मोबाइल टेलीफोन को लेकर अक्सर इस तरह के डर और भ्रम फैलाए जाते हैं कि इसके इस्तेमाल से कैंसर हो जाता है. लेकिन क्या ये बात वैज्ञानिक रूप से ठीक है?
हाल ही में डब्ल्यूएचओ (WHO) ने इस पर एक रिपोर्ट जारी की है. इस रिव्यू रिपोर्ट में मोबाइल टेलीफोन और कैंसर के संबंध को जानने के लिए पूरी दुनिया में हुई कई स्टडीज का रिव्यू किया गया है. रिपोर्ट के मुताबिक–
यह रिव्यू ऑस्ट्रेलियन रेडिएशन प्रोटेक्शन एंड न्यूक्लियर सेफ्टी एजेंसी (ARPANSA) के नेतृत्व में किया गया. इसमें पूरी दुनिया की कुल 5,000 से अधिक स्टडीज को शामिल किया गया. इन्हें कई वैज्ञानिक पहलुओं पर आंका गया, छांटा गया और आखिर में वर्ष 1994 से 2022 के बीच पब्लिश केवल 63 सबसे परफेक्ट स्टडीज को रिव्यू किया गया. इन सारी स्टडीज का डिटेल शोध और रिव्यू करने के बाद वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे कि मोबाइल टेलीफोन चलाने से किसी तरह का कैंसर या ट्यूमर नहीं होता है.
यह रिव्यू इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि पूरी दुनिया में विज्ञान के हवाले से कई मिथ सच की तरह परोसे जा रहे हैं. इसमें एक बड़ा मिथ यह भी था कि मोबाइल टेलीफोन से निकलने वाली रेडियो वेव्स ब्रेन, सिर और गले के कैंसर की वजह बनती हैं.
यह तो निश्चित है कि मोबाइल टेलीफोन से कैंसर नहीं होता है, लेकिन क्या इसका मतलब ये है कि मोबाइल टेलीफोन चलाना बिल्कुल सुरक्षित है? क्या इसे जितनी देर जी चाहे, चलाया जा सकता है? ऐसा एकदम नहीं है. अधिक देर तक मोबाइल टेलीफोन चलाने के कई हानि होते हैं. इससे फोकस कम होता है. अटेंशन स्पैन कम हो जाता है. आंखों की स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है.
दुनिया में 70% लोग कर रहे SmartPhone का इस्तेमाल
साल 1994 में दुनिया का पहला SmartPhone बाजार में आया और महज कुछ वर्षों में ही ये लोगों के जीवन का सबसे अहम हिस्सा बन गया. स्टेटिस्टा पर पब्लिश एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की लगभग 70% जनसंख्या SmartPhone का इस्तेमाल कर रही है. इसके बिना लोग स्वयं को निर्बल महसूस करते हैं. मोबाइल टेलीफोन का इस्तेमाल हर उम्र के लोगों में काफी तेजी से बढ़ रहा है. नतीजन इसके दुष्प्रभाव भी देखने को मिल रहे हैं. नीचे दिए गए ग्राफिक के जरिए मोबाइल टेलीफोन के अधिक इस्तेमाल से हाेने वाले हानि के बारे में जानें.
नींद प्रभावित होती है
अमेरिकन नेशनल स्लीप फाउंडेशन की एक स्टडी के मुताबिक, मोबाइल टेलीफोन या दूसरे गैजेट्स इस्तेमाल करने से नींद प्रभावित होती है. देर रात तक मोबाइल टेलीफोन और लैपटॉप से निकलने वाली लाइट की मौजूदगी में हमारा शरीर नींद के लिए महत्वपूर्ण हॉर्मोन मेलाटोनिन रिलीज नहीं कर पाता या इसकी मात्रा आवश्यकता से कम होती है. ऐसे में यदि नींद आती भी है तो उतनी गहरी नहीं होती है.
आंखों पर बल पड़ता है
ज्यादा देर तक मोबाइल टेलीफोन इस्तेमाल करने से आंखों में तनाव बढ़ सकता है. मोबाइल टेलीफोन के छोटे अक्षर और ब्राइट स्क्रीन आंखों को अधिक मेहनत करने के लिए विवश करते हैं. इससे ड्राई आइज, ब्लर विजन और सिरदर्द की परेशानी हो सकती है. इससे आंखों की रोशनी प्रभावित हो सकती है.
स्ट्रेस लेवल बढ़ता है
मोबाइल टेलीफोन की स्क्रीन को लगातार देखने से स्ट्रेस लेवल बढ़ सकता है. इससे एंग्जाइटी बढ़ सकती है. साथ ही आंखों और गर्दन की मसल्स में तनाव बढ़ सकता है.
लत और डिपेंडेसी बढ़ती है
लोग मोबाइल टेलीफोन के लती हो रहे हैं. कुछ लोग टॉयलेट में भी मोबाइल टेलीफोन साथ लेकर जाते हैं. इसके लिए नया शब्द ‘नोमोफोबिया’ है. इसका मतलब है कि मोबाइल टेलीफोन के बिना घबराहट होना. इसके अतिरिक्त लोग हर एक छोटे-बड़े काम के लिए मोबाइल टेलीफोन पर निर्भर होते जा रहे हैं. इससे मेहनत करने की आदत समाप्त हो रही है.
अटेंशन स्पैन घट रहा है
मोबाइल टेलीफोन के अधिक इस्तेमाल के कारण लोगों का अटेंशन स्पैन कम होता जा रहा है. इसका मतलब है कि कोई बिना ध्यान भटके किसी काम में लगातार कितनी देर तक अपना ध्यान लगा सकता है. यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया इरविन की एक स्टडी के अनुसार इंसानों का औसत अटेंशन स्पैन बीते 20 वर्षों में 2.5 मिनट से घटकर 47 सेकेंड तक पहुंच गया है.
फोकस कम हो रहा है
स्मार्टफोन में एक प्रकार से पूरी दुनिया कैद है. इसमें लोग हर मिनट में एक ऐप से दूसरे ऐप में भटकते रहते हैं. हर 30 सेकेंड में रील्स स्क्रॉल करते रहते हैं. इसका असर ये हुआ है कि लोगों की एकाग्रता समाप्त हो रही है.
धैर्य की क्षमता घट रही है
मौजूदा समय में मोबाइल टेलीफोन किसी जादू से कम नहीं हैं. पहले किसी शब्द का माने न पता होने पर लोग डिक्शनरी लेकर देर तक उलझे रहते थे. मनपसंद गाना चलाने के लिए पहले कैसेट ढूंढते थे, फिर टेप रिकॉर्डर को रिवाइंड करके उसे चालू करते थे. यदि कैसेट घर पर हो तब भी इसमें कम-से-कम 5 मिनट तो खर्च हो ही जाते थे. अब यह सबकुछ कुछ सेकेंड्स में हो जाता है. इसके रिज़ल्ट स्वरूप लोगों में संयम की क्षमता समाप्त हो रही है.
बच्चों का विकास प्रभावित हो रहा है
विशेष तौर पर मोबाइल टेलीफोन के इस्तेमाल का छोटे बच्चों के मानसिक और शारीरिक विकास पर नकारात्मक असर पड़ रहा है. बच्चे संवेदनशील होते हैं. अधिक स्क्रीन टाइम उनके कॉग्निटिव और इमोशनल डेवलपमेंट में बाधा बन रहा है. इससे अटेंशन स्पैन की समस्या, लैंग्वेज स्किल्स में देरी और बिहेवियर से जुड़ी समस्याएं हो रही हैं. बच्चे बाहर मैदान में खेलने की बजाय SmartPhone में गेम खेल रहे हैं या मनोरंजन के लिए वीडियो देख रहे हैं. इससे उनकी फिजिकल ग्रोथ पर भी असर पड़ रहा है.
भारत में औसतन एक शख्स इस्तेमाल कर रहा 4 घंटे फोन
इंटरनेशनल डिजिटल डेटा फर्म ‘डेटा रिपोर्टल’ की रिपोर्ट के मुताबिक, हिंदुस्तान में एक आदमी एवरेज 4 घंटे 3 मिनट मोबाइल टेलीफोन का इस्तेमाल कर रहा है. इस मुद्दे में पूरी दुनिया का औसत समय 3 घंटे 15 मिनट है. भारतीय इससे लगभग 50 मिनट अधिक टेलीफोन इस्तेमाल कर रहे हैं. जापान के लोग पूरे दिन में औसतन 2 घंटे से भी कम देर टेलीफोन चलाते हैं.
बेसिक टेलीफोन की तरफ लौट रहे हैं लोग
कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स सेल के डेटा के मुताबिक, बीते कुछ वर्षों से SmartPhone की बिक्री में गिरावट देखने को मिल रही है. यह गिरावट आगे और बढ़ने की आशा है. इसकी एक वजह ये भी है कि नयी जनरेशन ने फिर से बेसिक टेलीफोन खरीदना प्रारम्भ कर दिया है. दुनिया के कई वैज्ञानिक भी इस ओर पहले भी इशारा कर चुके हैं कि यदि लोग अपना दिमाग इस्तेमाल करने की बजाय टेलीफोन पर निर्भर होते जाएंगे तो इवॉल्यूशन में दिमाग की फंक्शनिंग कमजोर और सीमित होने लगेगी. हमें यह समझने की आवश्यकता है कि इंसानी दिमाग SmartPhone से कहीं अधिक तेज और ताकतवर है.