कुछ नई, कुछ पुरानी और कुछ बहुत पुरानी, स्वरूप ऐसा जैसे किसी राजा ने बनवाया हो, पर हालात ऐसी जैसे कोई सालों से झांकने ना आया हो। दरअसल बिहार के एक गांव को अब परदेसियों का गांव बोला जाता है। यहां की आधी जनसंख्या पलायन कर चुकी है, कोई गांव से बाहर शहर में तो कोई राष्ट्र से बाहर विदेश में रहता है। कभी पंडित जवाहर लाल नेहरू के बॉडीगार्ड रहे क्षेत्रीय निवासी मुद्रिका प्रसाद वर्मा बताते हैं कि यहां की जनसंख्या समय के साथ पलायन करती चली गई। देश-विदेश में यहां के लोग हैं। सब अपनी दुनियां में मस्त, अपनी दुनियां में खुश हैं। यहां कोई झांकने भी नहीं आता है।
सुनसान गांव, वीरान सड़कें
इमारतें खंडहर का रूप ले चुकी हैं, गलियां वीरान हैं, गांव सुनसान हैं, पक्की सड़कें घर तक जाती जरूर हैं, लेकिन उस घर में आदमी की स्थान चील, कौवा का बसेरा है। लोकल 18 जब गांव घूमने निकली, तो पुरुष नहीं दिख रहे थे, शायद खेती पर गए हो या फिर उनकी संख्या ही कम हो। कुछ महिलाएं मिली, जिनसे बात करने की प्रयास की गई, तो वो इंकार करने लगी।
स्थानीय स्त्री शोभनी देवी बताती हैं कि यहां के कई लोग विदेशों में सेटल हैं और कई सालों से नहीं आए हैं। इतना समझ लीजिए कि माता-पिता का क्रियाकर्म भी संपन्न हो गया, लेकिन बच्चे लौट कर नहीं आए। कहां हैं, किस हाल में हैं, ये किसी को नहीं पता। यहां उनके घर टूट गए हैं, खिड़कियां भी टूट चुकी हैं, बच्चों ने ऐसी वीरान स्थान को दिन में खेल का अड्डा बना लिया है। उनलोगों की संपत्तियां भी हैं, बावजूद इसके वो लोग नहीं आते।
क्या सभी लोग ऐसा ही करते हैं ?
इसका उत्तर हमें क्षेत्रीय पोस्टमैन और गांव के युवा अभिषेक देते हुए कहते हैं कि बहुत लोग ऐसे ही हैं। जो आते-जाते रहते हैं। लेकिन अधिकांश लोग ऐसे हैं, जो बहुत सालों से गायब हैं। उसमें से कुछ यूएस, तो कुछ कनाडा जैसे संभ्रांत राष्ट्रों में रहते हैं। वो हमें एक गली की और इशारा करते हुए कहते हैं कि इस गली में 10 घर है, लेकिन सबके सब बाहर हैं। बीते 30-35 सालों से नहीं आए हैं। वो अब आयेंगे भी, तो हम जैसे बच्चे पहचान नहीं पाएंगे।
क्यों पलायन करने लगे लोग ?
इस बात को जानने के लिए हमनें बहुत प्रयास की। लेकिन इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता। क्षेत्रीय बुजुर्ग मुद्रिका प्रसाद वर्मा के अनुसार, रोजगार की चाहत और घर की जरूरतों ने सबको बेगाना कर दिया। अब जब वो बाहर सेटल हो गए तो उन्हें गांव से बेहतर शहर की दुनिया लगने लगी। ऐसे में ये एक प्रमुख कारण हो सकता है। लेकिन सोच से बाहर की चीज यह है कि क्या कोई अपने पुरखों की संपत्ति का रक्षक नहीं बनेगा ?
कहां है यह गांव ?
यह गांव बिहार के गौरवशाली इतिहास को समेटे नालंदा की पृष्ठभूमि पर अंकित हरनौत प्रखंड का ‘बेढना’ है, जिसकी जनसंख्या तकरीबन 1500 है। लेकिन गांव में 500 लोग भी नहीं दिखते। जातिगत बात करें, तो यहां कुर्मी समुदाय के लोग अधिक रहते हैं। इसके अतिरिक्त साहू, माली समुदाय के लोग भी रहते हैं।
जरूरत महज इतनी है कि सुनकर अटपटा लगता है कि किसी परदेशी को अपने इस गांव की याद नहीं आती। बुनियादी सुविधाओं से भरपूर इस गांव में यदि किसी चीज की कमी है, तो बस रहने वालों की। स्थान पर्याप्त है, हवेलियां टूट रही हैं। घरों के ऊपर अनगिनित जंगलों ने बसेरा बना लिया है। दीपावली और छठ जैसे दिन भी बहुत सामान्य रहने लगे हैं। मंदिरों में भगवान की तस्वीर और मूर्तियां लगी हैं, लेकिन पूजा करने वाले भक्तों की संख्या ना के बराबर है। खेतों में फसल जरूर लहलहा रहे हैं, लेकिन कई कोषों तक खेत भी वीरान है।