मेरे चार दशकों के सार्वजनिक सेवा के सफर में, किसी ने भी मुझे किसी विचारधारा का प्रचारक नहीं कहा। संघ ने मुझे अनुकरण नहीं, बल्कि कर्तव्य के प्रति सच्चाई सिखाई। तिरुपति के मैदान में मैंने पहली बार भगवा चादर को प्रणाम किया था, जो आज भी मेरे भीतर अनुशासन, आत्मबल और करुणा का प्रतीक बना हुआ है।
संघ में कोई भी ‘टीचर’ या ‘गुरुजी’ वेतन नहीं लेते थे। हर कार्यकर्ता सेवा के भाव से जुड़ा होता था। यहीं मैंने सीखा कि सच्चा नेतृत्व अधिकार से नहीं, बल्कि सेवा से उत्पन्न होता है। जब आप दूसरों को प्रेरित करते हैं और उनके साथ खड़े रहते हैं, तभी वे आपका अनुसरण करते हैं।
हर व्यक्ति का जीवन केवल उसके निर्णयों से नहीं, बल्कि उन संस्कारों और संस्थाओं से आकार लेता है जो उसे दिशा देती हैं। मेरे जीवन में संघ एक प्रेरणा स्रोत रहा है। यह केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक विचार और जीवनशैली है। जब प्रधानमंत्री ने लाल किले से संघ के योगदान का उल्लेख किया, तो मुझे अपने किशोर दिनों की याद आ गई।
एक साधारण शाम थी जब मैं स्कूल से लौट रहा था और पास के मैदान में बच्चों को खेलते देख रहा था। वहां एक ध्वज लहरा रहा था और एक युवक अनुशासित तरीके से नेतृत्व कर रहा था। उसने मुस्कराकर पूछा, “आओगे?” मैंने प्रणाम किया और अनजाने में एक ऐसी यात्रा शुरू की जो जीवनभर चलती रही।
उस समय यह खेल जैसा लगा, लेकिन अब समझता हूँ कि वह ‘खेल’ नहीं, बल्कि व्यक्तित्व निर्माण की प्रयोगशाला थी। वहीं मैंने पहली बार भारत की सांस्कृतिक परंपराओं और नागरिक कर्तव्यों के बारे में सीखा। यह संतुलन मेरे जीवन की असली पूंजी बन गया।
1986 में प्रशासनिक सेवा में चयन के बाद, शाखा का सक्रिय जीवन पीछे छूट गया, लेकिन आत्मिक जुड़ाव कभी नहीं टूटा। संघ में कोई सदस्यता पत्र नहीं होता, यह हृदय का बंधन है। आप जहाँ भी हों, अपेक्षा बस इतनी होती है कि आप सजग, ईमानदार और देशभक्त नागरिक बनें।
संघ में प्रचारकों का पहला सत्र भी शाखा के माध्यम से ही हुआ। मेरे जीवन में जिन लोगों ने सबसे अधिक प्रभाव छोड़ा, वे प्रचारक थे। ये साधु की तरह समाज में घूमते और हर मिलने वाले से आत्मीयता का रिश्ता बनाते। उनका अनुशासन और सादगी देखकर मैंने समझा कि आदर्श केवल बोलने से नहीं, जीने से प्रकट होता है।
गुरुपूजा दिवस संघ का एक विशेष अवसर होता है। उस दिन स्वयंसेवक अपनी क्षमता अनुसार कुछ अर्पित करते हैं। मैंने कई वर्षों तक गंगाजलि प्रमुख के रूप में यह जिम्मेदारी निभाई। यह केवल धन संग्रह नहीं था, बल्कि उत्तरदायित्व और विनम्रता का संस्कार था।
उस समय शाखा का एक घटा खेल जैसा लगता था, पर अब समझता हूँ कि वह व्यक्तित्व निर्माण की प्रयोगशाला थी। वहीं मैंने पहली बार भारत की सांस्कृतिक परंपराओं और नागरिक कर्तव्यों के बारे में सीखा। यह संतुलन मेरे जीवन की असली पूंजी बन गया।
घर से दूर एक घर जैसा अपनापन चाहिए तो संघ से संपर्क अनिवार्य है। मेरी पढ़ाई और प्रतियोगी परीक्षाओं के दौरान मैंने यह अनुभव किया। जब भी मैं किसी नए शहर में परीक्षा देने जाता, तो शाखा के एक परिचित से एक छोटा सा पत्र लेकर संघ के कार्यालय पहुँच जाता। यहाँ न कोई औपचारिकता, न पहचान की जरूरत-बस दरवाजा खुलता और आवाज आती, “आओ भाई, भोजन कर लो।” यह अनुभव मुझे सिखाता गया कि संगठन की असली ताकत भाईचारा और विश्वास है।