महाड़ तालाब आंदोलन क्या था जिसमें मनुस्मृति जलाई गई थी?
Himachali Khabar Hindi December 31, 2024 07:42 AM

महाड़ सत्याग्रह का नेतृत्व बीआर आंबेडकर ने किया था

काशी हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) फिर चर्चा में है. कला संकाय चौराहे पर भगत सिंह छात्र मोर्चा के कार्यकर्ताओं ने मनुस्मृति की प्रतीकात्मक प्रति जलाने की कोशिश की. जैसे ही इसकी सूचना मिली, प्राक्टोरियल बोर्ड मौके पर पहुंचा. लेकिन इससे पहले ही छात्रों की भीड़ ने धरना शुरू कर दिया. भगत सिंह छात्र मोर्चा का कहना है कि वे 25 दिसंबर को मनुस्मृति दहन दिवस पर चर्चा कर रहे थे, जब प्राक्टोरियल बोर्ड की टीम वहां पहुंच गई.

मनुस्मृति दहन दिवस 97 सालों से मनाया जा रहा है. इसकी शुरुआत समाज सुधारक और संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर ने की थी. 1927 में महाड़ सत्याग्रह के दौरान उन्होंने पहली बार मनुस्मृति की प्रतियां जलाकर जातिवाद और सामाजिक भेदभाव का विरोध किया था. आइए इस आंदोलन के बारे में जानते हैं.

क्यों हुआ था महाड़ सत्याग्रह?

महाड़ सत्याग्रह, जिसे चावदार तालाब सत्याग्रह भी कहा जाता है, 20 मार्च 1927 को महाराष्ट्र के रायगढ़ ज़िले (तत्कालीन कोलाबा) के महाड़ में आयोजित हुआ. इस आंदोलन का नेतृत्व डॉ. भीमराव आंबेडकर ने किया था. यह आंदोलन दलित समुदाय को सार्वजनिक चावदार तालाब से पानी पीने और इस्तेमाल करने का अधिकार दिलाने के उद्देश्य से किया गया था.

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इसे डॉ. आंबेडकर के राजनीतिक करियर की शुरुआत के रूप में भी देखा जाता है. हजारों दलितों ने आंबेडकर की अगुवाई में चावदार तालाब से पानी पिया.आंदोलन की शुरुआत आंबेडकर ने खुद पानी पीकर की, जिसके बाद उनके अनुयायियों ने उनका अनुसरण किया.

आंबेडकर ने क्या कहा था?

यह आंदोलन, जाति व्यवस्था और उसकी प्रथाओं के खिलाफ आगे होने वाले आंदोलनों के लिए एक खाका बना. इस दिन को भारत में सामाजिक अधिकारिता दिवस के रूप में मनाया जाता है. महाड़ सत्याग्रह पानी पीने के अधिकार के साथ-साथ इंसान होने का अधिकार जताने के लिए भी किया गया था.

डॉ. आंबेडकर ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा था कि क्या यहां हम इसलिए आए हैं कि हमें पीने के लिए पानी मयस्सर नहीं होता है? क्या यहां हम इसलिए आए हैं कि यहां के जायकेदार कहलाने वाले पानी के हम प्यासे हैं? नहीं! दरअसल, इंसान होने का हमारा हक जताने के लिए हम यहां आए हैं.

मनुस्मृति जलाने के लिए खास वेदी तैयार की गई

डॉ. भीमराव आंबेडकर मनुस्मृति की मुखालफत करते थे. 25 दिसंबर 1927 को महाराष्ट्र के कोलाबा जिले के महाड़ में उन्होंने सार्वजनिक तौर पर मनुस्मृति को जलाया था. ऐसा कर आंबेडकर ने जातिवाद और सामाजिक भेदभाव का विरोध किया था. दरअसल आंबेडकर मानते थे कि मनुस्मृति समाज में जाति प्रथा को बढ़ावा देने और भेदभाव को फैलाता है. यह ग्रंथ महिलाओं और दलितों के शोषण और भेदभाव को सही ठहराता है.

जलाने से पहले ब्राह्मण समाज के प्रतिनिधि गंगाधर नीलकंठ सहस्त्रबुद्धे ने मनुस्मृति के श्लोकों और उनकी समस्या के बारे में बताया. इसके लिए महाड़ में एक खास वेदी तैयार की गई, जिसमें 6 इंच गहरा और 1.5 फुट चौकोर गड्ढा खोदा गया था. वेदी में चंदन की लकड़ियां रखी गईं. 25 दिसंबर 1927 को सहस्त्रबुद्धे और 6 दलित साधुओं के साथ आंबेडकर ने मनुस्मृति का एक-एक पन्ना फाड़कर आग में डालना शुरू किया. इस घटना की याद में मनुस्मृति दहन दिवस मनाया जाता है.

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