न्यायमूर्ति जी.आर. स्वामीनाथन ने आगे कहा कि शरीयत (कुरान पर आधारित विहित कानून) परिषदें किसी भी जमात (इस्लाम का पालन करने वालों का समूह) के लिए तलाक पर फैसला नहीं सुना सकतीं. उन्होंने जोर देकर कहा, "केवल राज्य द्वारा विधिवत गठित अदालतें ही इस पर फैसला सुना सकती हैं. शरीयत परिषद एक निजी संस्था है, न कि अदालत."
न्यायमूर्ति स्वामीनाथन ने एक डॉक्टर दंपति के बीच घरेलू विवाद के मामले में यह फैसला सुनाया है. उन्होंने 2010 में इस्लामी रीति-रिवाजों के अनुसार शादी की थी और उनका एक बेटा भी था. 2018 में महिला ने 2005 के अधिनियम के तहत शिकायत दर्ज कराई थी. 2021 में एक न्यायिक मजिस्ट्रेट ने उसकी याचिका स्वीकार कर ली और पति को निर्देश दिया कि वह अपनी पत्नी को घरेलू हिंसा के लिए 5 लाख रुपये का मुआवजा दे. 2022 में एक सत्र न्यायालय ने आदेश को बरकरार रखा था. इसके बाद पति ने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था.
याचिकाकर्ता ने दावा किया कि उसने अपनी अलग रह रही पत्नी को दूसरी शादी करने से पहले तीन तलाक नोटिस जारी किए थे. महिला डॉक्टर ने दावा किया कि तीसरा नोटिस उसे नहीं दिया गया और इसलिए उसने दावा किया कि उसकी शादी अभी भी वैध है.