इराक-कोरिया से अफगानिस्तान तक, शांति का पाठ पढ़ाने वाला अमेरिका कितनी जंग हारा?
TV9 Bharatvarsh June 26, 2025 12:42 PM

इजराइल ने ईरान पर हमला किया तो खुद अमेरिका भी बीच में घुस गया. अब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बेहद ही नाटकीय ढंग से युद्ध विराम की घोषणा करा चुके हैं. असल में देखें तो 12 दिनों तक मिडिल ईस्ट में चले इस युद्ध का कोई हासिल नहीं रहा. यह केवल एक युद्ध की बात नहीं है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने जितनी भी लड़ाइयां शुरू की हैं, उनमें से ज्यादातर का नतीजा कुछ नहीं रहा. उल्टे अमेरिका को ही मुंह की खानी पड़ी है. आइए जान लेते हैं कि अमेरिका ने कितनी जंग लड़ीं और उनका परिणाम क्या रहा?

इतिहास में बहुत पीछे न जाते हुए हम 1945 के बाद के अमेरिकी युद्धों की बात करें. साल 1945 से पहले तक के ज्यादातर बड़े युद्धों में अमेरिका विजयी रहा है, लेकिन इसके बाद उसे सार्थक जीत कम ही नसीब हुई है. साल 1945 के बाद की बात करें तो अमेरिका ने प्रमुख रूप से पांच युद्ध लड़े हैं. इनमें कोरिया के साथ युद्ध, वियतनाम का युद्ध, खाड़ी युद्ध के साथ ही इराक और अफगानिस्तान पर हमले शामिल हैं.

इनके अलावा सोमालिया, यमन और लीबिया जैसे देशों से अमेरिका ने छोटी-छोटी लड़ाइयां लड़ी हैं. इनमें से साल 1991 के खाड़ी युद्ध को छोड़कर अमेरिका ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सभी में रणनीतिक रूप से हार का सामना किया है.

कोरिया का युद्ध समझौते के बाद रुका

25 जून 1950 की बात है. उत्तर कोरिया ने दक्षिण कोरिया पर हमला कर दिया था. इसमें उत्तर कोरिया के तानाशाह किम इल सुंग को सोवियत संघ के नेता जोसेफ स्टालिन का समर्थन मिला था. यह युद्ध शुरू होने के दो दिन बाद ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने दक्षिण कोरिया की मदद के लिए सदस्य देशों का आह्वान किया तो अमेरिका को मौका मिल गया और 30 जून को अमेरिकी सेना भी युद्ध में कूद गई. हालांकि, तब तक उत्तर कोरिया ने दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल पर कब्जा कर लिया था.

सितंबर आते-आते संयुक्त राष्ट्र की अगुवाई वाली संयुक्त सेना ने सियोल को छुड़ा लिया. इसी बीच, अमेरिका ने परमाणु हमले तक की योजना बना ली. हालांकि, ब्रिटेन के हस्तक्षेप के बाद उसने परमाणु हमला नहीं किया. साल बीतते-बीतते चीन भी उत्तर कोरिया की ओर से युद्ध में कूद गया.

13 महीने की लड़ाई के बाद युद्धविराम पर चर्चा शुरू हो गई. यह चर्चा दो साल तक युद्ध के साथ चलती रही. इसी बीच मार्च 1953 में स्टालिन का निधन हो गया तो सोवियत संघ के नए नेतृत्व ने समझौते की दिशा में तेजी से पहल की और 27 जुलाई 1953 को युद्ध विराम समझौता हो गया. यह युद्ध अमेरिका के लिए किसी हार से कम नहीं था, क्योंकि सोवियत संघ समर्थित उत्तर कोरिया की स्थिति इस युद्ध में बेहतर रही.

नॉर्थ कोरिया के नेता किम जोंग उन.

वियतनाम युद्ध में करारी हार

शीत युद्ध के काल में वियतनाम युद्ध एक ऐसा युद्ध था, जिसने अमेरिका की जड़ें हिला दी थीं. इस युद्ध में चीन और सोवियत संघ उत्तरी वियतनाम के साथ खड़े थे, जबकि अमेरिका दक्षिणी वियतनाम का साथ दे रहा था. इस युद्ध में अमेरिका समर्थित दक्षिणी वियतनाम की करारी हार हुई और देश के एकीकरण के साथ इसका खात्मा हुआ था. साल 1955 में शुरू होकर 1975 तक चला यह छद्म युद्ध अमेरिका के माथे पर एक ऐसा धब्बा है जो शायद ही कभी वह छुड़ा पाए.

खाड़ी युद्ध में हासिल हुई जीत

साल 1980 में शुरू हुआ इराक-ईरान युद्ध आठ साल बाद 1988 में खत्म हुआ. अमेरिका के बहकावे में आकर ईरान पर हमला करने वाला इराक इस युद्ध के कारण आर्थिक रूप से खस्ताहाल हो गया था. उसने दूसरे खाड़ी देशों से इस युद्ध के लिए काफी कर्ज लिया था. साल 1990 में इराक पर दूसरे खाड़ी देशों का 37 बिलियन डॉलर कर्ज था. इस पर इराक के तत्कालीन राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने कुवैत और संयुक्त अरब अमीरात से कहा कि वह इराक की देनदारी को माफ कर दें. इस पर दोनों की ओर से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं आने पर सैन्य शक्ति में कमजोर पड़ोसी कुवैत पर हमला कर दिया.

दो अगस्त 1990 को एक लाख इराकी सैनिकों ने कुवैत पर हमला किया और कुछ ही घंटों में पूरे देश पर कब्जा कर लिया था. इसके कारण संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने इराक पर प्रतिबंध लगा दिए. साथ ही अमेरिका की अगुवाई में गठबंधन सेनाओं ने 16 जनवरी 1991 को इराक के खिलाफ हमला बोल दिया और 28 फरवरी 1991 इराक को हार का सामना करना पड़ा. उसे कुवैत से पीछे हटना पड़ा.

इराक पर अमेरिका का हमला

कभी ईरान के साथ खड़े अमेरिका ने इराक-ईरान युद्ध में इराक का साथ दिया था. फिर खाड़ी युद्ध में इराक के ही खिलाफ खड़ा हो गया. कारण था अमेरिकी हित. तेल के खेल में अमेरिका बार-बार पाला बदलता रहा और साल 1990 में इराक ने जब अमेरिका के पिछलग्गू कुवैत पर हमला किया तो भले ही उसकी हार हुई हो पर अमेरिका इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन से खार खाए बैठा रहा.

साल 2003 में अमेरिका ने इराक पर आतंकवाद का समर्थन करने का आरोप लगाकर हमला कर दिया. गठबंधन सेनाएं इराक में उतार दीं. अमेरिका ने ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, पौलैंड, नीदरलैंड और डेनमार्क जैसे देशों की सेनाओं के साथ मिल कर 19 मार्च 2003 को ऑपरेशन इराकी फ्रीडम शुरू किया, जिसे संयुक्त राष्ट्र का समर्थन नहीं था. इसके बाद 13 दिसंबर 2003 को अमेरिका की अगुवाई वाले सुरक्षा बलों ने सद्दाम हुसैन को पकड़ लिया और उनको इराकी अदालत ने मौत की सजा सुनाई.

30 दिसंबर 2006 को बगदाद के पास सद्दाम को फांसी दे दी गई. इसके बाद भी अमेरिका का मन नहीं भरा और वह इराक में डेरा डाले रहा. इराक को तबाह करने के बाद 18 दिसंबर 2011 को अमेरिका ने अपनी सेना को पूरी तरह से इराक से हटा लिया. देखने में भले ही इस युद्ध में अमेरिका की जीत हुई हो पर धरातल पर वैसा कुछ नहीं हुआ, जैसा अमेरिका चाहता था. एक अच्छा-खासा देश बर्बाद जरूर हो गया.

बीबीसी ने तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के भाषण लेखक रहे डेविड फ़्रुम के हवाले से एक रिपोर्ट प्रकाशित की है. इराक के खिलाफ अमेरिका के युद्ध का फ्रुम ने पहले समर्थन किया था. हालांकि, बाद में उन्होंने एक लेख में लिखा कि हमको लगता था कि हम इराक को बेहतर बनाने के लिए तैयार हैं. असल में ऐसा नहीं था. हम अज्ञानी और अभिमानी थे. हम इराक में मानवीय पीड़ा के लिए जिम्मेदार बने. यह वास्तव में न तो अमेरिकियों के लिए अच्छा था और न इराक के लोगों के लिए और न ही इस क्षेत्र के लिए.

अफगानिस्तान

अफगानिस्तान में भी हाथ मलता रह गया अमेरिका

अमेरिका में सितंबर 2001 में हुए भीषण आतंकवादी हमले के बाद अमेरिका ने अक्टूबर 2001 में अफगानिस्तान पर हमला कर दिया. उसका मानना था कि अलकायदा के मुखिया ओसामा बिन लादेन और अन्य लोगों को अफगानिस्तान पनाह दे रहा है. असल में आरोप तो यह भी लगते रहे हैं कि लादेन को जन्म देने वाला ही अमेरिका था. नाटो सेना के साथ अफगानिस्तान पर हमला करने के बाद नवंबर 2001 में अमेरिका ने राजधानी काबुल और तालिबान के गढ़ कंधार को छुड़ा लिया. दिसंबर 2001 में ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान की ओर भाग गया और काबुल में हामिद करजई के नेतृत्व में नई सरकार बनाई गई.

वास्तव में इसे युद्ध का खात्मा माना जाना चाहिए पर अमेरिका ने ऐसा नहीं किया और तालिबान को खदेड़ने के बहाने उसने अफगानिस्तान में पैर जमा लिए. अमेरिका में राष्ट्रपति बदलते रहे पर वह अफगानिस्तान से तालिबान को पूरी तरह से कभी नहीं खत्म कर पाया. आखिरकार अगस्त-सितंबर 2021 में अमेरिका ने अफगानिस्तान को खाली कर दिया. अमेरिकी आधिकारिक आंकड़े के अनुसार 2001 से 2019 के बीच ही अफगानिस्तान में युद्ध पर अमेरिका 822 अरब डॉलर खर्च कर चुका था. यानी आर्थिक रूप से अमेरिका को बड़ा नुकसान उठाना पड़ा. फिर अमेरिकी और नॉटो सैनिकों की मौजूदगी के बावजूद 20 सालों तक तालिबान का हमला अफगानिस्तान में जारी रहा और अमेरिका के हटते ही उसने देश पर कब्जा कर लिया और अब अफगानिस्तान में उसी का शासन है.

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप.

ये हैं अमेरिकी हार के कारण

अमेरिकी प्रशासन के लिए अफगानिस्तान में काम करने वाले कार्टर मलकासियन ने एक किताब लिखी है, ‘द अमेरिकन वार इन अफ़ग़ानिस्तान-ए हिस्ट्री.’ इसमें उन्होंने लिखा है कि साल 1945 से पहले लड़े गए सभी युद्ध देशों के बीच लड़े गए थे. इसलिए अमेरिका ने वे युद्ध हमेशा जीते. बाद के नए युग के युद्धों में अमेरिका को इसलिए हार का सामना करना पड़ा, क्योंकि उसका मुकाबला स्थानीय विद्रोहियों से था. भले ही ये विद्रोही सैन्य ताकत में कमजोर हों पर अधिक प्रतिबद्ध और प्रेरित थे. अफगानिस्तान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है.

कुछ कथित बुद्धिजीवी तर्क देते हैं कि अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को ढूंढ़कर मारा पर उसे तो पाकिस्तान में पकड़कर मारा गया था. अलकायदा को नष्ट करने के दावे भी पुरजोर नहीं लगते. अफगानिस्तान से तालिबान को खत्म करने की बात करना ही बेमानी है. इराक और सीरिया से इस्लामिक स्टेट, लीबिया में तानाशाह कर्नल गद्दाफी का खात्मा को भी अमेरिका की कामयाबी के रूप में देखा जाता है पर असल में आतंकवाद के नाम पर अमेरिका अपने हित साधने की कोशिश करता रहा और आतंकवादियों पर कोई नकेल नहीं कस पाया. यहां तक कि बेनगाजी, सोमालिया और सैगॉन तक से उसे काबुल की तर्ज पर ही लौटना पड़ा.

अमेरिकी विदेश नीति के विशेषज्ञ और स्वार्थमोर कॉलेज के प्रोफेसर डॉमिनिक टियरनी के ईमेल इंटरव्यू के हवाले से बीबीसी हिन्दी ने लिखा है कि इराक, सीरिया, अफगानिस्तान और लीबिया की लड़ाइयां वास्तव में भारी गृह युद्ध थीं या हैं. इन युद्धों में भारी भरकम ताकत जीत की गारंटी होती ही नहीं है, खासकर तब जब अमेरिका जैसा देश बिना स्थानीय संस्कृति के बारे में जाने ही ऐसे दुश्मनों से भिड़ रहा जो स्थानीय स्तर पर ज्यादा जानकार हैं.

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