ब्लाउज के बिना पहनी जाती थी साड़ी, ये ऐसे बना भारतीय पहनावे का हिस्सा
TV9 Bharatvarsh June 29, 2025 10:42 PM

साड़ी भारत में पारंपरिक पहनावा है और ये न सिर्फ भारतीय महिलाओं की पहली पसंद है, बल्कि विदेशों में भी साड़ी को खूब पसंद किया जाता है. साड़ी के साथ ब्लाउज सबसे जरूरी पेयर है और इसी से लुक कंप्लीट होता है. इससे लुक में शालीनता को जोड़ने के तौर पर देखा जाता है. बहुत सारी ऐसी एक्ट्रेस हैं जिन्होंने फिल्मों में बिना ब्लाउज के साड़ी को वियर किया है या फिर फोटोशूट भी करवाया है, लेकिन अगर रियल लाइफ में कोई इस तरह से साड़ी को पहने तो ये काफी अजीब लगेगा, लेकिन क्या आपको पता है कि पहले के टाइम में साड़ी को बिना ब्लाउज के ही पहनते थे. प्राचीन समय में महिलाएं अपने शरीर के ऊपरी हिस्से को ढकने के लिए साड़ी को रैप करके स्टाइल करती थीं. ब्लाउज भारतीय महिलाओं के पहनावे में इतना घुल-मिल गया है कि इसे यहीं का परिधान माना जाता है, जबकि ये ब्रिटिश शासन के दौरान डेवलप हुआ था.

19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध (बीच का समय) में ब्लाउज का विकास हुआ और 20वीं सदी की शुरुआत महिलाओं के पहनावे में बदलाव के लिए बेहद महत्वपूर्ण समय था. पहले के टाइम की पेंटिंग्स और मूर्तिकला में भी इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि महिलाएं एक टाइम पर या तो बिना सिले कपड़े से ही ऊपरी हिस्से को भी ढकती थीं या फिर इस हिस्से में गहने पहने जाते थे. इसका आर्टिकल में हम जानेंगे कि कैसे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ब्लाउज पहनने का चलन बढ़ा और कैसे इसमें बदलाव होते गए. ये विक्टोरियन फैशन से प्रभावित था जो पहनावे में शिष्टाचार को समावेशित करता था.

प्राचीन काल के पहनावे पर एक नजर

किसी भी जगह के भौगोलिक जलवायु भी पहनावे पर काफी असर डालती है. भारतीय उपमहाद्वीप में उष्णकटिबंधीय जलवायु होने की वजह से स्वाभाविक तौर पर लोग ढीले कपड़े पहनते थे ताकि बहुत गर्मी से बचा जा सके. प्राचीन संस्कृतियों में शरीर के खुले रहने को नकारात्मक तरीके से नहीं देखा जाता था और ये काफी स्वाभाविक था, लेकिन समय के साथ जैसे-जैसे कुछ धर्मों की शुरुआत और प्रचार हुआ तो इसे वर्जित और पाप जैसी चीज माना जाने लगा. डेविड बेरेनब्लैट की बुक “द मिथ ऑफ सिन” में यह विचार लिखा गया है कि नग्नता को पाप मानने का विचार अब्राहम धर्मों के उदय के साथ आया था.

महिलाओं के पहनावे में बदलाव

महिलाओं के पहनावे में बदलाव

मुगल राजवंश के दौरान महिलाओं के पहनावे में एक बड़ा बदलाव देखा गया. हमारे देश में कई विदेशी आक्रमण कारी आए हैं और लंबे समय तक रहे हैं. इस वजह से देश की संस्कृति से लेकर पहनावे और परिवेश में भी बदलाव हुए. 13वीं शताब्दी के दौरान कपड़े पहने के स्टाइल में कुछ थोड़े बहुत चेंज आए, दरबारों में शाही महिलाएं ऊपर जाम जैसे लंबा लबादा पहना करती थीं, क्योंकि उस संस्कृति में शरीर को पूरी तरह से ढके रहने की सलाह दी जाती थी.

अंतरिया और उत्तरिय वस्त्र

ब्लाउज की शुरुआत होने से पहले हम जान लेते हैं. महिलाओं द्वारा पहने जाने वाली वस्तर अंतरिया और उत्तरिय के बारे में. शुरुआती दिनों में महिलाएं शरीर के ऊपरी हिस्से को ढकने के लिए कई जगहों पर अंतरिया भी पहना करती थीं और निचले हिस्से को ढकने वाले कपड़े को उत्तरिय कहा जाता था. ये दोनों ही वस्त्र बिना सिले हुआ करते थे. बाद में उत्तरिया दुपट्टे, साड़ी या फिर स्कर्ट (घाघरा) बन गया और अंतरिया में बदलाव होते हुए ‘चोली’ (सिलने के बाद) के रूप में विकसित हुआ.

ब्लाउज और पेटीकोट जैसे शब्द हैं विदेशी

अंग्रेजों ने सदियों तक भारत पर शासन किया और पेटीकोट-ब्लाउज जैसे शब्द भारतीय पारंपरिक परिधान का हिस्सा नहीं है बल्कि ये विदेशी विचार हैं. इस दौरान कपड़ों के स्टाइल में काफी चेंज आए. 19वीं सदी में एक नया सामाजिक और सांस्कृतिक चलन बदल रहा था और इस दौरान महिलाओं को सशक्त बनाने के साथ ही समाज में उनकी स्थिति को बेहतर बनाने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए गए थे. जैसे महिलाओं को शिक्षित करना, विधवा पुनर्विवाह, कुलीन प्रथाओं को बंद करना जैसे सुधार होने शुरू हुए. इसका असर ये था कि महिलाएं अब घर के बाहर सार्वजनिक जगहों पर भी शिरकत करने लगीं.

उपनिवेशीकरण का महिलाओं के कपड़ों पर असर

परंपरागत रूप से, साड़ी को बिना ब्लाउज के पहना जाता था या फिर बिना सिले कपड़े से ऊपरी हिस्से को ढका जाता था, लेकिन इस वजह से शरीर को एक बड़ा हिस्सा खुला हुआ दिखाई देता था जो विक्टोरियन विचारों से फिट नहीं बैठता था और इससे उस सोच में असहजता पैदा हुई. उपनिवेशीकरण के दौरान सुधार आंदोलनों का नेतृत्व करने वाले भारतीय लोगों को भी इस बात की चिंता थी कि अगर महिलाओं को बाहर निकलना हो तो पश्चिमी समाज के हिसाब से कपड़ों में सुधार करना बेहद जरूरी था. इस तरह से महिलाओं के परिधान में बदलाव के लिए एक विचार की शुरुआत हुई.

इस महिला ने किया बदलाव

महिलाओं के पहनावे में एक अकेली महिला ने सबसे महत्वपूर्ण बदलाव किया था जो उनकी निजी जिंदगी के अनुभव से प्रेरित था. इस महिला का नाम था ज्ञानदानंदिनी देवी, जिन्होंने महिला सशक्तिकरण के शुरुआती चरण को बेहद प्रभावित किया था. उनके पति सत्येंद्र नाथ टैगोर थे जो भारतीय सिविल सेवा में नियुक्त होने वाली पहले इंडियन थे. अपने पति के साथ ज्ञानदानंदिनी ने पश्चिमी देशों की यात्रा भी की थी और कहा जाता है कि किसी अवसर पर उन्हें क्लह में एंट्री देने से मना कर दिया गया था, क्योंकि वहां के परिवेश के हिसाब से कपड़े उचित नहीं थे और इस घटना ने ज्ञानदानंदिनी देवी देवी को परिधान में महत्वपूर्ण बदलाव लाने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने पारसी महिलाओं की प्रचलित पोशाक से प्रभावित होकर साड़ी को बीच से मोड़कर पहनना शुरू किया और उसके बचे हिस्से को खींचकर बाईं ओर से ऊपरी हिस्से पर लपेटकर पहना और कुछ हिस्सा पीछे की ओर लटका छोड़ दिया. साड़ी की ड्रेपिंग स्टाइल इस तरह से करने का मतलब था कि पेटीकोट और ब्लाउज को भी पहनावे में शामिल करना आवश्यक हो गया.

ब्लाउज के डिजाइनों में बदलाव

शुरुआत में जब महिलाओं ने ब्लाउज या चोली पहनना शुरू किया था तो उसमें ऊंचे कॉलर, रिबन, क्रोच आदि कई चीजें लगी होती थीं और बहुत ऊंचे वर्ग के परिवारों की महिलाएं अक्सर पश्चिमी गाउन के फ्लेयर्ड और ड्रेप से इंस्पायर होकर साड़ी पहनती थीं. रॉयल फैमिली की महिलाएं पश्चिमी प्रभावों से काफी इन्फ्लुएंस हुईं और खासतौर पर वे जिन्होंने कलाकारों के साथ अपनी सोशल लाइफ ज्यादा स्पेंड की. इस तरह से उन्होंने खुद को बोलचाल से लेकर कपड़ों के पहनने के तरीके में भी ढाला. बाद में भारतीय कारीगरों ने ब्लाउज में बदलाव करते हुए जरी का काम और अलग-अलग तरह की एम्ब्रॉयडरी से इसे सुसज्जित किया.

लंबा रहा है सफर और मंजिल भी बाकी हैं…

हमारे देश में ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में महिलाओं के शरीर को ढकने और उन्हें कपड़ों में फिट करने से को लेकर सदियों से एक अलग तरह की सोच या कहें कि विवादित नजरिया रहा है. सांस्कृतिक मतभेदों से लेकर राजनीतिक माहौल तक परिधान पहनने की तरीके से लेकर अधिकारों तक महिलाओं ने हर एक छोटी चीज में बदलाव के लिए लंबा सफर तय किया गया है. आधुनिकता हो या पुरानी परंपरा अगर आप एक महिला हैं तो सफर तय करती रहिए मंजिल अभी बाकी हैं. रुकना नहीं है और थकना नहीं है.

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