ईद-उल-अजहा, जिसे बकरीद भी कहा जाता है, इस्लाम धर्म का एक प्रमुख त्योहार है। यह हजरत इब्राहीम की बलिदान की भावना को याद करने का अवसर है। इस दिन मुसलमान अपने घरों में जानवरों की कुर्बानी देते हैं, जिससे वे अल्लाह के प्रति अपनी भक्ति और समर्पण व्यक्त करते हैं। हालांकि, इस पवित्र अवसर पर शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच जानवर की कुर्बानी को लेकर कुछ धार्मिक मतभेद भी देखने को मिलते हैं, विशेषकर 'बधिया' (नसबंदी) जानवरों की कुर्बानी के संदर्भ में।
जौनपुर के प्रसिद्ध मौलाना वसीम के अनुसार, कुर्बानी का मुख्य उद्देश्य अल्लाह के प्रति पूर्ण समर्पण और बलिदान की भावना को दर्शाना है। यह केवल एक रस्म नहीं है, बल्कि अल्लाह की आज्ञा का पालन करने का एक तरीका है। इस्लाम में कुर्बानी का अर्थ है अपने आप को और अपने मन को पूरी तरह से अल्लाह के हवाले कर देना, जैसा कि हजरत इब्राहीम ने अपने बेटे को कुर्बान करने के लिए किया था।
शिया समुदाय के अनुसार, बधिया जानवर की कुर्बानी अल्लाह के लिए पूरी तरह से स्वीकार्य नहीं होती, जबकि एक स्वस्थ और प्राकृतिक जानवर की कुर्बानी को अधिक महत्व दिया जाता है। शिया धर्मशास्त्र में यह माना जाता है कि कुर्बानी के जानवर में शारीरिक और आत्मिक पूर्णता होनी चाहिए, और नसबंदी इस पूर्णता को प्रभावित करती है।
इसके विपरीत, सुन्नी समुदाय बधिया जानवर की कुर्बानी को पूरी तरह से जायज मानता है। सुन्नी धर्मशास्त्र के अनुसार, बधिया जानवर की कुर्बानी को अल्लाह की आज्ञा के रूप में स्वीकार किया जाता है, बशर्ते जानवर स्वस्थ हो और इस्लामी नियमों के अनुसार हो। उनके लिए कुर्बानी का भाव और समर्पण सबसे महत्वपूर्ण है।
यह मतभेद धार्मिक व्याख्याओं और ऐतिहासिक संदर्भों पर आधारित है। शिया मुस्लिम इस्लामी इमामों की शिक्षाओं का पालन करते हैं, जबकि सुन्नी मुस्लिम हदीसों और फिक्ह के आधार पर बधिया जानवर को भी कुर्बानी के लिए मान्यता देते हैं। यह भेद धार्मिक नियमों के साथ-साथ सांस्कृतिक और सामाजिक प्रथाओं से भी प्रभावित होता है।
ईद-उल-अजहा का पर्व बलिदान, समर्पण और मानवता का प्रतीक है। चाहे शिया समुदाय बिना बधिया जानवर को प्राथमिकता दे या सुन्नी समुदाय बधिया जानवर की कुर्बानी को स्वीकार करे, दोनों का उद्देश्य अल्लाह की इच्छा के प्रति पूर्ण भक्ति प्रकट करना है। इस त्योहार पर दोनों समुदायों की यही सीख है कि कुर्बानी के माध्यम से इंसान अपने भीतर के अहंकार को मिटाकर ईश्वर के करीब जाता है।