कभी-कभी रिश्तों की जटिलता और भावनाओं के फेर में सच और झूठ की लकीर धुंधली हो जाती है। ऐसा ही एक मामला ग्वालियर हाईकोर्ट में सामने आया, जहां एक महिला द्वारा लगाए गए दुष्कर्म के आरोपों में अदालत ने आरोपी को जमानत दे दी — लेकिन फैसले का आधार बेहद चौंकाने वाला था।
चार साल का साथ, लेकिन क्या वाकई था 'वादा'?महिला ने शिकायत दी कि वह चार वर्षों तक आरोपी शुभम पटेल के साथ रही। इस दौरान उसने शादी का वादा किया और कई बार शारीरिक संबंध बनाए, जो अब उसके मुताबिक "दुष्कर्म" की श्रेणी में आता है। महिला का आरोप है कि बाद में आरोपी ने जान से मारने की धमकी देकर उसे भगा दिया।
फैसला पलट गया जब खुलने लगे पुराने दस्तावेजजब यह मामला हाईकोर्ट पहुंचा, तो आरोपी शुभम ने चौंकाने वाला दावा किया — कि महिला पहले से ही शादीशुदा है, और वो भी एक नहीं बल्कि दो पुरुषों के साथ! उसने बैंक पासबुक और अन्य दस्तावेजों के जरिए बताया कि महिला एक बार खुद को "अंकित राठौर" की पत्नी बता चुकी है और दूसरी बार "सूरज" की।
इस पर अदालत ने सवाल उठाया: "जो महिला पहले से ही शादीशुदा है, उसे कोई शादी का झांसा आखिर कैसे दे सकता है?" यह सवाल न केवल कानूनी रूप से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह सामाजिक सोच को भी झकझोरता है।
जमानत पर रिहाई और व्यापक बहसआरोपी को सबूतों और परिस्थितियों के आधार पर जमानत मिल गई। हाईकोर्ट का फैसला यह संकेत देता है कि केवल महिला का आरोप पर्याप्त नहीं, जब तक कि उसके पीछे स्थायी और सुसंगत साक्ष्य न हों।
यह मामला कई गहरे सवाल उठाता है:
क्या भावनात्मक संबंध टूटने पर बाद में "दुष्कर्म" का आरोप लगाया जा सकता है?
शादीशुदा महिला द्वारा शादी का वादा स्वीकार करना क्या कानूनी तौर पर तर्कसंगत है?
क्या रिश्तों की पेचीदगी अब कानून को भी उलझा रही है?
यह घटना बताती है कि अब केवल आरोपों के आधार पर किसी को दोषी ठहराना कठिन होता जा रहा है। अदालतें अब हर पक्ष के दस्तावेज, रिश्तों की पृष्ठभूमि और घटनाक्रम की निरंतरता को ध्यान में रखकर निर्णय ले रही हैं।
यह केस आने वाले समय में 'रिश्तों के भ्रम और कानून के सच' पर नई बहस को जन्म दे सकता है — जिसमें यह तय करना और भी जरूरी हो जाएगा कि वाकई 'पीड़िता' कौन है और 'आरोपी' कौन।