गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ (अंग्रेज़ी: Gajanan Madhav Muktibodh, जन्म: 13 नवंबर, 1917 – मृत्यु: 11 सितंबर, 1964) की प्रसिद्धि प्रगतिशील कवि के रूप में है. मुक्तिबोध हिन्दी साहित्य की स्वातंत्र्योत्तर प्रगतिशील काव्यधारा के शीर्ष चरित्र थे. हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले मुक्तिबोध कहानीकार भी थे और समीक्षक भी. उन्हें प्रगतिशील कविता और नई कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है.
मुक्तिबोध हिन्दी संसार की एक घटना बन गए. कुछ ऐसी घटना जिसकी ओर से आँखें मूंद लेना असम्भव था. उनका एकनिष्ठ संघर्ष, उनकी अटूट सच्चाई, उनका पूरा जीवन, सभी एक साथ हमारी भावनाओं के केंद्रीय मंच पर सामने आए और सभी ने उनके कवि होने को नयी दृष्टि से देखा. कैसा जीवन था वह और ऐसे उसका अंत क्यों हुआ. और वह समुचित ख्याति से अब तक वंचित क्यों रहा? यह तल्ख टिप्पणी शमशेर बहादुर सिंह की है जो उन्होंने बड़े बेबाक ढंग से हिंदी जगत् के साहित्यकारों की निस्संगता पर कही है.
गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ का जन्म 13 नवंबर, 1917 को श्यौपुर (ग्वालियर) में हुआ था. इनकी आरम्भिक शिक्षा उज्जैन में हुई. मुक्तिबोध जी के पिता पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर थे और उनका स्थानांतरण प्रायः होता रहता था. इसीलिए मुक्तिबोध जी की पढ़ाई में बाधा पड़ती रहती थी. इन्दौर के होल्कर से सन् 1938 में बी।ए। करके उज्जैन के माडर्न विद्यालय में अध्यापक हो गए.[2] इनका एक सहपाठी था शान्ताराम, जो गश्त की ड्यूटी पर तैनात हो गया था. गजानन उसी के साथ रात को शहर की घुमक्कड़ी को निकल जाते. बीड़ी का चस्का शायद तभी से लगा.
नके पिता माधव मुक्तिबोध भी बहुत शुस्ता फ़सीह उर्दू बोलते थे. ये कई स्थानों में थानेदार रह कर उज्जैन में इन्स्पैक्टर के पद से रिटायर हुए. मुक्तिबोध की माँ बुन्देलखण्ड की थीं, ईसागढ़ के एक किसान परिवार की. गजानन चार भाई हैं. इनसे छोटे शरतचन्द्र मराठी के प्रतिष्ठित कवि हैं. पारिवारिक असहमति और विरोध के बावजूद 1939 में शांता के साथ प्रेम-विवाह किया.
मुक्तिबोध जी ने छोटी उम्र में बडनगर के मिडिल विद्यालय में अध्यापन कार्य शुरू किया. सन् 1940 में मुक्तिबोध शुजालपुर के शारदा शिक्षा सदन में अध्यापक हो गए. इसके बाद उज्जैन, कलकत्ता, इंदौर, बम्बई, बंगलौर, बनारस तथा जबलपुर आदि गहों पर जॉब की. सन् 1942 के आंदोलन में जब यह शारदा शिक्षा सदन बंद हो गया, तो यह शीराज़ा बिखर गया. मुक्तिबोध उज्जैन चले गये. अलग-अलग नौकरियाँ कीं- मास्टरी से वायुसेना, पत्रकारिता से पार्टी तक. नागपुर 1948 में आये. सूचना तथा प्रकाशन विभाग, आकाशवाणी एवं ‘नया ख़ून’ में काम किया. अंत में कुछ माह तक पाठ्य पुस्तकें भी लिखी. अंतत: 1958 से दिग्विजय महाविद्यालय, राजनाँदगाँव में प्राध्यापक हुए. उन्होंने लिखा है कि:-
गजानन के सहपाठी मित्रों में रोमानी कल्पना के कवि वीरेन्द्र कुमार जैन और प्रभागचन्द्र शर्मा, अनन्तर ‘कर्मवीर’ में सहकारी सम्पादक और उस समय के एक अच्छे, योग्य कवि थे. कविता की ओर रमाशंकर शुक्ल ‘हृदय’ ने गजानन को काफ़ी प्रोत्साहित किया था. ‘कर्मवीर’ में उन की कविताएँ छप रही थीं. माखनलाल और महादेवी की रहस्यात्मक शैली मालवा के तरुण हृदयों को आकृष्ट किये हुए थी, मगर मुक्तिबोध दॉस्तॉयवस्की, फ़्लाबेअर और गोर्की में भी कम खोये हुए नहीं रहते थे.
आगरा से नेमिचन्द्र जैन शुजालपुर पहुँच गए थे. प्रभाकर माचवे भी अक्सर आ जाते. ‘तार-सप्तक’ की मूल परिकल्पना भी यहीं बनी. सन् 1943 में अज्ञेय के सम्पादन में ‘तार-सप्तक’ का प्रकाशन हुआ. जिसकी आरंभ मुक्तिबोध की कविताओं से होती है. उज्जैन से सन् 1945 के लगभग मुक्तिबोध बनारस गये और त्रिलोचन शास्त्री के साथ ‘हंस’ के सम्पादन में शामिल हुए. वहाँ सम्पादन से लेकर डिस्पैचर तक का काम वह करते थे; साठ रुपये वेतन था. उनका काशी प्रवास बहुत सुखद नहीं रहा. भारतभूषण अग्रवाल और नेमिचन्द्र जैन ने उन्हें कलकत्ता बुलाया. पर अध्यापकी या सम्पादकी का कहीं कोई डौल नहीं जमा. हार कर मुक्तिबोध सन् 1946-1947 में जबलपुर चले गये. वहाँ ‘हितकारिणी हाई स्कूल’ में वह अध्यापक हो गये. और फिर नागपुर जा निकले. नागपुर का समय बीहड़ संघर्ष का समय था, किन्तु रचना की दृष्टि से अत्यन्त उर्वर. ‘नया ख़ून’ साप्ताहिक में वे नियमित रूप से लिखते रहे. साम्प्रदायिक दंगे ज़ोरों से प्रारम्भ हो गये थे. उस ज़माने में वह दैनिक ‘जय-हिन्द’ में भी कुछ काम करते थे. रात की ड्यूटी दे कर कर्फ़्यू के सन्नाटे में वह घर लौटते.
शुजालपुर और उज्जैन ने सबसे मूल्यांकन चीज़ जो हिन्दी को दी वह ‘तार-सप्तक’ है. इसकी मूल परिकल्पना प्रभाकर माचवे और नेमिचन्द्र जैन की थी. नाम ‘तार-सप्तक’ प्रभाकर माचवे का सुझाया हुआ था. भारतभूषण अग्रवाल तब नेमि जी के बड़े गहरे मित्र थे. अत: उनका सम्पर्क भी शुजालपुर और मुक्तिबोध से हो गया. आरम्भ में प्रभागचन्द्र शर्मा और वीरेन्द्र कुमार जैन भी इस सप्तक-योजना के स्वर थे. अज्ञेय जी से सम्पर्क बढ़ने पर योजना को कार्य रूप में सम्पन्न करने के लिए उसमें सम्पादन का भार उन पर डाल दिया गया. नेमिचन्द्र और भारतभूषण जब कलकत्ता (अब कोलकाता) में थे, योजना ने आखिरी रूप ले लिया. अज्ञेय भी ने डाक्टर रामविलास शर्मा और गिरिजाकुमार माथुर के नाम सुझाये. सात की सीमा निश्चित होने के कारण नामावली में बदलाव जरूरी था. 1943 में जब यह ऐतिहासिक संग्रह प्रकाशित हुआ, उसने एक लम्बे टकराव को जन्म दिया, जो किसी न किसी संदर्भ या अर्थ में अब भी जारी है. उस संग्रह में मुक्तिबोध का योग उस समय सब से प्रोढ़ चाहे न हो, मगर शायद सबसे मौलिक था. दुरूह होते हुए बौद्धिक, बौद्धिक होते हुए भी रोमानी.
बीसवीं सदी की हिंदी कविता का सबसे बेचैन, सबसे तड़पता हुआ और सबसे निष्ठावान स्वर है गजानन माधव मुक्तिबोध. मुक्तिबोध की कविता जटिल है. भगवान सिंह ने उनकी कविता की जटिलता का बयान इस तरह किया है, ‘वे सरस नहीं हैं, सुखद नहीं हैं. वे हमें झकझोर देती हैं, गुदगुदाती नहीं. वे मात्र अर्थग्रहण की मांग नहीं करतीं, आचरण की भी मांग करती हैं. तारसप्तक में मुक्तिबोध ने स्वयं बोला है, ‘मेरी कविताएँ अपना पथ ढूंढते बेचैन मन की अभिव्यक्ति हैं. उनका सत्य और मूल्य उसी जीव-स्थिति में छिपा है.
“नई कविता में मुक्तिबोध की स्थान वही है, जो छायावाद में निराला की थी. निराला के समान ही मुक्तिबोध ने भी अपनी युग के सामान्य काव्य-मूल्यों को प्रतिफलित करने के साथ ही उनकी सीमा की चुनौती देकर उस सर्जनात्मक विशिष्टता को चरितार्थ किया, जिससे समकालीन काव्य का ठीक मूल्यांकन हो सका.” मुक्तिबोध की रुचि अध्ययन-अध्यापन, पत्रकारिता, समसामयिक सियासी एवं साहित्य के विषयों पर लेखन में थी. 1942 के आसपास वे वामपंथी विचारधारा की ओर झुके और शुजालपुर में रहते हुए उनकी वामपंथी चेतना मजबूत हुई. जीवन भर ग़रीबी से लड़ते हुए और रोगों का मुकाबला करते हुए 11 सितम्बर, 1964 को नयी दिल्ली में मुक्तिबोध की मौत हो गयी.