कांस घास, जिसे आयुर्वेद में सुगंधित के नाम से जाना जाता है, अक्सर बाग-बगिचों या खेतों में अपने आप उग आता है। इसे सामान्यतः एक बेकार घास समझा जाता है, लेकिन आयुर्वेदिक ग्रंथों में इसे एक महत्वपूर्ण औषधीय पौधे के रूप में मान्यता प्राप्त है। इसका उपयोग मूत्र संबंधी विकार, रक्तस्राव, पाचन समस्याओं और महिलाओं से संबंधित कई स्वास्थ्य मुद्दों के उपचार में किया जाता रहा है। हाल के समय में, इसके उपयोग को जोड़ों के दर्द और टीबी जैसे गंभीर रोगों के आयुर्वेदिक उपचार में भी देखा गया है।
आयुर्वेद के अनुसार, वात दोष के असंतुलन के कारण होने वाले जोड़ों के दर्द के लिए वातहर और मूत्रल गुणों वाले पौधों का उपयोग किया जाता है। कांस घास में ये गुण मौजूद हैं, जो शरीर से विषाक्त तत्वों को बाहर निकालने और सूजन को कम करने में मदद करते हैं। कुछ पारंपरिक चिकित्सक इसके पत्तों और जड़ों से बने काढ़े को गठिया जैसी समस्याओं में फायदेमंद मानते हैं। हालांकि, इसे मुख्य चिकित्सा के रूप में नहीं, बल्कि सहायक उपचार के रूप में देखा जाना चाहिए।
टीबी, जिसे आयुर्वेद में क्षय रोग कहा जाता है, एक गंभीर संक्रामक बीमारी है। आयुर्वेद में ऐसे पौधों की खोज की जाती है जो रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने और संक्रमण से लड़ने में मदद करें। कांस घास में कुछ प्राकृतिक तत्व होते हैं जो शरीर को ठंडक प्रदान करते हैं, रक्तस्राव को रोकते हैं और श्वसन मार्ग को राहत देते हैं। हालांकि, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह स्पष्ट नहीं है कि कांस घास टीबी के उपचार में कितना प्रभावी है, लेकिन इसे सहायक जड़ी-बूटी के रूप में देखा जा सकता है।
आयुर्वेद के अनुसार, कांस घास महिलाओं में स्तनपान की क्षमता को बढ़ाने, अत्यधिक रक्तस्राव को रोकने और मासिक धर्म की अनियमितताओं में लाभकारी मानी जाती है। इसे आयुर्वेदिक टॉनिक के रूप में उपयोग किया जाता है, जिससे शरीर में पोषण और शक्ति बढ़ती है। इसके अलावा, यह पाचन को सुधारने में भी सहायक है, जिससे शरीर में वात और पित्त का संतुलन बना रहता है।
हालांकि कांस घास के कई आयुर्वेदिक लाभ हैं, लेकिन इसका उपयोग करते समय विशेषज्ञ की सलाह लेना आवश्यक है। विशेष रूप से यदि आप किसी गंभीर रोग जैसे टीबी या गठिया से ग्रसित हैं, तो केवल घरेलू नुस्खों पर निर्भर न रहें। इसके उपयोग से पहले चिकित्सकीय सलाह लेना महत्वपूर्ण है।