भारत का एजुकेशन सिस्टम आज एक बड़े संकट का सामना कर रहा है. नए-नए प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज, आईआईटी और यूनिवर्सिटी तो खूब खुल गए हैं, लेकिन पढ़ाई का स्तर गिरता जा रहा है. कॉलेज से पढ़ाई पूरी करके जो बच्चे निकल रहे हैं उनमें वो हुनर नहीं है जो आजकल की कंपनियों में काम करने के लिए चाहिए. नतीजा यह होता है कि बच्चे डिग्री तो ले लेते हैं, लेकिन उन्हें आगे नौकरी नहीं मिल पाती.
ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन के हिसाब से 1043 यूनिवर्सिटी और 42,343 कॉलेज हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि इनमें से बहुत सारे कॉलेजों के पास मान्यता ही नहीं है. नेशनल असेसमेंट एंड एक्रेडिटेशन काउंसिल (NAAC) के मुताबिक लगभग 30% कॉलेज और यूनिवर्सिटी बिना मान्यता के चल रहे हैं. इंजीनियरिंग कॉलेजों में तो हालात और भी खराब हैं. सिर्फ 45% कॉलेज ही ऐसे हैं जो इंडस्ट्री के मानकों पर खरे उतरते हैं.
'ग्लोबल स्किल्स गैप्स मेजरमेंट एंड मॉनिटरिंग रिपोर्ट ऑफ आईएलओ 2023' की रिपोर्ट के अनुसार, 47% भारतीय कर्मचारी अपनी नौकरी के लिए अंडरक्वालिफाइड हैं. मतलब, उनके पास नौकरी तो है मगर उस काम के लिए जरूरी हुनर और योग्यता नहीं है. वहीं महिलाओं के मामले में यह आंकड़ा और भी ज्यादा है. 62% महिलाएं ऐसी हैं जिनके पास अपनी नौकरी के लिए जरूरी स्किल्स नहीं हैं.
ऐसे में भारत को दुनिया के दूसरे देशों के एजुकेशन मॉडल से बहुत कुछ सीख सकता है. हर देश का अपना अलग सिस्टम होता है, अपनी अलग खूबियां और कमियां होती हैं.
भारत में टीचर्स की कमी, रिसर्च में भी पीछे
आज कॉलेज तो खूब खुल गए, लेकिन पढ़ाने वाले टीचर्स की भारी कमी है. बहुत सारे कॉलेजों में टीचरों की जगहें सालों से खाली पड़ी हैं. देशभर के 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 30% से ज्यादा टीचरों की जगहें खाली हैं.
वहीं रिसर्च पर खर्च के मामले में भी बहुत पीछे हैं. हमारा देश अपनी GDP का सिर्फ 0.7% ही रिसर्च पर खर्च करता है, जबकि चीन 2.4% और अमेरिका 3.5% खर्च करता है. पेटेंट के मामले में भी हम पीछे हैं. 2023 में भारत में 4 लाख 67 हजार 918 पेटेंट फाइल हुए, जबकि चीन में लगभग 77 लाख और अमेरिका में 9 लाख 45 हजार 571 पेटेंट फाइल हुए.
पढ़ाई पर खर्चा घटा, डिजिटल डिवाइड बढ़ा!
उधर सरकार ने पढ़ाई पर खर्चा कम कर दिया है. 2024-25 में हायर एजुकेशन के लिए पिछले साल के मुकाबले 17% कम पैसा रखा गया है. यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन (UGC) का बजट तो 61% तक घटा दिया गया है.
वहीं अजीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन की एक स्टडी में पाया गया है कि 60% स्कूली बच्चों के पास ऑनलाइन पढ़ाई की सुविधा ही नहीं है. मतलब, इंटरनेट और कंप्यूटर तो दूर की बात है. यह एक तरह से डिजिटल डिवाइड है, जहां अमीर बच्चे ऑनलाइन पढ़ रहे हैं और गरीब बच्चे पीछे छूट रहे हैं.
आजकल के कॉलेज लाइफ में पढ़ाई के साथ-साथ टेंशन भी बहुत बढ़ गई है. TimelyMD की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2023 में 50% कॉलेज स्टूडेंट्स ने माना कि उनके स्ट्रेस का सबसे बड़ा कारण मेंटल हेल्थ से जुड़ी समस्याएं हैं. परेशानी की बात यह है कि कॉलेज में उन्हें इसके लिए कोई मदद नहीं मिलती.
दुनिया में सबसे बेहतरीन एजुकेशन सिस्टम कहां
फिनलैंड नाम का एक छोटा सा देश है, जिसने अपने एजुकेशन सिस्टम में कमाल कर दिया है. अमेरिका जैसे बड़े-बड़े देशों को पीछे छोड़ते हुए फिनलैंड अब दुनिया में सबसे बेहतरीन एजुकेशन देने वाला देश बन गया है. फिनलैंड ने कुछ आसान से बदलाव किए हैं जिनसे वहां की शिक्षा व्यवस्था में जमीन-आसमान का फर्क आ गया है. वहां न तो बच्चे घंटों किताबों में घुसे रहते हैं, न ही उन्हें एग्जाम की टेंशन होती है. यहां टीचरों को भी बहुत अच्छी ट्रेनिंग दी जाती है.
फिनलैंड में हर बच्चे को अच्छी शिक्षा पाने का बराबर मौका मिलता है, चाहे वो अमीर हो या गरीब, होशियार हो या कमजोर. वहां किसी भी बच्चे के साथ भेदभाव नहीं किया जाता. फिनलैंड में बच्चों को परीक्षा का कोई डर नहीं होता. वहां कोई बड़ी-बड़ी परीक्षाएं नहीं होतीं. बस 12वीं के बाद एक 'नेशनल मैट्रिकुलेशन एग्जाम' होता है और वो भी देना जरूरी नहीं है.
फिनलैंड में हर बच्चे को उसके टीचर खुद नंबर देते हैं. कोई और परीक्षा या नंबर देने का सिस्टम नहीं है. टीचर अपने हिसाब से बच्चों की पढ़ाई का आंकलन करते हैं, और उनकी प्रगति पर नजर रखते हैं. वहां के टीचर पढ़ाने में माहिर होते हैं और उन्हें पता होता है कि बच्चों को कैसे पढ़ाना है.
वैसे, आजकल हर कोई बच्चों के मार्क्स बढ़ाने में लगा हुआ है. लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि बच्चे खुश हैं या नहीं, स्कूल में उन्हें कैसा लग रहा है. फिनलैंड ने भी कभी यही गलती की थी, लेकिन फिर उन्होंने अपनी शिक्षा व्यवस्था में बड़ा बदलाव किया. उन्होंने बच्चों को खुश रखने और उन्हें एक अच्छा माहौल देने पर ध्यान दिया.
सिंगापुर ने पढ़ाई को बनाया काम की चीज!
ऐसे ही सिंगापुर में भी पढ़ाई का सिस्टम बड़ा ही निराला है. वहां कॉलेज और कंपनियां मिलकर काम करते हैं जिससे स्टूडेंट्स को भी फायदा होता है और कंपनियों को भी. सिंगापुर में ग्रेजुएशन से लेकर बड़े-बड़े रिसर्च प्रोजेक्ट तक हर जगह कॉलेज और कंपनियां साथ मिलकर काम करते हैं. इससे स्टूडेंट्स को पढ़ाई के साथ-साथ काम करने का भी मौका मिलता है. इससे उन्हें पता चलता है कि असल जिंदगी में कैसे काम करना होता है. इस सिस्टम का सबसे बड़ा फायदा यह है कि स्टूडेंट्स को पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी मिलने में कोई दिक्कत नहीं होती.
सिंगापुर ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद से ही शिक्षा पर ध्यान देना शुरू कर दिया था. उन्होंने समझ लिया था कि अगर देश को आगे बढ़ाना है तो लोगों को पढ़ाना-लिखाना होगा. 1990 के दशक से तो उन्होंने बच्चों में क्रिएटिविटी और नई चीजें सीखने की क्षमता बढ़ाने पर जोर दिया. 2004 में सिंगापुर सरकार ने 'टीच लेस, लर्न मोर' नाम से एक नई पॉलिसी शुरू की. इसमें बच्चों को रट्टा मारने और बार-बार एक ही चीज करने से हटाकर, उन्हें समझने और समस्याओं को हल करने पर जोर दिया गया.
सिंगापुर में 'हर स्कूल को अच्छा स्कूल' बनाने की मुहिम चल रही है. वहां की सरकार चाहती है कि हर बच्चे को बढ़िया शिक्षा मिले, चाहे वो किसी भी स्कूल में पढ़ता हो. इस मुहिम का मकसद है-
2018 में सिंगापुर ने 'लर्न फॉर लाइफ' नाम से एक और मुहिम शुरू की. इसमें बच्चों को स्कूल के अंदर और बाहर अपने हिसाब से सीखने का मौका दिया जाता है. इससे बच्चे जिंदगीभर कुछ न कुछ सीखते रहते हैं.
जर्मनी का डुअल सिस्टम: पढ़ाई और कमाई, दोनों एक साथ!
जर्मनी में भी पढ़ाई का तरीका बड़ा ही जुदा है. वहां पर सिर्फ किताबों में ही नहीं घुसे रहते, बल्कि असल जिंदगी में भी काम सीखते हैं. इसे कहते हैं डुअल एजुकेशन सिस्टम. इस सिस्टम में स्टूडेंट्स हफ्ते में कुछ दिन कॉलेज जाते हैं और बाकी दिन किसी कंपनी में काम करते हैं. मतलब, पढ़ाई के साथ-साथ उन्हें प्रैक्टिकल एक्सपीरियंस भी मिलता है. उन्हें इसके लिए सैलरी भी मिलती है. 1969 में एक कानून बनाया गया था, जिसके तहत यह सिस्टम चलता है.
इस सिस्टम में ट्रेनिंग 2-3 साल तक चलती है. जर्मनी में कोई भी काम ऐसे ही नहीं सीखा जा सकता. वहां पर 330 से ज्यादा ऐसे काम हैं जिनके लिए खास ट्रेनिंग लेनी पड़ती है. कंपनियां और मजदूर यूनियन मिलकर तय करते हैं कि किस काम के लिए कैसी ट्रेनिंग होनी चाहिए. वो यह भी देखते हैं कि जमाने के हिसाब से ट्रेनिंग में क्या बदलाव करने की जरूरत है.
जर्मनी में हर काम के लिए ट्रेनिंग, परीक्षा और सर्टिफिकेट एक जैसे होते हैं, चाहे आप किसी भी शहर या कंपनी में काम सीख रहे हों. इससे यह फायदा होता है कि सबको एक जैसी ट्रेनिंग मिलती है. कंपनियों को भी इन सर्टिफिकेट पर भरोसा होता है, क्योंकि इससे उन्हें पता चलता है कि व्यक्ति को काम आता है या नहीं. जर्मनी का यह सिस्टम नई चुनौतियों का सामना करने के लिए भी तैयार है. जैसे कि आजकल इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स का ज़माना है, तो ट्रेनिंग में भी इसके बारे में सिखाया जाता है.
इजरायल: यूनिवर्सिटी से निकले स्टार्टअप!
इजरायल में यूनिवर्सिटी सिर्फ पढ़ाई की जगह नहीं हैं, बल्कि नए-नए बिजनेस शुरू करने की जगह भी हैं. वहां के कॉलेज रिसर्च करके ऐसी चीजें बनाते हैं, जिनसे पैसे कमाए जा सकें. इजरायल की यूनिवर्सिटी का डिफेंस सेक्टर से गहरा नाता है. वहां पर पढ़ाई ऐसी होती है कि स्टूडेंट्स को अलग-अलग विषयों का ज्ञान तो मिलता ही है, साथ ही उन्हें बिजनेस शुरू करने के गुर भी सिखाए जाते हैं. इसके अलावा, हर यूनिवर्सिटी में एक खास ऑफिस होता है, जो रिसर्च को बिजनेस में बदलने में मदद करता है.
इजरायल में शिक्षा मंत्रालय तय करता है कि बच्चों को क्या पढ़ाया जाएगा. स्कूलों को इसमें ज्यादा छूट नहीं होती. पढ़ाई सितंबर से जुलाई तक चलती है, हफ्ते में 6 दिन. इजरायल में पढ़ाई मुफ्त है, लेकिन कुछ किताबें वगैरह खुद खरीदनी पड़ती हैं. 2 साल का नर्सरी स्कूल और 8 साल की प्राइमरी स्कूल की पढ़ाई जरूरी है.
10वीं के बाद 4 साल की पढ़ाई होती है. लेकिन सिर्फ पहले 2 साल पढ़ना जरूरी है, बाकी 2 साल आपकी मर्जी. 10वीं के बाद आपके पास 3 रास्ते हैं:
वोकेशनल स्कूल में आपको असल जिंदगी में काम आने वाली चीजें सिखाई जाती हैं. इन स्कूलों में अच्छी लैब्स और दूसरी सुविधाएं होती हैं, ताकि आप अच्छे से सीख सकें. इजरायल में कॉलेज जाने के लिए भी एक खास परीक्षा पास करनी पड़ती है, जिसे बगरुत कहते हैं. यह परीक्षा 12वीं के बाद होती है और इसे पास करने के बाद ही आप कॉलेज में एडमिशन ले सकते हैं.
नीदरलैंड: पढ़ाई में उलझो मत, समस्या सुलझाओ!
नीदरलैंड में रट्टा मारने या किताबों में घुसे रहने की जरूरत नहीं होती. वहां तो असल जिदगी की समस्याओं को सुलझाकर सीखा जाता है. इसे कहते हैं प्रॉब्लम-बेस्ड लर्निंग. इस सिस्टम में स्टूडेंट्स को छोटे-छोटे ग्रुप में बांट दिया जाता है और उन्हें कोई असल जिंदगी की समस्या दी जाती है. फिर वो मिलकर उस समस्या का हल ढूंढते हैं. इससे उन्हें पढ़ाई का प्रैक्टिकल ज्ञान मिलता है और साथ ही टीम वर्क करना भी सीखते हैं.
यहां पर 8 साल प्राइमरी स्कूल की पढ़ाई होती है. उसके बाद 4, 5 या 6 साल सेकेंडरी स्कूल में पढ़ते हैं. यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस तरह का स्कूल चुनते हैं. सेकेंडरी एजुकेशन के लिए बच्चे अपनी पसंद और काबिलियत के हिसाब से अलग-अलग तरह के हाई स्कूल में जा सकते हैं:
सेकेंडरी स्कूल के बाद छात्र चाहें तो वोकेशनल एजुकेशन ले सकते हैं या फिर हायर एजुकेशन में जा सकते हैं. यहां सरकारी और प्राइवेट दोनों तरह के स्कूल हैं. ज्यादातर प्राइवेट स्कूल किसी धर्म या विचारधारा से जुड़े होते हैं.
नीदरलैंड में वोकेशनल ट्रेनिंग कॉलेजों की भी भरमार है. अगर कोई व्यक्ति बचपन में किसी वजह से स्कूल नहीं जा पाया था, तो भी कोई बात नहीं. नीदरलैंड में वावो नाम के स्कूल हैं, जहां पर किसी भी उम्र के लोग 10वीं या 12वीं की पढ़ाई पूरी कर सकते हैं.
चीन में रिसर्च और साइंस पर जोर
चीन ने अपनी शिक्षा व्यवस्था में जबरदस्त बदलाव ला दिया है. यहां पर डबल फर्स्ट क्लास नाम की एक स्कीम चल रही है जिससे कॉलेजों में पढ़ाई का स्तर बहुत ऊपर उठ गया है. रिसर्च और साइंस की पढ़ाई पर बहुत जोर दिया जाता है. नए-नए आविष्कार हो रहे हैं और टेक्नोलॉजी में चीन दुनिया में सबसे आगे निकल रहा है. चीन के कॉलेज दुनियाभर के कॉलेजों के साथ मिलकर काम करते हैं. इससे स्टूडेंट्स को दूसरे देशों के बारे में जानने और सीखने का मौका मिलता है. साथ ही, डिजिटल टेक्नोलॉजी का बहुत इस्तेमाल होता है. वहां के कॉलेज स्मार्ट कैंपस बन गए हैं, जहां सब कुछ ऑनलाइन होता है.
चीन दुनिया का सबसे बड़ा सरकारी शिक्षा सिस्टम है. 2021 में चीन में 5 लाख से ज्यादा स्कूल थे, जहां 29 करोड़ बच्चे पढ़ते थे और 1 करोड़ 80 लाख टीचर पढ़ाते थे. चीन में शिक्षा मंत्रालय पूरे देश की पढ़ाई पर नजर रखता है. 2019 में चीन की सरकार ने 'चाइना एजुकेशन मॉडर्नाइज़ेशन 2035' नाम से एक प्लान बनाया, जिसमें बताया गया है कि अगले 10 सालों में चीन की शिक्षा व्यवस्था कैसी होगी.
इस प्लान में यह तय किया गया है कि चीन में हर बच्चे को अच्छी नर्सरी स्कूल की शिक्षा मिलेगी. सब बच्चों को स्कूल जाने का मौक़ा मिलेगा. वोकेशनल ट्रेनिंग को और बेहतर बनाया जाएगा, ताकि बच्चे काम के लिए तैयार हो सकें. कॉलेजों में पढ़ाई के स्तर में लगातार सुधार किया जाता रहेगा.
अगर हम इन देशों से सीखेंगे, तो अपने एजुकेशन सिस्टम को और भी बेहतर बना सकेंगे.