खुद को डील-मेकिंग सूट में देखने के शौकीन डॉनल्ड ट्रंप क्या वाकई मध्य पूर्व में शांति ला सकते हैं? सऊदी अरब, कतर और संयुक्त अरब अमीरात के उनके चार दिवसीय दौरे के बाद यह सवाल अब पूरे क्षेत्र की फिजाओं में तैर रहा है। उनके विदेश मंत्री मार्को रुबियो इस मौके को बड़े आशावादी अंदाज में पेश करते हैं: “हमारे राष्ट्रपति निर्माता हैं, बमवर्षक नहीं।” यह अकेला वाक्य ट्रंप की वह छवि दर्शाने को पर्याप्त है, जिसे वह अपने दूसरे कार्यकाल में गढ़ने के लिए बेचैन हैं और कड़ी मेहनत कर रहे हैं- अब वह सिर्फ ‘अमेरिका फर्स्ट’ वाले राष्ट्रपति नहीं, बल्कि पश्चिम एशिया के लिए एक दिखावटी सही, व्यापक नजरिये के साथ लेन-देन करने वाले वैश्विक इंसान हैं।
रियाद में दिए अपने एक भाषण में ट्रंप ने इस घोषणा के साथ कि, “नेताओं की एक नई पीढ़ी प्राचीन संघर्षों और अतीत के थके हुए विभाजनों से आगे बढ़ रही है,” एक ऐसे मध्य पूर्व की कल्पना करते दिखे जो “अराजकता नहीं, बल्कि वाणिज्य” से परिभाषित हो। कुछ लोगों का मानना है कि ‘आश्वस्ति और वादों से भरी’ ऐसी भाषा ट्रंप का अंदाज है, हालांकि इसमें आमतौर पर विस्तार की कमी दिखती है। लेकिन इस बार, यह ढिंढोरा पीटने के पीछे कुछ ठोस कदम हैं।
ट्रंप ने सीरिया पर अमेरिकी प्रतिबंध समाप्त कर दिए, 12 अप्रैल को मस्कट में ईरान के साथ परमाणु वार्ता शुरू कर दी, हूतियों के साथ युद्ध विराम की मध्यस्थता की, और जानबूझकर अपने इस यात्रा कार्यक्रम से इजरायल को बाहर रखा- जिसे कुछ लोग एक नाटकीय कूटनीतिक पुनर्व्यवस्था के तौर पर देख रहे हैं। अमेरिका में सूत्रों ने ईरान की परमाणु सुविधाओं पर इजराइल के संभावित हमलों के बारे में एक खुफिया रिपोर्ट भी लीक की है। ऐसी रिपोर्टें भी सामने आ रही हैं कि इजराइल और गाजा के बीच युद्ध विराम के लिए अमेरिका इजरायली सरकार को दरकिनार कर हमास के साथ सीधे बातचीत कर रहा है।
इस यात्रा को कुछ लोगों ने ‘ट्रिलियन-डॉलर टूर’ भी कहा, जिसमें कई सौदे हुए, मसलन: अमेरिकी बुनियादी ढांचे, ऊर्जा और प्रौद्योगिकी में खाड़ी देशों के 2 ट्रिलियन डॉलर से अधिक के निवेश; अरबों डॉलर के हथियार समझौते; और एक स्पष्ट संदेश कि खाड़ी देशों के साथ अब वाशिंगटन न सिर्फ सहयोगी बल्कि साझेदार के रूप में व्यवहार कर रहा है। नजारा खासा आकर्षक था- अरबी घोड़े, टेस्ला साइबरट्रक, लड़ाकू जेट फ्लाईओवर और स्टेडियम सरीखे स्तर वाले निवेश शिखर सम्मेलन। लेकिन इस सारे दिखावटीपन के पीछे एक स्पष्ट संकेत भी था: अमेरिका मध्य पूर्व में अपनी प्राथमिकताएं फिर से व्यवस्थित कर रहा है।
ट्रंप का “आप हममें निवेश करें, हम आपको पहुंच और प्रतिष्ठा देंगे, भाषण नहीं” सरीखा लेन-देन वाला नजरिया अमेरिकी प्रशासन की नैतिकता से ऊब चुके खाड़ी शासकों को लुभाता है।
ट्रंप का तर्क आसान है: आधुनिक मध्य पूर्व का निर्माण “राष्ट्र-निर्माताओं”, “नव साम्राज्यवादियों” या “उदारवादी गैर-लाभकारी संगठनों” द्वारा नहीं, बल्कि इसके अपने लोगों द्वारा किया गया था। वह क्षेत्रीय एजेंसी के सबूत के तौर पर अबू धाबी और रियाद के “अद्भुत चमत्कारों” की तारीफ करते हैं। और बदले में, वह उन्हें मानवाधिकारों की चेतावनी रहित वैश्विक उच्च मंच पर स्थान देता है।
ट्रंप के दौरे का शायद सबसे अहम कदम सीरिया के नए नेतृत्व को गले लगाना था। अंतरिम राष्ट्रपति अहमद अल-शरा, जिन्हें कभी आतंकवादी घोषित किया गया था, से मुलाकात करके ट्रंप ने एक ऐसा जुआ खेला जो सिर्फ वही आजमा सकते थे। सीरिया पर प्रतिबंध हटाने का फैसला कथित तौर पर सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान और तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोआन के सीधे अनुरोध पर किया गया था। हालांकि कुछ लोग इसे आवेग में उठाया गया और खतरनाक कदम मानते हैं, लेकिन ऐसे लोग कम नहीं हैं जिनकी नजर में यही व्यावहारिक और वास्तविक राजनीति है। कुल मिलाकर यह ‘व्यक्तिगत तालमेल पर जोर देने और कूटनीतिक आम राय से दूरी’ बनाने वाला ट्रंप का अपना अंदाज था।
ईरान के मामले में ट्रंप गाजर और छड़ी- दोनों का इस्तेमाल करते हैं। एक सांस में, उन्होंने तेहरान को “ज्यादा ही बेहतर रास्ता” देने की बात कही और मौजूदा परमाणु वार्ता की तारीफ कर डाली। लेकिन अगले ही पल, उन्होंने कोई समझौता न होने पर “व्यापक स्तर पर भारी दबाव” डालने की चेतावनी भी दे दी। हालांकि ईरानी अधिकारियों ने उम्मीद के मुताबिक संदेह के साथ प्रतिक्रिया जताई, जबकि खाड़ी देश समर्थन करते दिखे और इजरायल के नेतृत्व वाले सैन्य टकराव की तुलना में कूटनीति को तरजीह दी। यह एक ऐसा बदलाव है जो इजरायल के मौजूदा नेतृत्व, खासतौर से बेंजामिन नेतन्याहू से ट्रंप की बढ़ती दूरी को उजागर करता है।
यह बदलाव वास्तविक है। इजरायल उनकी यात्रा से एक सप्ताह पूर्व की ‘जेरूसलम पोस्ट’ की उस संभावना वाली रिपोर्ट से खासा चिंतित था कि ट्रंप फिलिस्तीनी राज्य को मान्यता दे सकते हैं। उनका पहला कार्यकाल अमेरिकी इतिहास में सर्वाधिक इजरायल समर्थक कार्यकालों में से एक था: दूतावास को जेरूसलम ले जाना, गोलान हाइट्स पर इजरायल की संप्रभुता को मान्यता देना और फिलिस्तीनी संस्थानों को दी जाने वाली सहायता में कटौती करना इसी दौरान हुआ। लेकिन उनके हालिया मध्य पूर्व दौरे में साफ तौर पर इजरायल में उनका कोई पड़ाव शामिल नहीं था। उन्होंने नेतन्याहू से मुलाकात नहीं की। उन्होंने सऊदी-इजरायल सामान्यीकरण पर जोर नहीं दिया। बल्कि इसके बजाय, उन्होंने एक अमेरिकी-इजरायली बंदी की रिहाई सुनिश्चित करने के लिए हमास के साथ सीधी बातचीत की और इजरायल पर हमले बंद करने की मांग किए बिना हूथियों के साथ युद्धविराम की मध्यस्थता कर डाली। एक ऐसे राष्ट्रपति, जो कभी पूरी तरह से इजरायल के दक्षिणपंथी लोगों के साथ जुड़ा हुआ था, के लिए यह बदलाव खासा उल्लेखनीय है।
इसका क्या मतलब निकाला जाए? ट्रंप खुद को एक शांतिदूत के तौर पर रूप देखे जाना चाहते हैं, एक ऐसा इंसान जो युद्ध शुरू करने के बजाय उन्हें समाप्त करने में रुचि रखता है! वह बार-बार याद दिलाते हैं कि उन्होंने ईरान पर बमबारी करने से रोक लगा दी, अफगानिस्तान में अमेरिकी भागीदारी खत्म कराई, भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम की मध्यस्थता की और यह भी कि उनकी नजर में सैन्य दुस्साहस नहीं, ‘कूटनीति’ अमेरिकी हितों के लिए सर्वाधिक अनुकूल है। रियाद में, उन्होंने घोषणा की, “मेरी प्राथमिकता हमेशा शांति और साझेदारी के लिए होगी, जब भी ऐसे नतीजे हासिल किए जा सकें! हमेशा।”
फिर भी, गाजा युद्ध जारी है। इजरायल ने अपना अभियान तेज कर रखा है, और कोई युद्धविराम नहीं हुआ है। गाजा में संभावित रूप से अमेरिकी नियंत्रण में “आजादी क्षेत्र” वाले ट्रंप के अस्पष्ट प्रस्ताव को न सिर्फ संदेह दे देखा गया, बल्कि जातीय सफाई के प्रयास के आरोप भी लगे। इजरायल के प्रति अमेरिकी समर्थन पर अरब की सड़कें गुस्से से उबल रही हैं, और गाजा में मानवीय संकट दिन-ब-दिन बदतर होता जा रहा है। अपने सारे दिखावे के बावजूद, ट्रम्प ने अब तक इजरायल को रोकने के लिए बलपूर्वक दबाव डालने जैसी किसी इच्छा का इजहार नहीं किया है।
तो क्या ट्रम्प वाकई शांति के वाहक हो सकते हैं? उनकी दूसरी पारी की विदेश नीति निर्विवाद रूप से अलग है: यह कम वैचारिकी वाली, ज्यादा लचीली और कहीं ज्यादा खुले तौर पर ताकतवर लोगों के साथ व्यक्तिगत केमिस्ट्री पर आधारित है। पिछले प्रशासनों के उदार-वैश्विक दिखावे वाला चोला उन्होंने उतार फेंका है। उन्होंने अमेरिका की भूमिका को वैश्विक पुलिसकर्मी के तौर पर नहीं, बल्कि मुख्य सौदागर के रूप में नए सिरे से परिभाषित किया है। मध्य पूर्व में कुछ लोग इसमें नयापन देखते हैं; लेकिन दूसरों के लिए, यहां कुछ भी स्पष्ट नहीं है।
ट्रंप की रणनीति की असली परीक्षा फोटो-अवसर या निवेश के वादों में नहीं बल्कि इस बात में होगी कि क्या वह इजरायल और फिलिस्तीन जैसे जटिल सवालों पर कोई वास्तविक और टिकाऊ समझौते कर पाते हैं! इसके लिए जमीनी स्तर पर वांछित काम नहीं हुआ है। ट्रंप ने रूढ़ियां जरूर तोड़ी हैं, लेकिन अभी तक कोई व्यवहार्य नया रास्ता नहीं बना सके हैं। सीरिया और ईरान में उनके कदमों से अल्पकालिक लाभ भले मिल जाए, लेकिन स्थायी शांति के लिए लालच और दबाव से कहीं ज्यादा की दरकार होती है; इसके लिए दूरदर्शिता, समावेशिता और विश्वास की जरूरत होती है।
क्या ट्रंप वैसे ही ‘निर्माता’ हैं, जैसा उनके विदेश मंत्री दावा करते हैं? वह निश्चित रूप से पारंपरिक ‘बमवर्षक’ नहीं हैं। वह देशों पर हमले नहीं कर रहे हैं, शासन व्यवस्था को उखाड़ नहीं फेंक रहे या नए युद्ध भी शुरू नहीं कर रहे हैं। उनकी विदेश नीति वैचारिक नहीं, बल्कि लेन-देन वाली है। यह अपने आप में ‘सत्ता परिवर्तन’ तथा ‘सदमे और भय’ के युग में एक बदलाव है।
लेकिन मध्य पूर्व में शांति स्थापित करने के लिए, ट्रंप को सौदेबाजी वाला रवैया छोड़कर रूपरेखा बनाने की ओर बढ़ना होगा। उन्हें दिखावे से आगे बढ़कर ऐसी कूटनीति में निवेश करना होगा जो रियाद में तालियों की गड़गड़ाहट से कहीं ज्यादा देर तक के लिए टिकाऊ साबित हो। ट्रंप क्षेत्र के कूटनीतिक नक्शे को नया आकार तो दे रहे हैं, लेकिन क्या यह इलाके में स्थायी शांति का वाहक बनेगा या फिर यह सब रेगिस्तान में एक और मृगतृष्णा ही साबित होगी, यह देखना अभी बाकी है।
(अशोक स्वैन स्वीडन के उप्सला विश्वविद्यालय में शांति और संघर्ष अनुसंधान के प्रोफेसर हैं।)