कांग्रेस और दिल्ली की कुर्सी- लगातार तीसरी बार क्यों खाली हाथ पुराना 'सुल्तान'?
The Quint February 09, 2025 07:39 AM

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले

बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

और एक पुराना सुल्तान अतीत में जी रहा था. ख़्वाहिशें हजारों थीं, एक से बढ़कर एक अरमान दिल में लिए बैठा था. लेकिन हाथ क्या लगा? एक बार फिर निराशा. बात कांग्रेस की हो रही है. जिस पार्टी ने 1998 से लेकर 2013 तक, लगातार 15 साल दिल्ली पर शासन किया हो, वो पार्टी बैक-टू-बैक तीसरे विधानसभा चुनाव में वजूद की लड़ाई लड़ रही थी. फिर वही सवाल हाथ के हाथ क्या लगा. 70 में से एक भी सीट नहीं. पिछले दो विधानसभा चुनाव में 0 पर क्लीन बोल्ड होने वाली ग्रैंड ओल्ड पार्टी इस बार भी खाता नहीं खोल पाई है. आपको इसमें भी पॉजिटिव न्यूज खोजना है? हम देते हैं. दिल्ली की सत्ता से आम आदमी पार्टी बाहर हो गई है और कांग्रेस का वोट शेयर 2% ही सही लेकिन बढ़ा है.

कांग्रेस की इस हालात पर दोष किसे दिया जाए? सवाल किससे किया जाए? गोता मारने से पहले सतह पर मौजूद तथ्यों से रूबरू होते हैं.

दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से सभी 70 पर कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार उतारे थे. कांग्रेस पार्टी के नेता माने न माने, चुनाव शुरू से पहले ही पार्टी सरकार बनाने की फाइट में तो नहीं दिख रही थी. जब 5 फरवरी को वोटिंग के बाद एक्जिट पोल भी आए तो पार्टी को अधिक से अधिक 2 सीट मिलने की भविष्यवाणी की गई थी. पार्टी उस भविष्यवाणी को भी सही साबित नहीं कर पाई है. पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली है. पार्टी केवल एक सीट, कस्तूरबा नगर पर दूसरे नंबर पर रही है.

पार्टी ने 2008 के चुनाव में 40.31% वोट शेयर और 43 सीटों पर जीत के साथ सरकार बनाई थी. इस बार पार्टी का वोट शेयर 2020 की तुलना में जरूर बढ़ा है लेकिन अभी भी 7% के नीचे है.

चित होते हुए भी AAP को दिया डेंट?

तमाम बुरी खबरों के बीच कांग्रेस के लिए एक अच्छी खबर भी है. पार्टी ने AAP को दिल्ली की सत्ता से बाहर करने में अपनी भूमिका तो निभा दी है. आप कहेंगे अच्छी खबर क्यों? अब जिसने आपके आधार को ही साफ कर दिया हो, उसके सत्ता से बाहर होने को अच्छी खबर मान ही सकते हैं. कांग्रेस का मानना है कि आम आदमी पार्टी का खात्मा ही दिल्ली में उसके कमबैक का एकमात्र रास्ता है.

हालांकि जिस कीमत पर यह हुआ है, वह भी कम नहीं है. राष्ट्रीय राजनीति में AAP से भी बड़े प्रतिद्वंदी बीजेपी को दिल्ली की कुर्सी मिल गई है.

अगर लोकसभा चुनाव की तरह कांग्रेस और आम आदमी पार्टी एक साथ चुनाव लड़ते तो दिल्ली की कहानी कुछ और होती? अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया से लेकर सौरभ भारद्वाज तक, कम से कम 11 सीटों पर तो ऐसा ही लगता है. इन 11 विधानसभा सीटों पर बीजेपी को मिली जीत का अंतर कांग्रेस को मिले वोटों से कम है. यानी अगर आप और कांग्रेस साथ में चुनाव लड़ती और ये वोटर साथ आ जाता तो 11 सीटें और जोड़कर आम आदमी पार्टी बहुमत के बहुत करीब होती.
AAP और कांग्रेस, 'अनार' एक और खाने वाले दो

दिल्ली में कांग्रेस के कमजोर होने की कहानी 2013 के बाद से आम आदमी पार्टी के उदय के साथ शुरू हुई. 2013 में हुए विधानसभा चुनावों में AAP ने चुनावी डेब्यू किया और दिल्ली विधानसभा में कांग्रेस विधायकों की संख्या पहले की 43 सीटों से घटकर 8 सीटों पर आ गई. इसके वोट शेयर में 15 प्रतिशत की गिरावट आई. जबकि AAP ने करीब 30 फीसदी वोट शेयर के साथ 28 सीटों पर जीत हासिल की.

2015 और 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन और कमजोर हुआ और पार्टी को एक भी सीटें नहीं मिलीं. 2015 में कांग्रेस पार्टी का वोट शेयर घटकर 9.7 फीसदी रह गया. जबकि 2020 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के वोट शेयर में और गिरावट आई जब यह सिर्फ 4.26 प्रतिशत हो गया. 2015 में AAP का वोट शेयर लगभग 54 प्रतिशत था जबकि 2020 में भी यह मामूली गिरावट के साथ 53.57% पर रहा. इस बार भी कांग्रेस को एक सीट नहीं मिली है, हालांकि वोट शेयर में मामूली बढ़त हासिल हुई है.

दिल्ली में एक बात साफ मानी जाती है कि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का वोट बैंक एक ही है- गरीब और निम्न मध्यम वर्ग के वोटर. दोनों एक-दूसरे में ही सेंध लगाते रहते हैं. एक की बढ़त दूसरे की कीमत पर होती है. कुल मिलाकर अनार एक है और खाने वाले दो.
दिल्ली में पार्टी के पास चेहरा नहीं

शीला दीक्षित के बाद दिल्ली में कांग्रेस के पास अपने 'गौरवशाली' अतीत के अलावा दिखाने के लिए कुछ और था नहीं. ऐसा लग रहा था कि पार्टी बस वोटरों से यही गुहार लगा रही थी कि वह शीला दीक्षित के जमाने वाली सरकार को याद करे और उसे वोट डाले. पार्टी का मानना था कि कई वोटर अभी भी उस दौर को बुनियादी ढांचे के विकास के समय के रूप में याद रखेंगे.

लेकिन. सच्चाई यह है कि शीला दीक्षित के जमाने के विपरीत कांग्रेस के पास राजधानी में कोई करिश्माई चेहरा नहीं है. इससे भी बुरी बात यह है कि पार्टी का संगठनात्मक ढांचा कमजोर है और जमीनी स्तर का कैडर पिछले कुछ सालों में काफी कमजोर हो गया है. कई नेता या तो बीजेपी या में AAP चले गए हैं.

पार्टी ने किसी को सीएम कैंडिडेट के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किया. पार्टी करने की स्थिति में भी नहीं थी. जो सबसे बड़े नेता माने जा रहे थे, शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित उनको भी नई दिल्ली सीट पर मुश्किल से 5000 वोट मिले हैं. हार मानने में भी संदीप दीक्षित ने देरी नहीं की. 6-7 राउंड की काउंटिंग के बाद ही उन्होंने कह दिया कि "इस समय तो ऐसा लग रहा है कि बीजेपी की सरकार बन रही है... ये जनता का फैसला है. अंत में जनता जो कहेगी वह मंजूर है."
नैरेटिव बनाने के खेल में पिछड़ना

AAP अरविंद केजरीवाल के चेहरे के साथ अपने गर्वनेंस मॉडल को सामने रखती रही और कांग्रेस की पिछली उपलब्धियों पर ग्रहण लगाती रही. वहीं बीजेपी के पास भले दिल्ली में केजरीवाल के कद का नेता नहीं था लेकिन वह अपने आलाकमान के चेहरे के साथ बदलाव वाले नैरेटिव से वोटरों को प्रभावित कर रही थी.

लेकिन इन सबके बीच जनता को कांग्रेस क्या ऑफर कर रही थी? राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो अल्पसंख्यकों और गरीब-मीडिल क्लास के बीच कांग्रेस का जो पारंपरिक वोट बैंक था, वह AAP की कल्याणकारी योजनाओं को देखकर उसकी ओर हो चला. इस वोट बैंक को पिछले 13 सालों से AAP के रूप में कांग्रेस का नया विकल्प मिल गया है और कांग्रेस 'आइडेंटिटी क्राइसिस' की स्थिति में है.

हालांकि जिस तरह से आम आदमी पार्टी को खुद करारी हार का सामना करना पड़ा है, यह साफ दिख रहा है कि पार्टी से दिल्ली की जनता का मोहभंग हुआ है.

© Copyright @2025 LIDEA. All Rights Reserved.