प्रहलाद अग्रवाल के किताब राजकपूर : आधी हकीकत आधा फसाना का एक अंश, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
‘जोकर’ 1970 के दिसम्बर में अखिल भारतीय स्तर पर एक साथ प्रदर्शित हुई। प्रत्यक्ष रूप से तो इसके निर्माण में लगभग छह वर्षों का समय और एक करोड़ रुपया लगा था, किन्तु अप्रत्यक्ष रूप से राजकपूर की पूरी जिन्दगी इस सपने के साथ जुड़ी हुई थी। ‘जोकर’ अपने समय की सबसे महँगी फिल्म थी और निश्चय ही राजकपूर इसके माध्यम से लूटने के लिए नहीं, अपने कलाकार की मुक्ति की उद्दाम आकांक्षा से उद्वेलित होकर निकले थे। ‘जोकर’ का तमाशा लगातार लोगों ने सराहा था, उसे सिर-आँखों पर बिठाया था, लेकिन उसकी अन्दरूनी पीड़ा से तादात्म्य स्थापित करने से उन्होंने कतई इनकार कर दिया। ‘जोकर’ में वे उस मसखरे को नहीं ढूँढ़ पाए जिसकी तलाश में वे लम्बी-चौड़ी उम्मीदें लगाए सिनेमाघरों तक खिंचे चले आए थे। प्रेम जो राजकपूर की हर फिल्म की अदम्य शक्ति है, ‘जोकर’ में सामान्यीकृत होकर इतने विशाल धरातल पर फैल गई है कि वह किसी बँधे-बँधाए चौखटे में कैद नहीं रह पाती, अपितु सारी दुनिया उसकी भागीदार बन जाती है। प्रेम का इतना विस्तृत और मानवीय विकास होता है कि उसका फलक बढ़कर ‘आई विल मेक क्राइस्ट लाफ’ तक पहुँच जाता है।...