गलत टर्मिनेशन पड़ा महंगा! दिवालिया हो गई कंपनी फिर भी कर्मचारी को देने पड़े 13 लाख, जानें पूरा मामला
TV9 Bharatvarsh October 22, 2025 01:42 PM

एक कर्मचारी की नौकरी चली जाती है. वह अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए सालों तक कानूनी लड़ाई लड़ता है. जब वह केस जीतता है, तब तक उसकी कंपनी दिवालिया हो जाती है. ऐसे में क्या उसे उसका हक़ मिलेगा? यह सवाल हर नौकरीपेशा इंसान के मन में कौंध सकता है. कर्नाटक हाईकोर्ट ने हाल ही में एक ऐसा फैसला सुनाया है, जो ऐसे ही एक कर्मचारी के लिए बड़ी राहत लेकर आया है. अदालत ने एक कर्मचारी को 13 लाख रुपये मुआवजा देने का आदेश दिया है, जबकि कंपनी अब बंद हो चुकी है.

एक लंबी लड़ाई के बाद मिली जीत

यह कहानी श्री राव की है, जिन्होंने 23 अक्टूबर 1999 को एक कंपनी में कस्टमर सर्विस असिस्टेंट के तौर पर काम शुरू किया था. छह महीने के प्रोबेशन के बाद, 23 जुलाई 2000 को उनकी नौकरी पक्की (confirm) हो गई. वे कंपनी के बेंगलुरु ब्रांच में अपनी सेवाएं दे रहे थे और कई साल बीत गए.

लेकिन, एक दिन एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी, जिसके लिए कंपनी ने कथित तौर पर राव को जिम्मेदार मान लिया. कंपनी ने राव की कथित भूमिका की जांच के लिए उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही (disciplinary proceedings) शुरू की. यह जांच 30 अगस्त 2008 को राव की बर्खास्तगी के साथ खत्म हुई. उन्हें ‘कदाचार’ (misconduct) के आरोप में नौकरी से निकाल दिया गया.

लेबर कोर्ट ने माना ‘गलत बर्खास्तगी’

राव ने इस फैसले को चुपचाप स्वीकार नहीं किया. उन्होंने अपनी बर्खास्तगी को सेंट्रल गवर्नमेंट एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल-कम-लेबर कोर्ट में चुनौती दी (C.R.No.35/2009). यह कानूनी लड़ाई कई सालों तक चली. आखिरकार, 13 जनवरी 2017 को लेबर कोर्ट ने एक विस्तृत फैसला सुनाया.

कोर्ट ने अपने फैसले में माना कि राव के खिलाफ की गई जांच की प्रक्रिया सही नहीं थी. कोर्ट ने यह भी कहा कि कंपनी द्वारा पेश किए गए तमाम सबूतों और गवाहों पर बारीकी से विचार करने के बाद यह पाया गया कि कंपनी, राव पर लगाए गए आरोपों को साबित नहीं कर पाई है.

इस आधार पर, अदालत ने राव की बर्खास्तगी के आदेश को अवैध और अनुचित ठहरा दिया. ट्रिब्यूनल ने कंपनी को आदेश दिया कि राव को नौकरी पर तुरंत वापस (reinstatement) लिया जाए, उन्हें 50% बकाया वेतन (back wages) दिया जाए. साथ ही उन्हें सेवा की निरंतरता (continuity of service) और अन्य सभी लाभ भी दिया जाए.

कंपनी हुई दिवालिया, फिर भी मिलेगा राव को पैसा

मामला यहां खत्म नहीं हुआ. इस फैसले के खिलाफ जब अपील हुई, तो अदालत ने 20 अप्रैल 2017 को एक अंतरिम आदेश (interim order) जारी किया. इस आदेश में नियोक्ता (कंपनी) को 13 लाख रुपये (जो 50% बैक वेज की अनुमानित रकम थी) अदालत में जमा कराने को कहा गया.

इस बीच, राव ने भी कुछ अंतरिम राहतों के लिए अपील की. 22 नवंबर 2017 को कोर्ट ने उन्हें गुजारा-भत्ता के तौर पर उनके अंतिम वेतन का 30% भुगतान करने का आदेश दिया. कानूनी लड़ाई चलती रही. राव अपनी नौकरी बहाली और 13 लाख रुपये के अंतिम फैसले का इंतजार कर रहे थे, तभी कहानी में एक बड़ा मोड़ आया.

जिस कंपनी के खिलाफ वे लड़ रहे थे, वह दिवालिया (insolvent) घोषित हो गई. सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद कंपनी लिक्विडेशन (liquidation) में चली गई, यानी उसकी संपत्तियों को बेचकर कर्ज चुकाने की प्रक्रिया शुरू हो गई.

कर्मचारी का हक़ पहले, दिवालियापन बाद में

यह मामला (WP No. 15526 of 2017) कर्नाटक हाईकोर्ट पहुंचा. 25 सितंबर 2025 को कोर्ट ने एक बेहद महत्वपूर्ण और तर्कसंगत फैसला सुनाया.

हाईकोर्ट ने सबसे पहले लेबर कोर्ट के 2017 के फैसले की समीक्षा की. कोर्ट ने माना कि लेबर कोर्ट का फैसला पूरी तरह सही, तर्कसंगत और सबूतों पर आधारित था. ट्रिब्यूनल ने सभी गवाहों और सबूतों को बारीकी से परखा और सही निष्कर्ष निकाला कि कर्मचारी पर लगे आरोप साबित नहीं हुए थे. हाईकोर्ट ने कहा कि उन्हें इस फैसले में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं दिखता.

हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि चूंकि कंपनी अब लिक्विडेशन में है और कोई कारोबार नहीं कर रही, इसलिए नौकरी पर बहाली (reinstatement) का आदेश अब लागू नहीं किया जा सकता. यह राहत अव्यावहारिक (untenable) हो गई थी.

कोर्ट ने कहा कि कर्मचारी का यह हक़ 13 जनवरी 2017 को (जिस दिन लेबर कोर्ट ने फैसला सुनाया था) तय हो गया था. महत्वपूर्ण बात यह है कि उस तारीख पर कंपनी दिवालिया नहीं हुई थी और न ही उसके खिलाफ दिवाला प्रक्रिया (CIRP) शुरू हुई थी. इसलिए, कंपनी के बाद में दिवालिया होने से कर्मचारी के उस पैसे पर कोई असर नहीं पड़ेगा, जो उसे कानूनी तौर पर पहले ही मिल जाना चाहिए था.

हाईकोर्ट ने कंपनी की दलीलों को खारिज करते हुए कहा, “हम पार्टियों को वापस 13 जनवरी 2017 की स्थिति में बहाल करते हैं. अदालत ने कंपनी की रिट याचिका को खारिज कर दिया और लेबर कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा. कोर्ट ने रजिस्ट्री को निर्देश दिया कि अंतरिम आदेश के तहत जमा किए गए 13,00,000 रुपये, उस पर अब तक अर्जित ब्याज (accrued interest) के साथ, कर्मचारी (राव) को पूरी पहचान के बाद तुरंत जारी किए जाएं.

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