अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा यूक्रेनी नेता की यह कहकर बेइज्जती किए जाने के बाद कि ‘आप तीसरे विश्व युद्ध का जुआ खेल रहे हैं’, कोई आखिर कोई क्या ही लिखे?
पिछले साल नवंबर में यानी सिर्फ तीन महीने पहले ही, यह खबर आई थी कि उस समय की बाइडेन सरकार ने यूक्रेन को रूस पर अंदर तक हमला करने के लिए अमेरिकी मिसाइलों का इस्तेमाल करने की छूट दे दी थी ताकि युद्ध और भीषण हो जाए। इसके बाद रॉयटर्स की एक हेडलाइन थी कि, ‘बाइडेन दुनिया को तीसरे विश्व युद्ध में धकेलने का जोखिम उठा रहे हैं- रूसी सांसद’
उससे एक महीने पहले यानी अक्टूबर 2024 में अमेरिका की सबसे बड़ी बैंक के प्रमुख के हवाले से एक हेडलाइ थी, जिसमें कहा गया था, ‘जे पी मॉर्गन के सीईओ जेमी डिमोन ने कहा है कि पश्चिमी देश खतरे में हैं और तीसरा विश्व युद्ध हो सकता है।’ वह न सिर्फ यूक्रेन युद्ध की बात कर रहे थे बल्कि गाज़ा में किए जा रहे नरसंहार और चीन की बढ़ती ताकत का भी जिक्र कर रहे थे।
इसलिए जब व्हाइट हाउस के ओवल ऑफिस में शुक्रवार को जो सर्कस खेला गया तो यह पहला मौका नहीं था जब मानवता पर संभावित खतरे का जिक्र किया गया। आखिर इससे कोई क्या मतलब निकाले? आइए कोशिश करते हैं जानने की कि आखिर जो कुछ हो रहा है उसका क्या अर्थ है-
आइए इससे शुरु करें कि आखिर डोनाल्ड ट्रंप चाहते क्या हैं? सतही तौर पर तो बताना मुश्किल होगा क्योंकि वह जरूरत से ज्यादा बोलते हैं और बहुत सी चीजो के बारे में कुछ भी कह देते हैं। उनके आलोचक मानते हैं कि ऐसा इसलिए है क्योंकि वह मूर्ख और मसखरे हैं, लेकिन जो शख्स दो बार अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव जीत चुका हो, उसके बारे में ऐसा कहना भी सही नहीं लगता। चलिए यह मान लेते हैं कि उन्हें पता है वह क्या कर रहे हैं या कह रहे हैं।
ट्रंप की कथनी-करनी के आधार पर सबसे सटीक बात जो कही जा सकती है, वह यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति का असली निशाना चीन है। वह इसके उदय को रोकना चाहते हैं ताकि उसकी ताकत अमेरिका के बराबर न हो जाए। वह चाहते हैं कि डॉलर ही एकमात्र वैश्विक मुद्रा बना रहे और वह चाहते हैं कि चीन ने विनिर्माण और निर्यात पर जो बढ़त हासिल की है, वह अमेरिका को वापस मिले।
इस नजरिए से देखें तो ट्रंप के सारे क्रिया-कलापों को चीन के चश्मे से ही देखना चाहिए।
अगर चीन की बीते दशकों की प्रगति ऐसी ही रही तोआने वाले दो-एक दशक में चीन आर्थिक तौर पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था से आगे निकल जाएगा। ट्रंप ऐसा होने नहीं देना चाहते। अपने पहले कार्यकाल में ट्रंप ने चीन पर जो टैरिफ और प्रतिबंध लगाए थे और जिन्हें बिडेन ने जारी रखा था, उसका मकसद यही था कि चीन तकनीकी तौर पर ज्यादा आगे न निकल जाए क्योंकि जिन वस्तुओं पर टैरिफ लगे थे उनमें उच्च श्रेणी के कंप्यूटर चिप्स पर प्रतिबंध भी शामिल था। इस कार्यकाल में भी ट्रंप ने इसी योजना को जारी रखते हुए चीन में बने सामान पर 10 फीसदी का अतिरिक्त टैरिफ लगा दिया है। साथ ही कहा है कि यह 60 फीसदी तक हो सकता है।
इससे चीन और अमेरिका में अनिश्चितता और असहजता चरम पर होगी क्योंकि कई उद्योग आपस में जुड़े हुए हैं। कई लोगों ने सीधे तौर पर ट्रंप को बताया है कि इससे अमेरिकी उपभोक्ताओं पर उतना ही असर पड़ेगा जितना कि चीनी कंपनियों पर, लेकिन उन्होंने बार-बार इसे अनदेखा कर दिया है। उन्होंने डॉलर के अलावा किसी और मुद्रा को इस्तेमाल किए जाने को लेकर ब्रिक्स को भी धमकी दे रखी है, और यह भी चीन की लगाम खींचे रखने का ही तरीका है।
इस तर्क के साथ इसी नजरिए से देखें तो यूक्रेन और मध्य पूर्व में अमेरिकी दखल ध्यान भटकाने वाला कदम है और यह रुकना चाहिए ताकि चीन के साथ सही तरीके से निपटा जा सके। दरअसल चीन ही अमेरिका का असली मुकाबला कर सकता है यानी प्रतिस्पर्धी है न कि रूस या कोई और देश। ऐसे में अपने असली मिशन से दिग्भ्रमित होने का कोई तुक नहीं है।
गाजा पर दो वर्षों तक लगातार और जानलेवा इजरायली बमबारी के बाद जनवरी में ट्रम्प ने इजरायल पर शांति समझौता थोप दिया, और अब ऐसा लगता है कि अमेरिकी साथ टूटने के बाद यूक्रेन को भी रूस के सामने झुकना पड़ेगा।
अगर यह नजरिया सही है, और ऐसा हो जाता है तो इसके बाद, यानी रूस के यूक्रेन पर हावी होने के बाद, अमेरिका का ध्यान चीन पर और भी अधिक केंद्रित हो जाएगा। लेकिन फिर सवाल है कि अगर ऐसा ही है, तो ट्रंप अमेरिका के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदारों और सहयोगियों तथा मेक्सिको और कनाडा पर भी क्यों निशाना साध रहे हैं?
इस नजरिए से हम मान भी लें कि ट्रंप ऐसा ही चाहते हैं तो भी इससे यही बात सामने आती है कि ट्रंप चीन को नियंतर्ण रखते हुए अमेरिका को चीन से आगे ही चाहते हैं। अमेरिकी टैरिफ ने दुनिया भर के बाजारों में अराजकता और अनिश्चितता का एक माहौल बना दिया है, इससे हमेशा डॉलर में मजबूती आती है, जो हमें दिखाई दे रहा है।
लेकिन इसका एकमात्र जवाब यह है कि मजबूत डॉलर के चलते अमेरिका के लिए अपने उत्पादों का निर्यात करना और भी मुश्किल हो जाएगा और जिस व्यापार घाटे को ट्रंप कम करना चाहते हैं, वह बना रहेगा। शायद ट्रंप ने इस बारे में भी सोचा हो, और हो सकता है ऐसा न भी हो। आने वाला वक्त ही बताएगा क्योंकि चार साल एक लंबा समय है।
और फिर सबसे बड़ा सवाल यह है कि चीन की इस स्थिति पर क्या प्रतिक्रिया होगी। चीन आज जिस स्थिति में है, वह इसलिए नहीं पहुंचा है क्योंकि वह बाहरी उदारता का फायदा उठाता रहा है। उसके पास एक बड़ी और प्रतिभाशाली आबादी है जिसने अपनी अर्थव्यवस्था और उद्योग को इतिहास में किसी भी देश की तुलना में केवल 40 वर्षों की अवधि में तेजी से आगे बढ़ाया है। उसे अपनी स्थिति की हिफाजत करनी होगी और वह पहले अमेरिका की बराबरी करने और फिर उससे आगे निकलने के लिए जो कुछ भी संभव होगा, वह करेगा। आखिर चीन की महत्वाकांक्षाएं अमेरिका तो तय नहीं कर सकता।
चीन के किसी नेता को व्हाइट हाउस में इस तरह तलब नहीं किया जा सकता और न ही इस तरह डांटा जा सकता और न ही उन्हें घुटने टेकने के लिए मजबूर किया जा सकता है, जैसा कि अमेरिका राष्ट्रपति अन्य सहयोगियों को मजबूर कर रहे हैं। और जैसा कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के मोर्चे पर हाल में जो कुछ हुआ है और 2024 में दुनिया के बाकी हिस्सों में चीनी निर्यात की वृद्धि से पता चलता है (चीन के पास एक ट्रिलियन डॉलर का ट्रेड सरप्लस है), कि टैरिफ लगाने से चीन की रफ्तार को धीमा तो किया जा सकता है लेकिन उसे रोक नहीं जा सकता।
इसलिए अगर यह मान लिया जाए कि ट्रंप का प्राथमिक लक्ष्य अमेरिका का वैश्विक प्रभुत्व बनाए रखना है, तो यूक्रेन युद्ध की समाप्ति के बाद ही उनके ओवल ऑफिस को समझ आएगा कि किस काम पर ध्यान केंद्रित करना है। इसके बाद क्या होगा, विश्व युद्ध या कुछ और, कोई नहीं जानता।