विज्ञान जहां समाप्त होता है, क्या वहीं से होती है अध्यात्म की शुरुआत, क्या है हकीकत
एबीपी लाइव November 15, 2024 08:12 PM

वास्तव में, यह समस्या पूरब और पश्चिम जगत के दृष्टिकोण के अंतर के कारण उपजी है. विज्ञान को अंग्रेजी भाषा में साइंस कहा जाता है. इस साइंस को समझने के लिए पाश्चत्य जगत के दृष्टिकोण को समझना आवश्यक है और इसके साथ ही सनातन धर्म, परंपराओं अथवा जीवन पद्धति पर आधारित भारतीय दृष्टिकोण को भी समझना आवश्यक है.

जहाँ तक पाश्चत्य जगत के दृष्टिकोण की बात है तो वह आधारित है ‘यूज़ एंड थ्रो’ के विचार पर, भौतिक उन्नति पर, प्रकृति के शोषण पर. अर्थात् जो कुछ भी करना है वह भोग के लिए करना है. ऐसा भी कहा जा सकता है कि बाइबिल और चर्च या कुरआन और मस्जिद से आगे उनकी रेखा नहीं जाती है. लेकिन, हिन्दू धर्म शास्त्र बड़ी संख्या में हैं. शास्त्रों की बड़ी संख्या और अनेक (33 कोटि) देवी-देवता ‘नेति-नेति’ के सनातन और भारतीय दृष्टिकोण के सूचक हैं.

विज्ञान और अध्यात्म पर होने वाले विमर्श में लोग इन दोनों में अंतर करते हैं, इन्हें एक दूसरे का पूरक भी बताते हैं. लोग यहाँ तक भी कहते हैं कि जहाँ विज्ञान समाप्त होता है वहीं से अध्यात्म प्रारंभ होता है. अपने अपने हिसाब से तर्क दिए जाते हैं. हम यहाँ ऐसी किसी बहस में नहीं पड़ने वाले. इस आलेख में विज्ञान और अध्यात्म का भारतीय दृष्टि से विश्लेषण करने का गिलहरी प्रयास किया गया है.

 बड़े विशिष्ट शब्दों में कहना हो तो विज्ञान वह व्यवस्थित ज्ञान अथवा विद्या है, जो विचार अवलोकन, अध्ययन और प्रयोग से प्राप्त होती है। विज्ञान शब्द का प्रयोग ज्ञान की ऐसी शाखा के लिए किया जाता है जो तथ्य और सिद्धांत से स्थापित और व्यवस्थित होती है. कह सकते हैं कि किसी भी विषय का क्रमबद्ध ज्ञान ही विज्ञान है.

अंग्रेजी भाषा में ‘साइंस’ की परिभाषा कुछ ऐसी है ,‘the study of and knowledge about the physical world and natural laws’ अर्थात् भौतिक जगत और प्रकृति के नियमों का अध्ययन और ज्ञान’. इस परिभाषा में ‘प्रकृति के नियमों का अध्ययन और ज्ञान’ वाक्य विज्ञान के लिए प्रकृति के होने की अपरिहार्यता बताता है. जहाँ तक भौतिक जगत की बात है तो यह प्रकृति का बाह्य रूप है. त्रिगुणों (सत, रज, तम) से प्रभावित इसी प्रकृति के बारे में श्रीमद भगवत गीता में विस्तार से बताया गया है.

विज्ञान का अर्थ है विशेष ज्ञान. लेकिन, प्रश्न उठता है कि किसका विशेष ज्ञान ? जब उत्तर ढूढेंगे तो पता चलेगा कि यह प्रकृति का ही विशेष ‘ज्ञान’ है. जिस ज्ञान को हम अंतिम सत्य मान लेते हैं, वह सिर्फ और सिर्फ प्रकृति की प्रवृत्ति है. उसका स्वभाव है, उसके गुण हैं और शक्ति है। इस शक्ति, प्रवृत्ति, प्रकृति को ही हम जानकर अपने हिसाब से परिभाषित करते रहते हैं. लेकिन, हम कभी यह नहीं सोचते कि प्रकृति से विज्ञान है, विज्ञान से प्रकृति नहीं.  

लोभ के कारण यह विशेष ज्ञान अर्थात् विज्ञान विनाश का कारण बनने लगता है. लोभ के कारण हम नजरअंदाज कर जाते हैं कि प्रकृति का कुछ और भी स्वभाव है. वह संतुलन बनाए रखती है. असंतुलन उसे स्वीकार नहीं है. वह अपने विरुद्ध जाने वालों को स्वीकार नहीं करती. यहाँ तो उसी का अस्तित्व बचता है, जो प्रकृति के नियमों को समझते हुए, इसे मानते हुए उसके अनुरूप चलता है और उसके अनुसार स्वयं को ढालता ह क्योंकि प्रकृति आपकी इच्छानुसार ढलने को तैयार नहीं है.

वैसे ‘साइंस’ शब्द बहुत पुराना नहीं. पूर्व में अधिकांश शोध करने वाले दर्शनशास्त्र से संबंधित थे और प्रकृति को दर्शन से अधिक समझा जा सकता है, विज्ञान से नहीं. जब तक प्रकृति दर्शन के द्वारा देखी जाती थी तब तक सब कुछ विकासशील था और जैसे ही हमने प्रकृति को आधुनिक विज्ञान के नजरिए से देखना शुरू किया, यह विनाशकारी हो चली है.

हिन्दू धर्म शास्त्रों में मनुष्य जीवन का लक्ष्य ‘मोक्ष’ या ‘मुक्ति’ या ‘परमात्मा का साक्षात्कार’ बताया गया है. इसके लिए ‘पात्रता’ पर विशेष बल दिया गया है. मुक्ति के लिए मनुष्य में ‘दैवीय गुणों’ का होना आवश्यक बताया गया है. और जब तक ‘मुक्ति’ नहीं होती तब तक 84 लाख योनियों में ‘जन्म’, ‘मृत्यु’ और  ‘पुनर्जन्म’ का चक्र चलता रहा है.

महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन के साथ होना इसी बात का प्रमाण है कि दैवीय गुणों से भगवान का साक्षात्कार हो सकता है. श्रीमद भगवत गीता के अध्याय 16 के पांचवे श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से यही प्रमाणित करते हुए कहते हैं कि हे पांडूपुत्र! तुम चिंता मत करो, क्योंकि तुम दैवी गुणों से युक्त हो.

अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति कभी भी प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन नहीं करता. वस्तुतः वह अपने नैसर्गिक अथवा प्राकृतिक स्वाभाव में रहता है. वह कभी भी विनाश का खेल नहीं खेलता और यदि कुछ करता भी है तो वह प्रकृति को स्वीकार होता है. और नव सृजन होता है.

एक बात ध्यान रखने की है कि केवल ‘आत्मा’ और ‘परमात्मा’ शाश्वत अथवा सनातन हैं, जबकि प्रकृति में कुछ भी शाश्वत नहीं है, केवल नष्ट होना ही ‘शाश्वत’ है. नष्ट होने के इस मार्ग में कोई पूर्ण विराम नहीं है. बल्कि यहाँ रूप अथवा स्वरुप बदलता है. उपयोगिता भी बदलती रहती है. सब कुछ परिवर्तनशील है, इसलिए विद्वान कहते भी हैं कि ‘परिवर्तन प्रकृति का नियम है.’

प्रकृति और विज्ञान में मूल अंतर क्या है? विचार करेंगे तो पाएंगे कि जो प्राकृतिक है वो कचरा नहीं है या प्रकृति में कुछ भी कचरा अथवा व्यर्थ नहीं है. हर प्राकृतिक चीज एक चक्र (भोजन चक्र, जल चक्र, ऋतू चक्र आदि) में है और उपयोगी है. प्रकृति में किसी के लिए अनुपयोगी चीज दूसरे के लिए उपयोगी बन जाती है. दूसरी तरफ विज्ञान द्वारा बनाया हुआ सब कुछ एक दिन कचरा हो जाता है, व्यर्थ हो जाता है.

प्रश्न उठेगा कि यह कचरा क्या है? उत्तर मिलेगा, एक समय तक जो हमारे लिए उपयोगी था, वह अनुपयोगी होने पर हमारे लिए कचरा अथवा व्यर्थ बन जाता है. अर्थात् विज्ञान सिर्फ और सिर्फ कचरा पैदा कर रहा है। वह कचरा, जो कभी खत्म नहीं होता या नष्ट नहीं होता.

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि विज्ञान ने विकास तो किया है, सुविधाएँ भी दी है. लेकिन, यह भी उतना ही सच है कि ‘समस्याएँ’ भी तो खड़ी की है. हर तरह का प्रदुषण, ग्लोबल वार्मिंग, प्लास्टिक की समस्या और तरह-तरह की घातक बीमारियाँ, किसकी देन हैं? बड़े-बड़े शहरों में मिलने वाले ‘कचरा पहाड़’ किसी देन हैं? क्या इस बात को नकारा जा सकता है कि समाधान के लिए जो उपाय सुझाए जाते हैं, वे एक नई समस्या पैदा करते हैं?

विज्ञान के पक्ष में सुख-सुविधा और चिकित्सा के कुछ उपायों को लेकर दिए जाने वाले तर्क अंतिम नहीं हो सकते, क्योंकि ‘विज्ञान की संस्कृति ही हमें बीमार भी कर रही है’. विज्ञान से जितनी सुख सुविधा बढ़ रही है, मानव में मानवीय गुण उतने ही समाप्त होते जा रहे हैं. मनुष्य के कष्ट उतने ही बढ़ते जा रहे हैं. बढ़ते हुए अस्पतालों और दवाईयों की संख्या यही संदेश दे रही है.

जबकि प्रकृति की हर चीज एक समय के बाद मिटटी में मिल जाती है या मिटटी बन जाती है। फिर इसी मिट्टी से नव सृजन होता है. जबकि विज्ञान का कचरा मिट्टी नहीं बनता. सब मिट्टी में मिल जाना ही प्रकृति का सर्वोत्तम गुण है. इसी गुण के कारण सृष्टि चक्र चल रहा है. वहीं हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार ‘आत्मा का परमात्मा’ से मिलन या ‘आत्मा द्वारा परमात्मा की सेवा’ ही ‘अध्यात्म’ है. अध्यात्मिक मनुष्य हर प्रकार के भेद से परे हो सकता है.

कुल मिलाकर सार रूप में कहा जाये तो तर्क और प्रमाण पर आधारित विज्ञान अथवा भौतिक विद्या या शक्ति से  व्यवस्थित तरीके से अनुसन्धान करके मनुष्य बाह्य जगत को समझ सकता है, यह समझ अथवा अवधारणा समय के साथ बदल भी सकती है और इसी शक्ति से वह जीवन निर्वाह भी कर सकता है. इससे कचरा भी उत्पन्न होगा, विनाश भी होगा, बीमारियाँ भी होंगी, कोरोना भी आएगा, कैंसर भी होगा, इलाज भी होगा और उस इलाज से कोई और समस्या भी होगी. और विज्ञान का ये क्रम महाविनाश अर्थात् प्रलय तक चलता रहेगा.

जबकि, अध्यात्म से मनुष्य की आंतरिक शक्तियों का विकास होगा और श्रीमद भगवत गीता में वर्णित दैवीय गुण सृजित होंगे. जिनके कारण मनुष्य प्रकृति के साथ समन्वय करके रह सकता है. मनुष्य सबको ‘एकात्म’ भाव से देखेगा. कोई भेद नहीं करेगा. अपने उत्थान के साथ-साथ सबके उत्थान के लिए काम करेगा. अध्यात्म ही ‘धर्म की जय हो’, ‘अधर्म का विनाश हो’, ‘प्राणियों में सद्भवाना हो’ और ‘विश्व का कल्याण हो’, सनातन हिन्दू धर्म के इस कल्याणकारी उद्घोष का आधार है.

प्रकृति के साथ समन्वय ही ‘शतायु भव’ के आशीर्वचन को सार्थक करेगा. इसके लिए ‘अध्यात्म’ एक मूल साधन है, वहीं विज्ञान को पूर्ण रूप से प्राकृतिक होने की आवश्यकता है.

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