विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ मिलने के बाद हिन्दी के सार्वजनिक संसार में जो उत्साह का माहौल है, वह बताता है कि हमारे समय के इस बड़े कवि को उनका समाज कितना प्यार करता है। इस सम्मान की घोषणा के बाद उन्होंने एक वीडियो संदेश में अफसोस जताया- “मुझे लिखना बहुत था, बहुत कम लिख पाया, मैंने देखा बहुत, सुना भी मैंने बहुत, महसूस भी किया बहुत, लेकिन लिखने में थोड़ा ही लिखा। कितना कुछ लिखना बाकी है, जब सोचता हूं तो लगता है बहुत बाकी है। इस बचे हुए को मैं लिख लेता हूं। अपने बचे होने तक मैं अपने बचे लेखक को शायद लिख नहीं पाऊंगा। तो मैं क्या कहूं, मैं बड़ी दुविधा में रहता हूं। मैं अपनी जिंदगी का पीछा अपने लेखन से करना चाहता हूं। मेरी जिंदगी कम होने के रास्ते पर तेजी से बढ़ रही है और मैं लेखन को उतनी तेजी से बढ़ा नहीं पाता, तो कुछ अफसोस भी होता है।”
यह बताता है कि उनके लिए रचनाशीलता का क्या मोल है। वह प्रशस्तियों और पुरस्कारों में निहित नहीं है, देखे-सुने और महसूस किए हुए को लिखने में निहित है, जिए हुए को शब्दों में पुनर्जीवित करने में निहित है, यह समझने में निहित है कि जिंदगी कम हो रही है और लेखन में उसका पीछा करना मुश्किल हो रहा है।
दरअसल, उनके लेखन को लेकर दो-तीन बातें आसानी से लक्षित की जा सकती हैं। वह अक्सर गद्य और पद्य के बीच की बहुत पतली सी पगडंडी पर चलते रहे हैं, जहां यह नहीं है, वहां अपने उद्यम से बनाते रहे हैं- उन शब्दों की तलाश करते हुए या उन्हें नए अर्थ देते हुए जिनमें मनुष्यता की धीमी और सूक्ष्म आवाजें पूरी मार्मिकता से अभिव्यक्त हों।
साल 1971 में अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित ‘पहचान’ शृंखला के तहत प्रकाशित उनके पहले संग्रह ‘लगभग जयहिंद’ की भाषा में बेशक उस दौर की काव्यगत प्रवृत्तियों की कुछ छाया मिलती है और लगभग मुखर राजनीतिक वक्तव्य भी, लेकिन धीरे-धीरे विनोद कुमार शुक्ल जैसे एक निजी संवेदन और विचार की यात्रा पर निकल पड़ते हैं। उनका दूसरा कविता संग्रह ‘वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहन कर विचार की तरह’ संयोग से उनके इस प्रस्थान बिंदु का एक संकेत भी दिखाता है।
बाद के वर्षों में शब्दों के अर्थों को अधिकतम खुरचते हुए, संबंधों के भीतर के अनजाने खालीपन को भरते हुए, जो भी अतिरिक्त है, उसको काटते-छांटते, तराशते हुए बिल्कुल वहां तक पहुंचते हैं जहां बस तरल संवेदना है और मनुष्य होने का मर्म है। ‘सबकुछ होना बचा रहेगा’ और ‘अतिरिक्त नहीं’ जैसे संग्रहों में इसे पहचाना जा सकता है।
उनकी कुछ कविताएं तो उद्धरणों की तरह इस्तेमाल की जाने लगी हैं। मसलन 'अतिरिक्त नहीं' संग्रह की पहली कविता-
'हताशा में एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया
मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकड़ कर वह उठ खड़ा हुआ
वह मुझे नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था
हम दोनों साथ चले
दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे
साथ चलने को जानते थे।'
कुछ वाचाल होने का जोखिम उठाते हुए कहने की इच्छा होती है कि यह कविता एक तरफ शिंबोर्स्काई सादगी से जुड़ती है, तो दूसरी तरफ ब्रेख्तीय साझेपन के आह्वान से।
विनोद कुमार शुक्ल की कविता का असली वैभव उनके बाद के संग्रहों ‘अतिरिक्त नहीं’, या ‘कविता से लंबी कविता’ में खुलता है। वह जैसे अपनी कविता में काल और कालातीत दोनों को साध रहे हैं, अदृश्य में छुपे दृश्य को पकड़ रहे हैं। अदृश्य के इस संधान को विनोद कुमार शुक्ल अन्यत्र बहुत ठोस ढंग से कह भी डालते हैं,
‘कि नहीं होने को
टकटकी बांध कर देखता हूं
आकाश में
चंद्रमा देखने के लिए
चंद्रमा के नहीं होने को
(कि नहीं होने को)
दरअसल, उनकी इन कविताओं को बार-बार पढ़ने, उनके अर्थ समझने और इन पर लिखने का मोह काफी बड़ा है। लेकिन यह चर्चा तब तक अधूरी रहेगी, जब तक हम उनके गद्य पर नजर न दौड़ाएं। संभवतः अज्ञेय के बाद विनोद कुमार शुक्ल अकेले हैं जो संपूर्ण कवि भी हैं और संपूर्ण उपन्यासकार भी। हिन्दी में उपन्यास लेखन की यथार्थवादी प्रविधि को 1980 के आसपास आए जिन दो उपन्यासों ने लगभग तोड़फोड़ कर हिन्दी के पाठकों को नया आस्वाद सुलभ कराया, उनमें एक मनोहर श्याम जोशी का ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ था और दूसरा विनोद कुमार शुक्ल का ‘नौकर की कमीज।‘ मणि कौल ने इस पर फिल्म भी बना डाली। उनके बाद के उपन्यासों ‘खिलेगा तो देखेंगे’ और ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ की भी खूब चर्चा रही है। खास कर ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ हिन्दी के कई पाठकों का प्रिय उपन्यास है। यथार्थ की दीवार के पार जाकर खुलता काव्यात्मक वितान अप्रतिम है।
उनके उपन्यासों की सबसे बड़ी चीज वह मध्यवर्गीय साधारणता है जो इनका पर्यावरण बनाती है। वह इस साधारणता को आभामंडित नहीं करते, बस जस का तस रख देते हैं- उसकी निरीहता को भी और नृशंसता से उसकी कातर मुठभेड़ों को भी। ‘नौकर की कमीज’ के संतू बाबू घर-परिवार, समाज और दफ्तर की अनगिन व्यस्तताओं में- अपेक्षाओं, उपेक्षाओं, संघर्ष और उपहास तक में- हाड़मांस का ऐसा जीवित किरदार बन जाते हैं जो जितना हमारे चारों तरफ है, उतना ही हमारे भीतर भी- और उनकी मार्तफ हम उस कुचले जाते और फिर भी बचे रह जाते जीवन को पहचानते हैं जिसे पहचानना भी भूल चुके हैं।
पहली बार इसी उपन्यास में लोगों ने कुछ अचरज से एक अलग तरह की भाषा को सांस लेते देखा जो घर को घर बना देती थी और बाहर को बाहर, जो बहुत कम संवादों में निम्नमध्यवर्गीय घरों के दुख-सुख बयान कर जाती थी, जो जितनी वास्तविक है उतनी ही प्रतीकात्मक भी और जितनी गद्यात्मक है उतनी ही काव्यात्मक भी।
‘नौकर की कमीज’ के करीब दो दशक बाद आए उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ में लगता है, संतू बाबू ही गणित के व्याख्याता रघुवर प्रसाद बन गए हैं। यह उपन्यास भी मामूलीपन में सांस लेते जीवन के बेहद जीवंत वृत्तांतों से सजा है। इसमें एक बात और है- प्रेम का वह स्वप्न देखने की कोशिश- जो जीवन को अनायास सारे अभावों और संघर्षों के बावजूद बेहद सुंदर बना डालता है। बेशक, कुछ आलोचकों को उपन्यास के बाद के हिस्से में एक रीतिबद्धता नजर आती है, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि यह हमारे समय का बड़ा उपन्यास है।
विनोद कुमार शुक्ल 88 साल के हैं। उनकी लेखकीय सक्रियता हाल-हाल तक बनी रही है। बच्चों के लिए किताबें छापने वाली संस्था ‘इकतारा’ के आग्रह पर उन्होंने बच्चों का एक उपन्यास भी लिखा है और कई छोटी-छोटी कविताएं भी। वह बहुत निस्पृह होकर लेखन करते रहे हैं। हाल के रॉयल्टी विवाद को छोड़ दें, तो किसी विवाद की छाया उन पर नहीं पड़ी।
कुछ लोगों की यह शिकायत है (जो प्रथमदृष्टया वैध भी लगती है) कि पिछले कई वर्षों में इस देश में जो लेखन-विरोधी माहौल है, अभिव्यक्ति के सामने जिस तरह के खतरे हैं, उनके राज्य छत्तीसगढ़ से लेकर दिल्ली तक जिस तरह का अपसांस्कृतिक माहौल बनाया जा रहा है, उसको लेकर वह चुप रहे हैं और राज्य के सांस्कृतिक आयोजनों में शामिल होते रहे हैं। लेकिन यह चुप्पी उनके लिए रणनीति नहीं, उनका लेखकीय स्वभाव है।
वैसे भी हर लेखक के प्रतिरोध का अपना ढंग होता है, उसकी चुप्पी अपनी तरह से टूटती है। विनोद कुमार शुक्ल की कई कविताओं में यह चुप्पी टूटती नजर आती है- बेशक, बहुत मुखर राजनीतिक ढंग से नहीं, मगर बहुत मार्मिक ढंग से वह अपनी कविताओं में छत्तीसगढ़ के आदिवासी समाज की पीड़ा भी रखते रहे हैं और राज्य के उत्पीड़न की ओर भी इशारा करते हैं।
यह सच है कि भारत में- और खास कर हिन्दी में- पुरस्कारों का जो हाल है- और खुद ज्ञानपीठ ने अपना जो हाल किया है- उसे देखते हुए किसी सम्मान पर जश्न मनाते हुए संकोच ही नहीं होता, अंदेशा होता है कि यह कहीं लेखक के कृतित्व के साथ अशालीन व्यवहार तो नहीं। लेकिन अपने अच्छे-बुरे निर्णयों के बीच पुरस्कार तभी सार्थक हो उठते हैं जब किसी सुपात्र को मिलते हैं। बेशक, उनको ज्ञानपीठ कुछ बरस पहले मिला होता तो अच्छा होता- लेखन में जीवन का पीछा करने की उनकी कोशिश कुछ आसान हो जाती।
विनोद कुमार शुक्ल की दो कविताएंजो मेरे घर कभी नहीं आएंगे
जो मेरे घर कभी नहीं आएंगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊंगा।
एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊंगा
कुछ तैरूंगा और डूब जाऊंगा
पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब
असंख्य पेड़ खेत
कभी नहीं आएंगे मेरे घर
खेत खलिहानों जैसे लोगों से मिलने
गांव-गांव, जंगल-गलियां जाऊंगा।
जो लगातार काम से लगे हैं
मैं फुरसत से नहीं
उनसे एक जरूरी काम की तरह
मिलता रहूंगा।
इसे मैं अकेली आखिरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूंगा।
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया
मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ
मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था
हम दोनों साथ चले
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे
साथ चलने को जानते थे।