सम्राट अब भाजपा के चौधरी नहीं रहेंगे. पार्टी की तरफ से अब उनकी जिम्मेदारी सिर्फ़ नीतीश गवर्नमेंट में डिप्टी और वित्त विभाग के मंत्री तक सीमित कर दी गई है. उनकी स्थान 20 वर्ष तक भाजपा के कोषाध्यक्ष रहे और मौजूदा भूमि-राजस्व मंत्री दिलीप जायसवाल को पार्टी का विधानसभा चुनाव से लगभग डेढ़ वर्ष पहले भाजपा के इस संगठनात्मक परिवर्तन को काफी अहम बताया जा रहा है. इस बीच राजनीतिक गलियारों में दो तरह की चर्चा हो रही है.
पहला– आखिर सम्राट चौधरी को 16 महीने के भीतर ही क्यों हटा दिया गया?
दूसरा– फायरब्रांड नेता को कुर्सी से हटाकर आखिर शांत और सरल छवि वाले नेता को जिम्मेदारी क्यों दी गई?
प्रदेश अध्यक्ष की रेस में आगे चल रहे दीघा विधायक संजीव चौरसिया और जनक राम आखिर कुर्सी से दूर क्यों हो गए? इसके अलावा, चर्चा इस बात की भी है कि सम्राट चौधरी के प्रदेश अध्यक्ष बनने से पार्टी के अंदर भीतरी-बाहरी का मामला बहुत तेजी से उठने लगा था.
बीजेपी ने 1 वर्ष में सम्राट चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटा दिया.
4 पॉइंट में समझिए सम्राट चौधरी को हटाने के कारण
नीतीश के पाला बदलते ही हटाने की पटकथा लिखी गई
सम्राट चौधरी को पार्टी की जिम्मेदारी ऐसे समय में दी गई थी, जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार महागठबंधन में शामिल थे. पार्टी अपने बूते राज्य में लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लड़ना चाहती थी. ऐसे में सम्राट चौधरी पर दांव लगाकर केंद्रीय नेतृत्व बिहार में संगठन को नए सिरे से खड़ा करना चाहती थी. चौधरी इस मुहिम में जुट भी गए थे.
मार्च में प्रारम्भ हुए उनके इस मुहिम को उस समय झटका लगा, जब नीतीश कुमार महागठबंधन का साथ छोड़ एनडीए के साथ हो गए. इसके बाद उन्हें संगठन की स्थान गवर्नमेंट में शामिल कर डिप्टी मुख्यमंत्री बना दिया गया. तब ही ये तय हो गया था कि उन्हें प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटा दिया जाएगा.
पार्टी के अंदर भीतरी-बाहरी की गुटबाजी
सम्राट चौधरी के प्रदेश अध्यक्ष बनते ही पार्टी के भीतर गुटबाजी प्रारम्भ हो गई थी. पार्टी के पुराने सिपाही इन्हें अपना नेता मानने को तैयार नहीं दिख रहे थे. एक धड़ा जहां इन्हें बाहरी (राजद से आया हुआ) बता रहा था तो दूसरा धड़ा इन्हें पार्टी का भविष्य बता रहा था. चर्चा तो यहां तक प्रारम्भ हो गई थी कि इनके प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी के पुराने नेता पार्टी के प्रदेश कार्यालय से दूरी बनाने लगे थे.
हालांकि, लोकसभा चुनाव से पहले कोई भी पार्टी के फैसला के विरुद्ध बोलने से बचते दिख रहे थे, लेकिन चुनाव नतीजों के बाद नाराजगी उभरने लगी. अश्विनी चौबे, संजय पासवान, हरि सहनी जैसे पार्टी के पुराने नेता इन्हें हटाने की मांग करने लगे. अश्विनी चौबे तो खुल कर संघ से आए आदमी को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की वकालत करने लगे. सम्राट चौधरी की विदाई के पीछे पुराने नेताओं की नाराजगी भी एक बड़ा कारण बताया जा रहा है.
सम्राट चौधरी की स्थान दिलीप जायसवाल को भाजपा ने प्रदेश अध्यक्ष बनाया है.
कुशवाहा के नेता नहीं बन सके सम्राट चौधरी
बिहार में कुशवाहा की राजनीति मौजूदा दौर में चरम पर है. एक तरफ राजद और भाजपा जहां नीतीश कुमार के इस कोर वोट बैंक में अपनी पैठ मजबूत करना चाहती है तो दूसरी तरफ जदयू इसे बचाने में जुटी हुई है. भाजपा में सम्राट चौधरी के उभार का एक बड़ा कारण भी यही बताया जा रहा था.
पॉलिटिकल एक्सपर्ट कहते हैं कि नीतीश कुमार के लव-कुश समीकरण को साधने के लिए ही भाजपा ने सम्राट चौधरी को आगे किया था. वे इसमें बुरी तरह फेल हुए.
पहले तो सम्राट चौधरी प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए लोकसभा चुनाव के दौरान पार्टी से एक भी कुशवाहा को टिकट दिलाने में सफल नहीं हुए. इसके बाद लालू यादव ने इनकी पूरी योजना पर पानी फेर दिया.
उन्होंने अपने कुशवाहा प्रयोग से इन्हें चारों खाने चित्त कर दिया. लालू यादव ने महागठबंधन की तरफ से लोकसभा चुनाव में 7 उम्मीदवार उतारे जिनमें 2 जीतने में सफल रहे और कुशवाहा वोट पूरी तरह बिखर गया. इसका सबसे अधिक खामियाजा सम्राट चौधरी को भुगतना पड़ा.
एक आदमी एक पद की नीति
बीजेपी की यह नीति चलती आ रही है कि यहां एक आदमी एक पद पर ही रहेगा. ऐसे में सम्राट चौधरी या तो डिप्टी मुख्यमंत्री रह सकते थे या फिर प्रदेश अध्यक्ष. हालांकि, भाजपा सूत्रों की माने तो सम्राट चौधरी डिप्टी मुख्यमंत्री के पद से अधिक प्रदेश अध्यक्ष के पद में दिलचस्पी दिखा रहे थे, लेकिन पार्टी ने उनकी स्थान मंत्री दिलीप जायसवाल को चुना. फिलहाल उनके पास भी दो पद हैं. ऐसे में दिलीप जायसवाल का मंत्री पद से हटना तय बताया जा रहा है. स्पीकर ने सदन में संजय सरावगी के शुभकामना संदेश में दिलीप जायसवाल के मंत्री पद से त्याग-पत्र का इशारा भी कर दिया है .
अब 4 पॉइंट में जानिए, दिलीप जायसवाल पर दांव क्यों
संघ और शाह के करीबी
दिलीप जायसवाल की गिनती संघ के साथ केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के भी करीबी नेताओं में होती है. संघ से जुड़े सरस्वती शिशु मंदिर और वनवासी कल्याण केंद्र से इनका गहरा जुड़ाव रहा है. वहीं, अमित शाह से इनकी करीबी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब शाह ने एक दिन के लिए किशनगंज में प्रवास किया था तो वे इन्हीं के कॉलेज में ठहरे थे. दिलीप जायसवाल को मंत्री बनाने में भी अमित शाह की अहम किरदार थी.
दिलीप जायसवाल की गिनती संघ के साथ केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के भी करीबी नेताओं में होती है
संगठन का लंबा अनुभव और स्वीकार्यता
दिलीप जायसवाल के पास संगठन में काम करने का लंबा अनुभव है. ये लगभग 20 सालों तक पार्टी के प्रदेश में कोषाध्यक्ष के पद पर रहे हैं. कोषाध्यक्ष रहते हुए फंड जुटाने से लेकर फंड के खर्च में इनके प्रबंधन की प्रशंसा पार्टी में इनके सहयोगी भी करते हैं. इनके कोषाध्यक्ष रहते ही पार्टी का हर जिला का कार्यालय अपनी बिल्डिंग में शिफ्ट हुआ.
2009 से जायसवाल लगातार विधान पार्षद के सदस्य हैं. पहली बार 2024 में इन्हें राज्य गवर्नमेंट में मंत्री भी बनाया गया है. ऐसे में इनके पास संगठन में काम करने का लंबा अनुभव है. पार्टी के सभी नेताओं के साथ इनके बेहतर संबंध हैं. यही कारण है कि हर गुट के नेताओं में इनकी स्वीकार्यता भी है.
दिलीप जायसवाल मूल रूप से खगड़िया जिले के रहने वाले हैं. भाजपा के दिग्गज नेता माने जाते हैं.
वैश्य की नाराजगी दूर करने की कोशिश
लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने दो प्रयोग किए. पहला- पार्टी ने वैश्य समुदाय से आने वाली धर्मशील गुप्ता को स्त्री प्रकोष्ट का प्रदेश अध्यक्ष बनाया, इसके बाद इन्हें राज्यसभा भेज दिया. वहीं, लोकसभा चुनाव में पार्टी लगातार शिवहर से चुनाव जीतते आ रही रमा देवी को शिवहर से बेटिकट कर दिया.
इनके अतिरिक्त स्वयं को बीजेपी का सिपाही बताने वाले सुनील कुमार पिंटू का पत्ता भी काट दिया. मुद्दा यहीं नहीं रूका, जब पश्चिमी चंपारण से लगातार चौथी बार संजय जायसवाल सांसद चुने गए, तब केंद्र में उनका मंत्री बनना तय बताया जा रहा था, लेकिन उन्हें भी मंत्री नहीं बनाया गया.
वैश्व समाज को भाजपा का कोर वोट बैंक माना जाता है. लगातार नजरअंदाज होने के बाद राज्य के वैश्य समाज में पार्टी के विरुद्ध नाराजगी हावी हो रही थी. ऐसे में दिलीप जायसवाल पर दांव लगाकर पार्टी ने विधानसभा चुनाव में डैमेज कंट्रोल करने की प्रयास की है.
सीमांचल में पैठ बनाने की कोशिश
दिलीप जायसवाल का पैतृक निवास भले खगड़िया हो, लेकिन अपनी कर्मभूमि उन्होंने सीमांचल में तैयार किया है. सीमांचल के किशनगंज के माता गुजरी मेमोरियल मेडिकल कॉलेज के वे डायरेक्टर हैं. इसके अतिरिक्त 2009 से वे क्षेत्रीय निकाय कोटे में सीमांचल से चुनकर विधान परिषद पहुंच रहे हैं. 2014 में उन्होंने किशनगंज से लोकसभा का चुनाव भी लड़ा. हालांकि, तब वे हार गए थे.
ऐसे में पार्टी संगठन के स्तर पर एक तीर से दो निशाने साधने की प्रयास की है. पहला- वैश्व समाज की नाराजगी दूर करने की कोशिश. दूसरा- राज्य में अभी भी सीमांचल ही एक ऐसा क्षेत्र है, जहां पार्टी लगातार पिछड़ रही है. ऐसे में दिलीप जायसवाल को आगे कर पार्टी वहां अपनी पैठ मजबूत करना चाहेगी.