आह से उपजा होगा गान।
निकलकर आंखों से चुपचाप,
बही होगी कविता अनजान..।'
ये पंक्तियाँ प्रकृति के सुकुमार कवि और छायावाद के चार स्तंभों में से एक, सचमुच अद्वितीय और प्रतिष्ठित कवि सुमित्रानंदन पंत की हैं, जिनकी 28वीं पुण्य तिथि है। अपनी कविताओं में प्रकृति की खुशबू बिखेरने वाले कवि सुमित्रा नंदन पंत का जन्म 20 मई, 1900 को अल्मोडा (उत्तर प्रदेश) के कौसानी गांव में हुआ था। चूँकि उनके जन्म के कुछ समय बाद ही उनकी माँ का निधन हो गया, इसलिए उन्होंने प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर अपने गाँव की प्रकृति को अपनी माँ के रूप में लिया।
सुमित्रानंदन पंत के जीवन की कहानीबचपन से ही अल्मोडा में हारमोनियम और तबले की धुन पर गाने गाने के साथ-साथ उन्होंने अपनी रचनात्मकता और आविष्कारशीलता का परिचय देते हुए सात साल की उम्र में ही कविता रचना शुरू कर दी थी। छोटी उम्र में नेपोलियन की तस्वीर देखने के बाद उन्होंने अपना नाम गुसाईं दत्त से बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया और उन्हीं की तरह अपने बाल बढ़ाने का फैसला किया।
अपने नम्र एवं मधुर स्वभाव, गोरे रंग, आंखों पर काला चश्मा और लंबे रेशमी घुंघराले बाल तथा शारीरिक गठन के कारण वे कवियों के बीच सदैव आकर्षण का केंद्र रहे। पंत को बचपन से ही ईश्वर पर अटूट विश्वास था। वह घण्टों-घण्टों तक भगवान के ध्यान में लीन रहता था। वे अपनी काव्य रचना को ईश्वर पर आश्रित मानते हुए कहा करते थे- 'क्या कोई अच्छा सोच और लिख सकता है, जब उसे लिखना होगा, वह लिख लेगा।'
प्रारंभिक शिक्षा अल्मोडा से प्राप्त करने के बाद वे अपने बड़े भाई देवी दत्त के साथ आगे की शिक्षा के लिए काशी आये और क्वींस कॉलेज में दाखिला लिया और अपनी कविताओं से लोकप्रिय हो गये। पंत 25 वर्षों तक केवल स्त्री विषय पर कविता लिखते रहे। वह महिलाओं की आजादी के कट्टर समर्थक थे। उन्होंने कहा कि भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का पूर्ण उत्थान तभी संभव है जब महिलाएं स्वतंत्र वातावरण में रहेंगी। वे स्वयं कहते हैं-
मुक्त करो नारी को मानव,
चिर वन्दिनी नारी को।
युग-युग की निर्मम कारा से,
जननी सखि प्यारी को।'