यूरोपीय संघ के वे सदस्य देश, जो अमेरिकी नेतृत्व वाले सैन्य संगठन नाटो (NATO) के भी सदस्य हैं, अब तक यह मानकर निश्चिंत रहा करते थे कि संकट काल में अमेरिका हमारी रक्षा करेगा ही। किंतु ट्रम्प की वापसी ने उनकी नींदें उड़ा दी हैं। ट्रम्प ने शपथ लेते ही कुछ ऐसी बातें कही हैं, जिनमें यूरोप में नाटो की महत्ता के प्रति वह प्रतिबद्धता नहीं झलकती, जो अतीत में रहा करती थी। इसी कारण, यूरोपीय सरकारों को यह चिंता सताने लगी है कि कहीं ऐसा न हो कि रूस के साथ युद्ध में यूक्रेन की सहायता का मुख्य भार अमेरिका के बदले अब उन्हीं के कंधों पर आ पड़े! नाटो की अपनी भूमिका भी कहीं ट्रम्प की उदासीनता का शिकार न बन जाए! ALSO READ:
अनौपचारिक शिखर सम्मेलन : इन्हीं बेचैनियों और चिंताओं के कारण सोमवार, 3 फ़रवरी को यूरोपीय संघ के 27 सदस्य देशों के सरकार प्रमुख, संघ की बेल्जियन राजधानी ब्रसेल्स में एक अनौपचारिक शिखर सम्मेलन के लिए मिल बैठे। वे यूरोप की सामूहिक प्रतिरक्षा को और अधिक सशक्त बनाने और इस पर होने वाले ख़र्च की रूपरेखा पर आपसी सहमति बनाना चाहते थे। अंत में सभी पक्ष इस बात पर एकमत थे कि यूरोप की सुरक्षा तैयारियों को ख़ुद ही बढ़ाया जाए। किंतु, यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहा कि मुख्यतः किन सैन्य क्षमताओं में वृद्धि को प्राथमिकता दी जाएगी और उनके लिए धन कैसे जुटाया जाएगा।
यूरोपीय संघ की सरकार के सामान, संघ के कार्यकारी आयोग का कहना है कि यूरोप की सुरक्षा को बढ़ाने के लिए जो लक्ष्य तय किए गए हैं, उन्हें पाने के लिए आगामी 10 वर्षों में कम से कम 500 अरब यूरो की ज़रूरत होगी। किंतु, 2021 से 2027 तक के वर्तमान संघीय बजट में सुरक्षा कार्यों के लिए केवल 8 अरब यूरो का प्रावधान है। ऐसे में सैकड़ों अरब यूरो आयेंगे कहां से? डेनमार्क की प्रधानमंत्री मेटे फ्रेडरिकसेन का सुझाव था, ''हमें अभी से हड़बड़ाने की ज़रूरत नहीं है,... तीन साल बाद यूरोपीय संघ को अपनी गति ज़रा तेज़ कर देनी होगी।'' उनका मानना था कि हम अभी भी एक शांतिकाल में जी रहे हैं, हमें अपनी सोच थोड़ी बदलनी होगी। ALSO READ:
समस्या धन जुटाने की : लातविया की प्रधानमंत्री एविका सिलीना ने श्रीमती फ्रेडरिकसेन का समर्थन करते हुए सुझाव दिया कि अस्त्र-शस्त्र उद्योग को अभी से इशारा कर दिया जाना चाहिए कि उन्हें अच्छे-खा़से ऑर्डर मिलने वाले हैं, तैयार रहें। धन जुटाने के लिए 'यूरो बॉन्ड' भी जारी किए जा सकते हैं। लेकिन, जर्मनी के चांसलर (प्रधानमंत्री) ओलाफ़ शोल्त्स ने बॉन्ड जारी करने का विरोध करते हुए कहा कि वे हथियारों की ख़रीद के लिए बॉन्ड आदि के रूप में सामूहिक कर्ज़ लेने के सरासर विरुद्ध हैं। उन्होंने यूरोपीय संघ के देशों के बीच आपसी सहयोग बढ़ाते हुए सामूहिक रूप से आवश्यक हथियारों का स्वयं उत्पादन करने की पैरवी की।
डोनाल्ड ट्रम्प 8 वर्ष पूर्व जब पहली बार राष्ट्रपति बने थे, तब भी यूरोपीय संघ के देश उनसे बहुत खुश नहीं थे। अपने प्रथम कार्यकाल में ट्रम्प चाहते थे कि नाटो के यूरोपीय सदस्य अपने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का कम से कम 2 प्रतिशत रक्षा परियोजनाओं में लगाया करें। राष्ट्रपति बनते ही इस बार वे रक्षा परियोजनाओं के लिए हर वर्ष कम से कम 5 प्रतिशत का प्रावधान रखने की मांग करने लगे हैं। यूरोपीय संघ के देश इसे बहुत अधिक मानते हैं। ALSO READ:
प्रश्न यूक्रेन की सहायता का : ट्रम्प के दोबारा राष्ट्रपति बनने से पहले रही जो बाइडन सरकार, रूस के साथ युद्ध में यूक्रेन को उदारतापूर्वक पैसा दे रही थी। इस कारण यूरोपीय देशों का बोझ काफी हल्का हो जाता था। किंतु ट्रम्प, यूक्रेन की सहायता के लिए बाइडन की तरह उत्साहित नहीं दिखते। सितंबर 2024 के अंत तक यूक्रेन को अमेरिका कुल मिलाकर 183 अरब डॉलर की सहायता दे चुका था। यूरोपीय संघ ने भी 241 अरब यूरो देने का आश्वासन दिया था, पर दे पाया 125 अरब यूरो ही। यूरो और अमेरिकी डॉलर इस समय लगभग एक बराबर हैं।
ट्रम्प, अमेरिकी वर्चस्व वाले यूरोप-अमेरिकी सैन्य गठबंधन 'नाटो' की उपेक्षा करना तो नहीं चाहेंगे, पर अपने नए कार्यकाल में वे नाटो को संभवतः उतना महत्व भी नहीं देना चाहते, जितना उनकी पूर्वगामी जो बाइडन की सरकार दे रही थी। ट्रम्प का प्रयास यही होगा कि यूक्रेन क्योंकि यूरोपीय महाद्वीप का एक देश है, इसलिए उसकी सहायता के लिए यूरोप वालों को ही सबसे पहले आगे आकर सहायता का हाथ बढ़ाना चाहिए।
'अमेरिका प्रथम' से यूरोपीय घबराते हैं : ट्रम्प के लिए 'अमेरिका प्रथम' है, यूरोप नहीं। यूरोप वाले उनकी इस 'प्रथमता' से घबराते हैं, क्योंकि अब तक वे यही मानने के आदि थे कि अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी महाश्क्ति होने के कारण उनका सबसे बड़ा स्वाभाविक संरक्षक है। द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद, अमेरिका की पहल पर ही 4 अप्रॆल, 1959 को 'नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन' (उत्तर अटलांटिक संधि संगठन) के नाम से नाटो की स्थापना हुई थी।
नाटो की स्थापना के पीछे मुख्य कारण द्वितीय विश्वयुद्ध पश्चात के यूरोप-अमेरिका का यह डर था कि विस्तारवादी स्टालिन का कम्युनिस्ट सोवियत संघ, पूर्वी यूरोप के देशों में अपने मनपसंद की कम्युनिस्ट सरकारें थोपने के बाद, हो सकता है कि पश्चिमी यूरोप में भी अपने हाथ-पैर फैलाने की कोशिश करे। जर्मनी उस समय एक विभाजित देश था। बर्लिन सहित जर्मनी के पूर्वी हिस्से में उस समय स्टालिन की मनपसंद कम्युनिस्ट सरकार थी।
अमेरिकी सुरक्षा पाने की ललक : उस समय का पश्चिमी जर्मनी और कई अन्य पश्चिमी यूरोपीय देश भी अपने लिए अमेरिकी सुरक्षा का छाता चाहते थे। यह छाता बने 'नाटो' का मुख्यालय पहले पेरिस में हुआ करता था, लेकिन 1967 से बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में है। ब्रसेल्स ही अब यूरोपीय संघ का भी मुख्यालय है। नियमानुसार, नाटो सेनाओं का सर्वोच्च कमांडर हमेशा कोई अमेरिकी सैन्य अधिकारी ही होता है। ब्रसेल्स में यूरोपीय संघ और नाटो के मुख्यालय पास-पास हैं। पर, यूरोप वालों को डर है कि दूसरी बार अमेरिका का राष्ट्रपति बने अक्खड़ स्वभाव के ट्रम्प की नीतियां, दोनों मुख्यालयों के बीच दूरियां बन सकती हैं।