भारत के कई शहरों में प्रदूषण का स्तर बेहद खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है. दिल्ली जैसे बड़े शहरों में तो हालात और भी खराब हैं. सर्दियों के मौसम में तो प्रदूषण का स्तर और भी बढ़ जाता है. लेकिन ये समस्या सिर्फ भारत की नहीं, दुनिया की है.
दुनियाभर में प्रदूषण कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है. नौ साल पहले दुनिया ने मिलकर फैसला किया था कि प्रदूषण कम करने के लिए बड़े कदम उठाए जाएंगे. लेकिन, ऐसा हो नहीं पाया. इसकी वजह से 2030 तक प्रदूषण कम करने का जो लक्ष्य रखा गया था, वह भी पूरा होता नहीं दिख रहा है. धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने का लक्ष्य अब मुश्किल लग रहा है.
दो हफ्ते बाद दुनियाभर के देश अजरबैजान की राजधानी बाकू में जलवायु परिवर्तन पर एक बैठक के लिए इकट्ठा होंगे. इस बैठक में सबसे जरूरी बात यह होगी कि प्रदूषण कम करने के लिए पैसे का इंतजाम कैसे किया जाए. कौन कितना फंड देगा, यह तय करना हमेशा से एक टेढ़ी खीर रहा है.
प्रदूषण कम करने के लिए नई टेक्नोलॉजी, नए इक्यूप्मेंट और नए प्रोजेक्ट की जरूरत होती है. यह सब बिना पैसे के नहीं हो सकता. अगर देशों को प्रदूषण कम करने के लिए गंभीरता से काम करना है, तो उन्हें पैसे का इंतजाम करना होगा. इसलिए, बाकू में होने वाली यह बैठक बहुत अहम है.
क्या है 1.5°C का लक्ष्य?
कुछ साल पहले दुनिया भर के देशों ने मिलकर पेरिस समझौता किया था कि धरती का तापमान ज्यादा नहीं बढ़ने देंगे. यह समझौता 12 दिसंबर 2015 को पेरिस में हुआ था और 4 नवंबर 2016 को लागू हुआ था. इसके लिए, सभी देशों ने यह वादा किया है कि वे प्रदूषण कम करेंगे ताकि धरती का तापमान औद्योगिक क्रांति से पहले के समय के मुकाबले 2°C से ज्यादा न बढ़े. और अगर हो सके, तो इसे 1.5°C तक ही सीमित रखा जाए.
संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पैनल (IPCC) की रिपोर्ट से यह बात सामने आई है कि यदि तापमान इस सीमा से ऊपर गया, तो इसके गंभीर और भयानक परिणाम हो सकते हैं. इस लक्ष्य को पाने के लिए ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को 2025 तक चरम पर लाकर उसे घटाना बेहद जरूरी है. रिपोर्ट के अनुसार, 2030 तक इन उत्सर्जनों में 43% की कमी लाना होगी. इसके बिना तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर रखना मुमकिन नहीं होगा और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को रोकना मुश्किल हो जाएगा.
पेरिस समझौते के तहत हर देश को हर 5 साल में एक प्लान बनाना होता है जिसमें यह बताया जाता है कि वह प्रदूषण कम करने के लिए क्या-क्या करेंगे. इस प्लान को नेशनली डिटरमिन्ड कंट्रीब्यूशन या NDC कहा जाता है. हर बार जब कोई देश नया NDC बनाता है, तो उसे अपने पिछले प्लान से बेहतर बनाना होता है. यानी, उसे प्रदूषण कम करने के लिए और भी ज्यादा प्रयास करने होते हैं.
धरती का तापमान: क्या 1.5°C की सीमा टूट गई?
यूनाइटेड नेशन्स की रिपोर्ट के अनुसार, धरती का तापमान महीने-दर-महीने या साल-दर-साल बदलता रहता है. इसमें कई प्राकृतिक कारण भी होते हैं. जैसे अल नीनो, ला नीना और ज्वालामुखी विस्फोट. इसलिए, अगर किसी एक महीने या साल में तापमान 1.5°C बढ़ भी जाता है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम पेरिस समझौते का लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएंगे. पेरिस समझौते में लंबे समय तक धरती का तापमान 2°C से नीचे रखने की बात कही गई है, न कि किसी एक महीने या साल की.
अगर किसी महीने या साल में तापमान 1.5°C बढ़ जाता है, तो यह एक चेतावनी है कि हम खतरे के करीब पहुंच रहे हैं. हमें प्रदूषण कम करने के लिए और भी ज्यादा प्रयास करने होंगे.
धरती का तापमान कैसे मापा जाता है?
वैज्ञानिक धरती के तापमान को 1850-1900 के औसत तापमान से तुलना करके देखते हैं. यह वह समय था जब औद्योगिक क्रांति शुरू हुई थी और फैक्ट्रियों से प्रदूषण फैलना शुरू हुआ था. इस समय के तापमान को 'बेसलाइन' माना जाता है. 1850-1900 के बाद से वैज्ञानिक धरती और समुद्र के तापमान का रिकॉर्ड रख रहे हैं. इससे यह पता चलता है कि तापमान कितना बढ़ रहा है.
पहली बार 2015-16 में धरती का औसत तापमान 1.5°C से ज्यादा बढ़ गया था. इसकी दो वजहें थीं: एक इंसानों की गतिविधियों से होने वाला प्रदूषण और दूसरी अल नीनो. अल नीनो एक प्राकृतिक घटना है जिससे धरती का तापमान बढ़ता है. 2023 के आखिर और 2024 की शुरुआत में भी धरती का तापमान 1.5°C से ज्यादा रहा.
जब लगातार 12 महीने तक 1.52°C ज्यादा रहा तापमान
फरवरी 2023 से जनवरी 2024 तक के 12 महीनों में धरती का औसत तापमान 1850-1900 के मुकाबले 1.52°C ज्यादा रहा. इसकी एक वजह अल नीनो भी है, जो एक प्राकृतिक घटना है जिससे तापमान बढ़ता है.
पिछले 10 साल (2014-2023) में धरती का औसत तापमान सबसे ज्यादा रहा है. यह 1850-1900 के मुकाबले करीब 1.2°C ज्यादा है. 2001-2020 के 20 सालों का औसत तापमान भी 1850-1900 के मुकाबले 0.99°C ज्यादा है. विशेषज्ञों का कहना है कि आने वाले 5 सालों में किसी भी साल धरती का औसत तापमान 1.5°C से ज्यादा हो सकता है. 2015 में ऐसा होने की संभावना न के बराबर थी, लेकिन अब यह काफी बढ़ गई है.
ग्रीनहाउस गैसें भी जिम्मेदार?
World Meteorological Organisation (WMO) ने एक रिपोर्ट में बताया गया है कि 2023 में हवा में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा सबसे ज्यादा हो गई. यह एक चिंता की बात है क्योंकि इन्हीं गैसों की वजह से धरती का तापमान बढ़ रहा है. हवा में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 420 ppm हो गई है, जो कि औद्योगिक क्रांति से पहले के समय से 150% ज्यादा है. मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा भी रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है. 2023 में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में 2022 के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ोतरी हुई है. WMO का अनुमान है कि आने वाले कुछ सालों में धरती का औसत तापमान 1.5°C से ज्यादा हो जाएगा.
धरती का तापमान बढ़ा तो क्या होगा?
धरती का तापमान जितना ज्यादा बढ़ेगा, उसके नतीजे उतने ही बुरे होंगे. हर 0.1°C की बढ़ोतरी से भी मौसम में बड़े बदलाव हो सकते हैं. गर्मी के दिन ज्यादा होंगे और तापमान भी ज्यादा रहेगा. कहीं-कहीं बहुत ज्यादा बारिश होगी तो कहीं सूखा पड़ेगा. ज्यादा गर्मी और बारिश से फसलों को नुकसान होगा. जंगलों में आग लगने की संभावना बढ़ जाएगी.
धरती का तापमान बढ़ने से पहले ही कई समस्याएं शुरू हो गई हैं. मौसम में बड़े बदलाव हो रहे हैं, बर्फ पिघल रही है और समुद्र का स्तर बढ़ रहा है. इससे लोगों, जानवरों और पौधों को बहुत नुकसान हो रहा है. आंधी-तूफान, बाढ़ और सूखा जैसी आपदाएं ज्यादा आने लगी हैं. पहाड़ों पर जमी बर्फ पिघल रही है, जिससे समुद्र का स्तर बढ़ रहा है. इससे तटीय इलाकों में बाढ़ का खतरा बढ़ गया है.
पिछले 20 सालों में जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले 55 देशों को 500 बिलियन डॉलर से ज्यादा का नुकसान हो चुका है. 2022 में आपदाओं की वजह से 3.26 करोड़ लोगों को अपने घर छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ा. इनमें से 98% लोग बाढ़, तूफान, आग और सूखे जैसी मौसमी आपदाओं की वजह से विस्थापित हुए.
धरती का तापमान बढ़ा तो सेहत पर क्या असर होगा?
जलवायु परिवर्तन का असर सिर्फ मौसम पर ही नहीं, हमारी सेहत पर भी पड़ रहा है. पिछले 20 सालों से इसके बुरे नतीजे सामने आ रहे हैं, लेकिन अभी तक इसे एक गंभीर स्वास्थ्य संकट नहीं माना जा रहा है.
यूएन की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2000 से लेकर अब तक जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाली बीमारियों से मरने वालों की संख्या 2024 तक 40 लाख से अधिक पहुंच जाएगी. यह आंकड़ा सिर्फ जलवायु से जुड़ी कुछ बीमारियों जैसे कुपोषण, डायरिया, मलेरिया, बाढ़ और दिल की बीमारियों पर ही आधारित है. जबकि सच्चाई यह है कि जलवायु परिवर्तन एक तरह का 'थ्रेट मल्टीप्लायर' है, जो कई अन्य प्राकृतिक आपदाओं और स्वास्थ्य समस्याओं का जोखिम बढ़ा देता है.
जलवायु परिवर्तन के कुछ असर इतने स्थाई हैं कि उन्हें वापस सुधारने में सदियों या हजारों साल लग सकते हैं. इनमें समुद्र के स्तर का बढ़ना, ग्लेशियरों का पिघलना और महासागरों में एसिडिटी का बढ़ना शामिल है. ये प्रभाव आने वाली पीढ़ियों के लिए भी गंभीर समस्याएं छोड़ जाएंगे, जिन्हें हल करना आसान नहीं होगा.
धरती का तापमान बढ़ने से नहीं रोक पाएंगे!
वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि आने वाले 5 से 10 सालों में धरती का तापमान 1.5°C से ज्यादा बढ़ सकता है. IPCC (जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल) के विशेषज्ञों का कहना है कि 2030 तक हमें प्रदूषण को 2019 के मुकाबले 43% कम करना होगा. 2050 तक 'नेट-जीरो' का लक्ष्य हासिल करने के लिए यह पहला कदम है. नेट-जीरो का मतलब है कि हम जितना प्रदूषण फैलाएंगे, उतना ही प्रदूषण कम भी करेंगे.
संयुक्त राष्ट्र की एक नई रिपोर्ट बताती है कि 2030 तक प्रदूषण को 43% कम करने का लक्ष्य हासिल नहीं हो पाएगा. अभी जो भी कोशिशें की जा रही हैं, उनसे 2030 तक प्रदूषण सिर्फ 2.6% ही कम होगा. यानी हमें प्रदूषण कम करने के लिए और भी ज्यादा प्रयास करने होंगे.