हाल (दिसंबर 2025) में संसद में चर्चा के दौरान गृहमंत्री अमित शाह ने अपने भाषण में एक ओर बाबासाहेब अम्बेडकर का अपमान किया तो दूसरी ओर उन्होंने यह साबित करने का प्रयास भी किया कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अम्बेडकर के साथ बुरा बर्ताव किया। शाह को उनकी टिप्पणियों का माकूल जवाब मिला। कई विरोध प्रदर्शन हुए और उनके इस्तीफे की मांग की गई। उनसे इस कथन के लिए माफ़ी मांगने के लिए भी कहा गया कि “अम्बेडकर का नाम लेना एक फैशन बन गया है।” इस तीखी प्रतिक्रिया से निश्चित ही उनकी छवि को धक्का लगा है और उनके राजनैतिक वजन में कमी आई है।
अपने भाषण में अपनी पीठ खुद थपथपाते हुए शाह ने बताया कि उनकी पार्टी ने कैसे बाबासाहेब के साथ न्याय किया। उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी की सरकारों ने जगह-जगह अम्बेडकर की मूर्तियाँ लगवाईं। क्या एक सीमा के बाद वाकई बाबासाहेब इसे पसंद करते? शाह ने अपनी पार्टी को यह श्रेय भी दिया कि उसने बाबासाहेब के जन्मदिन को ‘सामाजिक समरसता दिवस’ के रूप में मनाना शुरू किया। ‘सामाजिक समरसता’ की भाजपाई सोच, बाबासाहेब के सपनों के एकदम खिलाफ है। बाबासाहेब जातियों की बीच समरसता की नहीं बल्कि जाति के विनाश के हामी थे। सामाजिक समरसता अभियान के जरिये संघ-भाजपा जो एजेंडा प्रस्तुत कर रहे हैं, वह अम्बेडकर के जातिविहीन समाज की स्थापना के सपने को धूल में मिलाने वाला है। यह एजेंडा जाति प्रथा को बनाये रखते हुए, विभिन्न जातियों के बीच सद्भाव की स्थापना की बात करता है। वैसे भी, बीजेपी दीनदयाल उपाध्याय के ‘एकात्म मानवतावाद’ में यकीन रखती है जिसके अनुसार हिन्दू समाज का उद्भव परमब्रह्म से हुआ - ब्राह्मण उसके मुख से निकले, क्षत्रिय उसकी बाहुओं से, वैश्य उसकी जंघा से और शूद्र उसके पैरों से। संघ-बीजेपी के अनुसार, यह सामाजिक विभाजन, समाज को मजबूती देता है।
अगर संघ-बीजेपी सचमुच अम्बेडकर का सम्मान करते होते तो उनकी सरकार आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान नहीं करती क्योंकि इससे दलित / आदिवासी / एसटी कोटा में कमी आई है। वे दलितों के खिलाफ अत्याचार की घटनाओं में कमी लाते, महिलाओं के खिलाफ हिंसा में कमी लाते।
जहां तक संघ / बीजेपी के इस दावे का प्रश्न है कि कांग्रेस ने अम्बेडकर को नज़रअंदाज़ किया और उनके साथ न्याय नहीं किया, उसकी गहराई से पड़ताल की जानी होगी। मगर एक बात तो पक्की है - सामाजिक न्याय के लिए अम्बेडकर की लड़ाई में हिन्दू राष्ट्रवादी ताकतों ने अम्बेडकर का न तो साथ दिया और न उनकी मदद की।
भारत के राष्ट्रीय नेतृत्व ने अछूत प्रथा और जाति व्यवस्था के मुद्दों को गंभीरता से लिया - विशेषकर 1930 के दशक के बाद से। सन 1932 के बाद से महात्मा गाँधी ने अछूत और जाति प्रथा के उन्मूलन को इतनी गंभीरता से लिया कि अगले कुछ वर्षों तक उनका ध्यान केवल इन मुद्दों पर केन्द्रित रहा। उन्होंने तय किया कि वे ऐसे किसी विवाह में नहीं जाएंगे जो अंतरजातीय न हो। उन्होंने एक दलित परिवार को अपने साबरमती आश्रम में सम्मानपूर्वक रखा। इससे नाराज़ होकर दानदाताओं ने आश्रम को चंदा देना बंद कर दिया और आश्रम में ताले लगने की नौबत आ गई। मगर गांधीजी फिर भी नहीं झुके।
यह सही है कि कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में अम्बेडकर के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा किया था मगर यह भी सही है कि इस चुनावी लड़ाई में हिन्दू महासभा भी उनके खिलाफ थी। बाद में बाबासाहेब को राज्यसभा में नामांकित किया गया। महात्मा गाँधी ने यह सुनिश्चित किया कि अम्बेडकर को अंतरिम सरकार में मंत्री बनाया जाए। गांधीजी की सलाह पर ही अम्बेडकर को संविधानसभा की मसविदा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया।
अमित शाह यह प्रचार भी कर रहे हैं कि अम्बेडकर, कांग्रेस सरकार की विदेश नीति और संविधान के अनुच्छेद 370 के खिलाफ थे और इसलिए उन्होंने केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया था। वे जिस कैबिनेट के सदस्य थे, वह प्रजातान्त्रिक तौर-तरीकों से काम करती थी। कश्मीर के मामले में अम्बेडकर की राय थी कि कश्मीर घाटी, जम्मू और लद्दाख में अलग-अलग जनमत संग्रह करवाया जाए ताकि जम्मू-कश्मीर की आतंरिक नस्लीय विविधता के साथ न्याय हो सके। यह कहना पूरी तरह गलत है कि उन्होंने इस मुद्दे पर मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया था।
उनके इस्तीफे का असली कारण यह था कि हिन्दू कोड बिल को संसद ने उसके मूल स्वरुप में स्वीकृति नहीं दी। हिन्दू कोड बिल का मसविदा तैयार करने का अनुरोध नेहरु ने अम्बेडकर से किया था। इस मसविदे को तैयार करते समय, आंबेडकर ने सबसे ज्यादा जोर महिलाओं की समानता सुनिश्चित करने पर दिया। इस बिल की पृष्ठभूमि में यह तथ्य था कि विभिन्न धार्मिक समुदायों के अपने-अपने पर्सनल लॉ थे। पर्सनल लॉ शादी, तलाक, उत्तराधिकार और बच्चों की अभिरक्षा के मामलों में लागू होता है। इस बिल का मसविदा सार्वजनिक होते ही तूफ़ान मच गया। आरएसएस और उसके संगी-साथियों ने यह प्रचार करना शुरू कर दिया कि इस बिल का उद्देश्य सनातन धर्म का खात्मा करना है। विशाल विरोध प्रदर्शन आयोजित किये गए और आरएसएस के अनुयायियों ने 12 दिसंबर 1949 को अम्बेडकर और नेहरु के पुतले जलाये।
ढेर सारी आम सभाएं आयोजित की गईं और अम्बेडकर और हिन्दू कोड बिल के खिलाफ वातावरण बनाने का भरपूर प्रयास किया गया। कांग्रेस के भीतर भी इस बिल के कई विरोधी थे। बिल पारित नहीं हो सका और इससे अम्बेडकर को इतना धक्का पहुंचा कि उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने का निर्णय कर लिया। ऐसे में, यह कहना कि उन्होंने इस्तीफा इसलिए दिया क्योंकि कांग्रेस उन्हें नजरअंदाज और अपमानित कर रहे थी, सफ़ेद झूठ है।
वैसे भी, अम्बेडकर और संघ परिवार की विचारधाराएँ एक-दूसरे की धुर विरोधी हैं। पिछले कुछ दशकों से आरएसएस-बीजेपी दलितों और आदिवासियों को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं और इसके लिए उन्होंने कुछ सतही कदम उठाए हैं। मगर इस कवायद का उद्देश्य केवल और केवल चुनाव जीतना है। दलितों का एक बहुत बड़ा वर्ग संविधान का सम्मान करता है क्योंकि उसे मालूम है कि संविधान ने ही दलितों को जातिगत गुलामी से मुक्ति दिलाई है। और यही कारण है कि 2024 के आम चुनाव में कुछ हद तक दलित मतदाताओं ने कांग्रेस का समर्थन किया था।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बीजेपी के पितृ संगठन आरएसएस ने भारत के संविधान - जो भारत को अम्बेडकर की सबसे बड़ी और सबसे महत्वपूर्ण भेंट हैं - का जम कर विरोध किया था। आरएसएस के मुखपत्र आर्गेनाइजर ने 30 नवम्बर 1949 के अपने अंक में लिखा था “भारत के नए संविधान के बारे में सबसे बुरी बात यह है कि उसमें कुछ भी भारतीय नहीं है... भारत के प्राचीन संवैधानिक कानूनों, नामकरण और भाषा का इसमें नामोनिशान तक नहीं है।” हिंदुत्व की राजनीति के पितामह सावरकर ने भी कहा था कि भारत के संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है।
अमित शाह की पार्टी बाबासाहेब के बनाये संविधान और हिन्दू कोड बिल दोनों की विरोधी थी। मगर इसके बावजूद उनका दावा है कि बीजेपी ने उन्हें उचित सम्मान दिया। दरअसल, बीजेपी ने जो कुछ भी किया है, वह केवल प्रतीकात्मक है। उसने बाबासाहेब के सपनों को पूरा करने के लिए कोई ठोस काम नहीं किया। अपनी पुस्तक “थॉट्स ऑन पाकिस्तान” के संशोधित संस्करण में अम्बेडकर ने लिखा था कि पाकिस्तान का निर्माण हम सबके लिए एक बड़ी त्रासदी होगी क्योंकि उससे हिन्दू राज की राह खुलेगी, जिसमें दलित गुलाम होंगे। हिन्दू राष्ट्र की स्थापना, अमित शाह और उनके साथियों का केन्द्रीय एजेंडा है, जो बाबासाहेब के स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और सामाजिक न्याय के आदर्शों के ठीक विपरीत है।
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया।)