बिहार में विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आ रहे हैं, पार्टियाँ और गठबंधन अपने विरोधियों को घेरने की रणनीति बनाने में व्यस्त हैं। इसी क्रम में, पार्टियों की नज़र मतदाताओं के एक ऐसे अहम वर्ग पर है जो निर्णायक भूमिका निभा सकता है - 20 प्रतिशत दलित।
जागरण डॉट कॉम की एक रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में दलित वोटों का सबसे बड़ा हिस्सा रविदास और पासवान समुदायों का है। राज्य के कुल दलित वोटों में से 31 प्रतिशत रविदास, 30 प्रतिशत पासवान या दुसाध हैं, जबकि मुसहर या मांझी लगभग 14 प्रतिशत हैं।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन में जीतन राम मांझी की हम और चिराग पासवान की लोजपा (रालोद) जैसी सहयोगी पार्टियाँ हैं। दूसरी ओर, राजद सत्तारूढ़ गठबंधन को दलित और ओबीसी विरोधी बताने की कोशिश कर रहा है।
अनुसूचित जाति की सीटें और समीकरण
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम भी पार्टी को दलितों का सबसे बड़ा हितैषी बताने की कोशिश कर रहे हैं। 243 सीटों में से 38 अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं। इनमें से, एनडीए के पास फिलहाल 21 सीटें हैं। भाजपा के पास 9 दलित विधायक हैं जबकि जदयू के पास 8 हैं।
इस बार, एनडीए का ध्यान महागठबंधन के पास मौजूद आरक्षित सीटों पर जीत हासिल करने पर है। जागरण डॉट कॉम ने एक वरिष्ठ दलित भाजपा नेता के हवाले से बताया कि 38 आरक्षित सीटों में से केवल 17 पर ही एनडीए का कोई विधायक नहीं है। इस बार लक्ष्य कम से कम सभी 35 आरक्षित सीटें जीतना है।
जीतन राम मांझी और चिराग पासवान के साथ, एनडीए को इस समुदाय के वोट मिलने का पूरा भरोसा है, और इसलिए वह इन चुनावों में अन्य दलित जातियों को लुभाने के लिए एक फॉर्मूला तैयार कर रहा है।