महंगाई एक ऐसा मुद्दा है जो न केवल आर्थिक स्थिरता को प्रभावित करता है, बल्कि हर व्यक्ति के जीवन को भी सीधे तौर पर असर डालता है.यह हमारे जीवन की लागत, हमारी खरीदारी की शक्ति और देश की समग्र आर्थिक स्थिति को प्रभावित करती है. महंगाई का अर्थ है कि समय के साथ वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें बढ़ती हैं, जिससे उपभोक्ताओं को अपने पैसे से कम सामान मिलता है.जैसे अगर पिछले साल एक किलो चावल की कीमत 50 रुपये थी और इस साल वह 60 रुपये हो गई है, तो इसका मतलब है कि महंगाई हुई है.
महंगाई का प्रभाव व्यापक होता है. यह गरीब वर्ग को सबसे अधिक प्रभावित करती है क्योंकि उनकी आय स्थिर होती है जबकि वस्तुओं की कीमतें लगातार बढ़ती रहती हैं. इसके अलावा, महंगाई बचत पर भी असर डालती है, क्योंकि लोग बढ़ती कीमतों के कारण अपनी बचत करने में असमर्थ होते हैं.
इस लेख में हम भारत में महंगाई के विभिन्न पहलुओं का विस्तार से अध्ययन करेंगे—यह कैसे होती है, इसके कारण क्या हैं, इसके प्रभाव क्या हैं, और इसे नियंत्रित करने के लिए क्या उपाय किए जा रहे हैं.
महंगाई क्या है?
महंगाई का अर्थ है कि समय के साथ सामान और सेवाओं की कीमतें बढ़ती हैं. जब महंगाई बढ़ती है, तो उपभोक्ताओं को अपने पैसे से कम सामान मिलता है. उदाहरण के लिए, अगर पिछले साल एक किलो चावल की कीमत 50 रुपये थी और इस साल वह 60 रुपये हो गई है, तो इसका मतलब है कि महंगाई हुई है.
महंगाई को मापने के लिए दो मुख्य सूचकांक होते हैं:
1. उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI): यह उन वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों को मापता है जो आम लोग खरीदते हैं. इसमें खाद्य पदार्थ, कपड़े, आवास, परिवहन आदि शामिल होते हैं.
2. थोक मूल्य सूचकांक (WPI): यह उन वस्तुओं की कीमतों को मापता है जो थोक में बेची जाती हैं. यह आमतौर पर कच्चे माल और औद्योगिक वस्तुओं पर केंद्रित होता है.
महंगाई के दो प्रमुख प्रकार होते हैं
1. मांग प्रेरित महंगाई (Demand-Pull Inflation): यह तब होती है जब किसी अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की मांग उनकी आपूर्ति से अधिक होती है. जब उपभोक्ता खर्च बढ़ता है या सरकारी खर्च में वृद्धि होती है, तो मांग प्रेरित महंगाई पैदा होती है.
2. लागत-प्रेरित महंगाई (Cost-Push Inflation): यह तब होती है जब उत्पादन की लागत बढ़ जाती है. जैसे-जैसे कच्चे माल की कीमतें बढ़ती हैं—जैसे कि तेल या अनाज—उत्पादन लागत भी बढ़ती है. इससे उत्पादकों को अपनी कीमतें बढ़ाने के लिए मजबूर होना पड़ता है.
भारत में महंगाई का इतिहास
भारत में महंगाई का इतिहास काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा है. आजादी के बाद से लेकर अब तक कई बार महंगाई दर बढ़ी है. स्वतंत्रता के बाद भारत ने कई आर्थिक नीतियाँ अपनाईं. शुरुआत के वर्षों में, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए हरित क्रांति जैसी पहलों ने कृषि उत्पादन को बढ़ाने में मदद की. हालांकि, 1970 और 1980 के दशक में तेल संकट और अन्य वैश्विक घटनाओं ने महंगाई को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई.
1970-1980 का दशक
इस दौरान भारत ने कई संकटों का सामना किया. 1973-74 का तेल संकट एक महत्वपूर्ण घटना थी जिसने दुनिया भर में ऊर्जा की कीमतों को बढ़ाया. इसके परिणामस्वरूप भारत में भी महंगाई दर तेजी से बढ़ी. 1974 में महंगाई दर 28.60% तक पहुंच गई थी, जो एक ऐतिहासिक उच्च स्तर था.
1990 का दशक
1991 में आर्थिक सुधारों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को एक नई दिशा दी. इस दौरान विदेशी निवेश और व्यापार बढ़ा, जिससे मांग-प्रेरित महंगाई का दौर आया. लेकिन साथ ही, इस समय वैश्विक बाजारों से जुड़े होने के कारण भारत को अंतरराष्ट्रीय कीमतों की उतार-चढ़ाव का भी सामना करना पड़ा.
उदारीकरण और उसके प्रभाव
1991 के बाद भारत ने उदारीकरण की नीति अपनाई, जिसके तहत विदेशी निवेश को प्रोत्साहित किया गया. इसने भारतीय बाजारों में प्रतिस्पर्धा बढ़ाने का काम किया. लेकिन इस प्रक्रिया में कुछ समय लगा, और इस दौरान महंगाई दर कई बार अस्थिर रही.
हालिया आंकड़े
हाल ही में जारी आंकड़ों के अनुसार, अक्टूबर 2024 में भारत में महंगाई का आंकड़ा 6.21% पर पहुंच गया है, जो कि पिछले 14 महीनों का उच्चतम स्तर है. यह वृद्धि मुख्य रूप से खाद्य वस्तुओं की कीमतों में उछाल के कारण हुई है. सितंबर 2024 में महंगाई दर 5.49% थी, जो खराब मौसम और सब्जियों की बढ़ती कीमतों के कारण बढ़ी थी. अक्टूबर में भी खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर में वृद्धि देखी गई, जो 9.24% से बढ़कर 10.87% हो गई है.
वहीं पीटीआई से बातचीत में एसएंडपी के वरिष्ठ अर्थशास्त्री (एशिया प्रशांत) विश्रुत राणा ने कहा है कि भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति और मुद्रास्फीति लक्ष्य विश्वसनीय बने हुए हैं. इससे यह उम्मीद की जा रही है कि आरबीआई महंगाई को नियंत्रित करने में सफल होगा.
घर पर पकाई जाने वाली थाली की औसत लागत में बदलाव (अक्टूबर 2024) | शाकाहारी थाली | मांसाहारी थाली |
---|---|---|
वर्ष-दर-वर्ष लागत परिवर्तन (अक्टूबर 2023 - अक्टूबर 2024) | 20% वृद्धि | 5% वृद्धि |
लागत वृद्धि के कारक | सब्जियों की कीमतों में वृद्धि; प्याज (46%) और आलू (51%) महंगे हुए | ब्रोइलर कीमतों में 9% की गिरावट ने सब्जियों की उच्च लागत को आंशिक रूप से संतुलित किया |
सब्जी की लागत का प्रभाव | ~40% थाली लागत | ~22% थाली लागत |
मुख्य कीमतें जिनमें वृद्धि हुई | टमाटर की कीमतें Rs 29/kg से बढ़कर Rs 64/kg हो गईं; प्याज और आलू की कीमतें देरी से हुई कटाई के कारण बढ़ीं | ब्रोइलर कीमतें स्थिर; सब्जियों में वृद्धि |
दाल की लागत का प्रभाव | शाकाहारी थाली में दाल की 9% हिस्सेदारी; स्टॉक कम होने से कीमतें 11% बढ़ीं | लागू नहीं |
ईंधन लागत का प्रभाव | एलपीजी की कीमत में 11% गिरावट से थाली की लागत में और बढ़ोतरी नहीं हुई | शाकाहारी थाली के समान |
माह-दर-माह लागत परिवर्तन (सितंबर 2024 - अक्टूबर 2024) | 6% वृद्धि | 4% वृद्धि |
मासिक वृद्धि के मुख्य कारण | टमाटर की कीमतें 39% बढ़ीं, प्याज 6% महंगा हुआ; वनस्पति तेल 10% बढ़ा | ब्रोइलर की स्थिर कीमतें; सब्जियों में फसल देरी के कारण वृद्धि |
(सभी आंकड़े क्रिसिल से लिए गए हैं)
खाद्य वस्तुओं की कीमतें
खाद्य वस्तुओं की कीमतें विशेष रूप से महत्वपूर्ण होती हैं क्योंकि ये हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित करती हैं. जैसे सब्जियों की कीमतों में तेजी आई है सब्जियों की महंगाई दर अगस्त में 10.71% थी. दालों और अनाजों की कीमतें भी बढ़ी हैं, जिससे आम लोगों पर अतिरिक्त बोझ पड़ा है.
महंगाई के कारण
महंगाई के कई कारण होते हैं, जिनमें घरेलू नीतियाँ, वैश्विक बाजारों की स्थिति और प्राकृतिक कारक शामिल हैं.
मांग-प्रेरित कारक
1. उपभोक्ता खर्च: जब लोगों की आय बढ़ती है, तो वे अधिक खर्च करने लगते हैं, जिससे मांग बढ़ती है.
2. सरकारी खर्च: ऐसे राजकोषीय नीतियाँ जो सरकारी व्यय को बढ़ाती हैं, मांग को उत्तेजित कर सकती हैं.
3. कम ब्याज दरें: जब RBI ब्याज दरें कम करता है, तो लोग अधिक उधारी लेते हैं और खर्च करते हैं.
लागत-प्रेरित कारक
1. कच्चे माल की कीमतें: जैसे-जैसे कच्चे माल की कीमतें बढ़ती हैं—जैसे कि तेल या अनाज—उत्पादन लागत भी बढ़ती है.
2. श्रम लागत: यदि श्रमिकों को अधिक वेतन दिया जाता है, तो कंपनियाँ अपनी लागत को पूरा करने के लिए कीमतें बढ़ाती हैं.
3.आपूर्ति श्रृंखला में रुकावट: प्राकृतिक आपदाएँ या अन्य बाहरी कारक जो आपूर्ति श्रृंखलाओं को बाधित करते हैं, भी लागत-धक्का महंगाई का कारण बन सकते हैं।
हालिया घटनाएं और प्रभाव
हाल के वर्षों में कई घटनाएँ हुई हैं जिन्होंने भारत में महंगाई को प्रभावित किया है. COVID-19 महामारी ने महामारी ने वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं को बाधित किया और उत्पादन क्षमता को कम कर दिया. इससे बाजार में सामान की कमी हुई और कीमतें बढ़ गईं. रूस-यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक ऊर्जा बाजारों पर दबाव डाला, जिससे तेल और गैस की कीमतें तेजी से बढ़ीं. चूंकि भारत अपने ईंधन का एक बड़ा हिस्सा आयात करता है, इसलिए इससे घरेलू महंगाई पर सीधा असर पड़ा. इसके साथ ही अनियमित मौसम और प्राकृतिक आपदाएँ कृषि उत्पादन को प्रभावित करती हैं, जिससे खाद्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं।
RBI की मौद्रिक नीति के जरिए महंगाई को कैसे नियंत्रित करता है?
भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) महंगाई नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. महंगाई को नियंत्रित करने के लिए ये कई कदम उठाता है.
1. ब्याज दरें: RBI ब्याज दरों को समायोजित करके उधारी लागत और उपभोक्ता खर्च को प्रभावित करता है. उच्च ब्याज दरें आमतौर पर खर्च कम करती हैं जबकि निम्न ब्याज दरें खर्च को प्रोत्साहित करती हैं.
2. महंगाई लक्ष्यीकरण: RBI ने 2016 से CPI आधारित एक महंगाई लक्ष्यीकरण ढांचा अपनाया है जिसका उद्देश्य 4% की दर पर महंगाई बनाए रखना है, जिसमें +/- 2% तक की लिमिट होती है.
हालांकि, आरबीआई के इन कदमों पर आलोचकों का कहना है कि यह दृष्टिकोण केवल मांग पक्ष पर ध्यान केंद्रित करता है और आपूर्ति पक्ष की समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया जाता है.
महंगाई नियंत्रण में कई चुनौतियां
कई बार आपूर्ति पक्ष से जुड़ी समस्याएँ जैसे कृषि उत्पादन में कमी या वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला बाधाएँ महंगाई को बढ़ा देती हैं. इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय बाजारों की स्थिति भारतीय अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव डालती है. जैसे-जैसे भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ता जा रहा है, बाहरी कारक अधिक महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं. वहीं भारतीय अर्थव्यवस्था संरचनात्मक समस्याओं का सामना कर रही है जो कुशल उत्पादन और वितरण प्रणालियों को रोकती हैं. ये समस्याएँ स्थायी महंगाई पैदा करती हैं.
भविष्य की दिशा
भारत में महंगाई प्रबंधन हेतु एक बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक होगा. कृषि क्षेत्र में सुधार लाने वाले उपायों को लागू करके खाद्य मूल्य अस्थिरता को कम कर सकता है. नए ऊर्जा स्रोतों पर ध्यान केंद्रित करके आयातित ईंधनों पर निर्भरता कम करना आवश्यक होगा. लॉजिस्टिक्स और बुनियादी ढाँचे में सुधार करना आवश्यक होगा ताकि वितरण नेटवर्क आसानी से काम कर सकें. कृषि और उद्योग क्षेत्रों में नवीनतम तकनीकों का उपयोग करके उत्पादकता बढ़ाना भी महत्वपूर्ण होगा. सरकार की ओर से नीतियों का निर्माण करना आवश्यक होगा ताकि बाजार स्थिर रह सके और उपभोक्ताओं पर बोझ कम हो सके.