साल 1989. दिसंबर महीने की दूसरी तारीख. विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के नए प्रधानमंत्री बने. उन दिनों शनिवार और रविवार की शाम में दूरदर्शन पर पुरानी क्लासिक फिल्में दिखाई जाती थी. वीपी सिंह के पीएम बनने के कुछ ही दिनों के बाद दूरदर्शन पर एक फिल्म दिखाई गई, जिसका नाम था- मिली. निर्देशक- ऋषिकेश मुखर्जी. सितारे- अमिताभ बच्चन, जया बच्चन, अशोक कुमार, अरुणा ईरानी आदि. मुझे याद है सपरिवार हम सभी ने वह फिल्म बड़े ही चाव से देखी और ज़ंजीर, अभिमान में अमिताभ-जया की जोड़ी से लेकर उनकी शादी आदि के बारे में खूब चर्चा होती. राजेश खन्ना के कैंसरग्रस्त आनंद के किरदार से पर्निशियस एनीमियाग्रस्त मिली किरदार की तुलना होती. मैं भी रुचि लेता. इस फिल्म का गाना- मैंने कहा फूलों से हंसो तो खिल खिलाकर हंस दिए… भी गुनगुनाते. योगेश के लिखे और लता मंगेशकर का गाया वह मधुर गीत आज भी कानों में रस घोलता है और उस गाने पर जया बच्चन की चुलबुली अदायगी की झलकियां बिजली की तरह कौंधती है. उस मोहन मुस्कान की परतों में दबी थी- एक बेहद खतरनाक पीड़ा.
मिली फिल्म प्रसारण के करीब दो दिन बाद ही अखबार में छपे अमिताभ बच्चन के एक बयान ने मुझे चौंका दिया. वह मुझे शब्दश: याद है. उस खबर में अमिताभ बच्चन ने कहा था ‘दूरदर्शन पर मिली को अभी दिखाया जाना मेरे खिलाफ साजिश का एक और उदाहरण है. यह चरित्र हनन करने का प्रयास है.’ सच कहूं- उस वक्त अमिताभ बच्चन की वह बात समझ नहीं आ सकी. मैं उतना बड़ा भी नहीं था कि इसे ठीक से समझ सकूं. हालांकि इतना मालूम था कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स तोप सौदे के घोटाले का मामला जोर-शोर से उठाया था. उनके निशाने पर थे- पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और इलाहाबाद से सांसद बने अमिताभ बच्चन. लेकिन मिली का प्रसारण किस प्रकार से उनके खिलाफ साजिश थी, वह बात बहुत सालों के बाद समझ आई. इसे हम आपको इस आर्टिकल में आगे बताएंगे.
अमिताभ-जया की कैमेस्ट्री की सदाबहार फिल्मपहले बात इस फिल्म की कर लेते हैं. ऋषिकेश मुखर्जी की क्लासिक फिल्म मिली के रिलीज के पचास साल पूरे हो गए हैं. तारीख थी- 20 जून, सन् 1975. मिली पूरी तरह से अमिताभ और जया की शादी के बाद बनी फिल्म थी. लिहाजा इसका अलग चार्म था. बंसी बिरजू, एक नज़र, ज़ंजीर या अभिमान जैसी फिल्में जया-अमिताभ की शादी से पहले की थीं और शादी के बाद मिली और शोले में नजर आए, तो दर्शकों में इस कैमेस्ट्री को देखने का अपना एक अलग ही आकर्षण था. मिली के संवाद मशहूर लेखक राही मासूम रज़ा ने लिखे थे. फिल्म को फिर से देखिए, याद आएगा- अमिताभ-जया के संवादों में कैसे कविता पिरोई हुई है. यही नहीं, ऋषिकेश मुखर्जी ने मिली में भी वही दर्द भरे जो चार साल पहले आनंद में. गोयाकि आनंद में भी अमिताभ बच्चन थे.
मिली भी आनंद की तरह एक कविताई पेशकश थी. यहां दो प्रेमियों की मासूम-सी कहानी दिखाई गई थी. जहां जिंदगी बड़ी सूनी-सूनी-सी है तो महकते-खिलते फूलों की बहार भी. जया का किरदार खुद जानलेवा बीमारी से ग्रस्त है लेकिन वह दूसरों को हंसाना और जिंदादिली सिखाना बखूबी जानती है. वहीं अमिताभ बच्चन का किरदार शराबी, चिड़चिड़ा और अपने एक दुर्दांत अतीत से परेशान रहने वाले शख्स का है. एक ऐसा अतीत जो हर जगह उसका पीछा करता है. एक ऐसा अतीत जिसे वह सच नहीं मानता. यह अतीत ही कहानी की सबसे बड़ी बुनियाद है. लेकिन उस अतीत के बरअक्स एक नया वर्तमान फूलों का गुलदस्ता लिये खड़ा हो जाता है, यही मिली है, जिसका प्रेमिल व्यवहार उसे जिंदगी का नया पाठ सिखाता है. मिली कहती है- शेखर बाबू, कुछ लोग दूर तारों की दुनिया में खोये रहते हैं, लेकिन आस-पास क्या हो रहा है, उसकी जानकारी नहीं रखते.
जी हां, शेखर दयाल. यही नाम है अमिताभ बच्चन के किरदार का. उसे विज्ञान में खासी दिलचस्पी है. दूरबीन से तारों, ग्रहों को देखना शौक है और पेशा भी. वह अतीत की दुर्दांत यादों को भूलने के लिए खुद को शराब में डुबो कर रखना चाहता है, ऊंचे स्वर में संगीत सुनता है, आस-पास की दुनिया से कटकर सितारों की दुनिया में अकेला खोया रहता है ताकि उसका अतीत उसे बार-बार याद न आए लेकिन जब उसकी सोसायटी के लोग उसके माता-पिता के बारे में बातें करते हैं तो वह आपा खो बैठता है. ऐसे में उसकी पड़ोसन मिली उसे बड़ा संबल देती है. वह भूल जाती है कि उसकी जिंदगी भी मानो दर्द का गुलदस्ता है लेकिन वह शेखर दयाल का सच जानने के बाद वह उससे और भी सहानुभूति रखती है. एक समय के बाद दोनों एक-दूसरे के बिना रह नहीं पाते, एक-दूसरे की जरूरत बन जाते हैं, पूरक हो जाते हैं.
सन् 1973 की ज़ंजीर से अमिताभ बच्चन की छवि बदल गई थी. उनके किरदार में तेवर अपनी अलग पहचान बनाने लगे थे. मिली में उनके शेखर दयाल वाले किरदार में गुस्से की आग नहीं थी लेकिन अभिमान के सुबीर कुमार की तरह दबी चिंगारी जरूर थी. हंसमुख चुलबुली मिली के प्रभाव में वह शराब पीना ही नहीं छोड़ता बल्कि गुस्सा करना भी भूल जाता है. दोनों एक दूसरे के करीब आते हैं. फूलों के गुलदस्ता और उस गुलदस्ते में प्रेम पत्रों के आदान-प्रदान का सिलसिला आगे बढ़ता है. इसी बीच मिली की बीमारी खतरनाक मोड़ पर आ जाती है. वह बेड पर है. डॉक्टर ने उसकी जिंदगी की आखिरी तारीख लिख दी है. ऐसे में शेखर दयाल सामने आता है और कहता है- जिसने उसकी जिंदगी बदल दी, वह उसे भी खुशियां देना चाहता है, चाहे वह कुछ दिनों के लिए क्यों न हो. शेखर मिली से शादी करके उसके आगे के इलाज के लिए स्वीटजरलैंड ले जाता है. यहां कहानी खत्म होती है.
‘मिली’ में राजेश खन्ना की ‘आनंद’ वाली टीसआपको याद होगा 1971 में आई ऋषिकेश मुखर्जी की ही एक फिल्म ‘आनंद’ की कहानी एक ऐसे शख्स की थी, जो चंद दिनों का मेहमान है. उसे जानलेवा कैंसर हो चुका है लेकिन वह जिंदादिल है. उसकी जिंदगी की फिलॉस्फी है- जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं. लेकिन बीमार मिली में भरपूर ऊर्जा है, जोश है, वह जीना चाहती है और दूसरों की उदास जिंदगी में भी उमंग के रंग भरना जानती है. वयस्क होकर भी बच्चों के संग खेलती है, बजुर्गों में घुलमिल जाती है और अपने हमउम्र को नाराज नहीं करना चाहती. वह जीवन के प्रति आशावादी है. फिल्म के एक सीन में अमिताभ और जया एक दूसरे की हस्तरेखाएं देख रहे हैं. और एक दूसरे की उम्र, सेहत और मिजाज के बारे में हंसी मजाक कर रहे हैं. यहीं पर मिली कहती है- वह जीना चाहती है, यह जानते हुए भी कि उसकी जिंदगी एक त्रासदी से भरी है. पड़ोसी के रूप में अमिताभ को पाकर जीवन के प्रति उसका उत्साह और भी दोगुना हो जाता है.
दोनों फिल्म का अंत एक जैसा होकर भी एक जैसा नहीं. आनंद इन पंक्तियों से समाप्त होती है कि “आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं” लेकिन मिली उम्मीदों की उड़ान के नोट पर खत्म होती है. वहीं आनंद में जहां यह प्रारंभ से ही पता रहता है कि उसका जीवन इतने दिनों तक सुनिश्चित है, वहीं मिली के क्लाईमैक्स में स्विट्जरलैंड की उड़ान भरने के ही साथ जीवन की संभावना बढ़ जाती है. फिल्म के अंत में यह नहीं बताया गया है कि मिली का क्या हुआ लेकिन स्विट्जरलैंड की उड़ान में यह उम्मीद निहित होती है कि विदेश में इलाज के बाद संभवत: वह बच गई होगी.
पूर्व पीएम वीपी सिंह को क्यों याद आई मिली?यह बात मुझे बहुत बाद में पता चली. हालांकि जब पता चली तो मैं दोबारा चौंका- वाकई उस नजरिये से दूरदर्शन पर मिली का प्रसारण आखिर कितना उचित था. या कि उसका क्या मायने था. कहानी तो अतीत के दंश और वर्तमान के दर्द की है. एक का दंश और दूसरे का दर्द मिलकर किस प्रकार एक दूसरे के लिए फूलों का गुलदस्ता बन जाते हैं-एकाकीपन को दूर करते हैं- फिल्म में तो यह दिखाया गया है. लेकिन ये कैसी राजनीतिक मंशा थी.
अब सीधे मूल मुद्दे पर आते हैं. फिल्म की कहानी के मुताबिक अमिताभ बच्चन का किरदार शेखर दयाल उस शंकर दयाल का बेटा है, जिसने अपनी पत्नी की गोली मार कर हत्या कर दी थी. फिल्म में बार-बार संवादों के जरिए इसकी वजह भी बताई गई है. बताया यह गया है कि शंकर दयाल की पत्नी और उसके सेक्रेटरी के बीच नाजायज संबंध थे. जब ये बात शंकर दयाल को पता चली तो उसने सबसे पहले पत्नी को गोली मारी फिर सेक्रेटरी को. बाद में उनको फांसी हो गई. उस वक्त शेखर दयाल छोटा था. जिसे उसके घरेलू नौकर में पढ़ा लिखाकर बड़ा किया.
इसके बाद वह बचपन से ही अपने मां-बाप की इस कहानी को जहां भी जिसकी जुबान से सुनता, आग बबूला हो जाता. और घर बदल लेता. हालांकि उसे पता था कि उसकी मां सीता की तरह पवित्र थी. फिल्म में अमिताभ एक जगह कहते हैं- उसकी मां का नाम भी सीता था. स्त्री कितना भी चाह ले खुद को निर्दोष साबित नहीं कर सकती, उसे अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है.
जब ये सारी कहानी मिली को मालूम होती है तो वह शेखर से खासी हमदर्दी रखने लगती है. शेखर की जिंदगी किसी अपने का प्यार पाकर चहक उठती है. वह मिली से डांट खाकर कहता है- वाह मजा आ गया. आज पहली बार किसी ने मुझे इतने प्यार से डांटा है. कुल मिलाकर राजनीतिक प्रतिशोध में मिली के प्रसारण के पीछे चरित्र हनन की ही मंशा छिपी थी. फिल्म के असली मकसद को समझा गया होता तो शायद वह समय नहीं चुना जाता.
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