हुई।

अगर सरकार और सुरक्षा व्यवस्था को फिर भी लगता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा को अब भी ऐसा खतरा है जिससे निपटने के लिए उसे ऐसी कार्रवाई करनी चाहिए, जिसके उसके ऊपर आरोप लग रहे हैं, तो इस सोच के पीछे कारण कहीं और हैं।

किसी की कही गई बात को नापसंद करने, और उससे राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा महसूस करने में फर्क है। तो हमें अपनी सरकार द्वारा अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरों के बारे में कही गई बातें कहां मिल सकती हैं? जवाब है - कहीं नहीं।

जनवरी 2021 में, एक थिंक-टैंक ने एक रिटायर्ड जनरल द्वारा लिखा एक पेपर जारी किया। उन्होंने लिखा था कि सेना में किए गए बदलावों ने एक शानदार सैन्य अफसर (तब जनरल बिपिन रावत थे) को अपनी रणनीतिक और सैन्य सूझबूझ दिखाने का मौका  दिया। लेकिन रिपोर्ट में दुर्भाग्य से निष्कर्ष निकाला है कि चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ ‘अभी तक रक्षा रणनीति तैयार नहीं कर सके हैं।’

इसका एक कारण शायद यह हो सकता है कि सरकार अभी तक तय नहीं कर पाई है कि आखिर समस्या की प्रकृति क्या है। छह साल पहले 2018 में डिफेंस प्लानिंग कमेटी यानी रक्षा योजना समिति बनाई गई थी। इसकी अध्यक्षता राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल करनी थी और इसमें विदेश और रक्षा सचिव के अलावा चीफ ऑफ डिफें स्टाफ, तीनों सेना प्रमुख और वित्त मंत्रालय के सचिव शामिल थे। मनोहर पर्रिकर इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस द्वारा तैयार एक लेख के मुताबिक इस समिति के पास राष्ट्रीय रक्षा एवं सुरक्षा प्राथमिकताओं, विदेश नीति की अनिवार्यताओं, ऑपरेशनल डायरेक्टिव यानी परिचालन निर्देशों और उनसे जुड़ी आवश्यकताओं, प्रासंगिक रणनीतिक एवं सुरक्षा संबंधी सिद्धांतों, रक्षा अधिग्रहण एवं अवसंरचना विकास योजनाओं, राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति, रणनीतिक रक्षा समीक्षा एवं सिद्धांतों, अंतर्राष्ट्रीय रक्षा संलग्नता रणनीति’ आदि पर नजर रखने जैसे बहुत महत्वपूर्ण और विशाल कार्य थे।

इस समिति की 3 मई 2018 को एक बैठक हुई थी, लेकिन शायद उसके बाद कभी इस समिति की कोई बैठक नहीं हुई। एक ऐसी सरकार के शासन में जो राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिकता देते हुए सर्वोपरि रखती है या कम से कम ऐसा कहती है, समिति की बैठक न होना आश्चर्यजनक है।

अखबारों में प्रकाशित एक रिपोर्ट अनुसार इस साल मई में इस बारे में लिखा गया, जिसकी हेडलाइन थी ‘लिखित राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति न होने का अर्थ यह नहीं कि भारत के पास ऐसी रणनीति नहीं है - सीडीएस’

पूर्व जनरल प्रकाश मेनन ने रेखांकित किया है कि कई दशकों तक भारत की सेना के लिए राजनीतिक मार्गदर्शन पाकिस्तान को तत्काल खतरे के रूप में देखता रहा है। लेकिन अब जबकि चीन का खतरा एकदम दरवाजे पर है, इस नीति-रणनीति को बदलना होगा। सेना द्वारा हासिल किए जाने वाले अपेक्षित राजनीतिक उद्देश्य ‘रक्षा मंत्री के परिचालन निर्देश’ नामक एक दस्तावेज में निहित थे, जिसे 2009 में तत्कालीन रक्षा मंत्री ए के एंटनी ने लिखा था।

इसमें सिर्फ इतना कहा गया है कि सशस्त्र बल को 'दोनों मोर्चों पर एक साथ 30 दिन (घमासान) और 60 दिन (सामान्य अवस्था) की दर से युद्ध लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए।' इसमें गोला-बारूद और अतिरिक्त रक्षा उपकरणों का संदर्भ है, लेकिन वास्तव में यह कोई सिद्धांत नहीं है।

जनरल मेनन कहते हैं कि यह निर्देश भी ‘सुसंगत राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति की कमी के कारण अभी भी अधूरा है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की अध्यक्षता वाली रक्षा योजना समिति को दो साल पहले यह कार्य सौंपा गया था। अभी तक कुछ भी सामने नहीं आया है।’ यह बिल्कुल वैसी स्थिति है जो ऐसे जटिल कामों के साथ होती है जिन्हें शीर्ष स्तर से नियंत्रित और संचालित किया जाता है, लेकिन विवरण में कोई रुचि नहीं होती है।

एक महत्वाकांक्षी महाशक्ति की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति अलिखित है यानी है ही नहीं, क्योंकि उसमें जो कार्य है उसके बौद्धिक पहलुओं के प्रति कोई जिम्मेदारी या जवाबदेही नहीं होती, उसका अनुप्रयोग बहुत कम होता है, कठिन लेकिन उबाऊ कार्यों के प्रति बहुत कम उत्साह होता है और निरर्थक और सिर्फ दिखावे पर बहुत अधिक ध्यान और जोर दिया जाता है।

एक ही मुद्दे पर अमेरिका और कनाडा के प्रति हमारी विपरीत प्रतिक्रियाएं उजागर हो चुकी हैं। हालांकि, यह अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की प्रकृति है और मजबूत लोग वही करते हैं जो वे कर सकते हैं और कमज़ोर लोग वही सहते हैं जो उन्हें सहना पड़ता है।

हालांकि, जिस बात पर प्रकाश जरूर डाला जाना चाहिए, वह है तर्क का मुद्दा। क्या हमने समस्या के समाधान पर कार्रवाई करने से पहले अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा समस्याओं की प्रकृति के बारे में सोचा है? इसका उत्तर है नहीं।

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