सरायकेला क्षेत्र में झारखंड का पारंपरिक नृत्य लागणे करती झारखंड की युवा आदिवासी लड़कियां कई फर्स्ट टाइम वोटर हैं, यानी इस चुनाव में वह पहली बार अपना वोट डालेंगी। झारखंड के आदिवासी इलाकों में उत्सव के पर्व पर यह नृत्य महिलाएं करती हैं और अब यह युवा लड़कियां इस परंपरा को सीखकर आगे बढ़ा रही हैं। इसके अतिरिक्त दीपावली के बाद और छठ से पहले काली मां की मूर्ति को विसर्जित करने की परंपरा का निर्वाह करते हुए यह पारंपरिक सोहराय गीत भी गा रही हैं। परंपरा को आगे ले जाती ऐसी युवा लड़कियों को चुनाव के समय जनप्रतिनिधियों से क्या आशा है हमने उनसे जानने की प्रयास की। इनका यही बोलना है गवर्नमेंट ऐसी मूलभूत सुविधा प्रदान करें कि सदियों से चली आ रही इस परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए संस्थान, और सरकारी सुविधाएं स्थापित हों।
दरअसल, ये नृत्य और गायन की शैली झारखंड की आदिवासी संस्कृति का अहम हिस्सा है। संथाली रीति रिवाजों पर आधारित इन कलाओं को संवारने की जिम्मेदारी अब ऐसे युवा कंधों पर है। मीडिया इण्डिया ने जब इन युवा लड़कियों से बात की तो पता चला कि ये सारी लड़कियां आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखती हैं और एक सामाजिक संस्था की सहायता से इस कला को पिछले कई वर्षों से सीख रही हैं। झारखंड के आदिवासी इलाकों में ऐसी परंपराओं को जीवित रखने और आगे बढ़ाने के लिए स्थान स्थान पर ऐसी पहल की जा रही है। ये युवा लड़कियां इसी पहल का हिस्सा है। खास बात ये हैं कि ये लड़कियां पढ़ाई के साथ साथ अपने माटी की परंपरा को भी आगे बढ़ाने का काम कर रही हैं।
फर्स्ट टाइम वोटर सीता का बोलना है कि इस कला को तो हम सीख रहे हैं ये अच्छी बात है, लेकिन अब इसे अगले लेवल तक ले जाना है यानि झारखंड के और अंदरूनी इलाकों में इस पारंपरिक कला को बढ़ाए जाने की आवश्यकता है, क्योंकि वहां की लड़कियों को भी मौका मिलेगा और इस काम की जिम्मेदारी चुने हुए जनता के प्रतिनिधियों की होगी। यही इन युवा लड़कियों के लिए अहम चुनावी मामला है।
लखई बास्केट जो इन युवा लड़कियों के प्रशिक्षक हैं, पिछले कई वर्षों से झारखंड की ऐसी लड़कियों की प्रतिभा तराशने का काम कर रहे हैं, लेकिन इस चुनाव में उनकी भी मांग है कि परंपरा के विकास के लिए मजबूत संस्थागत सुविधाओं का प्रदेश के कोने कोने में होना बहुत महत्वपूर्ण है।
सरायकेला, घाटशिला, धामूलगढ़ जैसे दूर-दराज इलाकों से यह लड़कियां प्रतिदिन इस संस्था में यह नृत्य और गीत सीखने आती हैं। यही नहीं इस संस्थान में संथाली भाषा को भी पढ़ाया जाता है। आदिवासी अस्मिता की बात करने वाली सियासी पार्टियों से इस कला को पुनर्जीवित और संरक्षित करने की मांग कला के क्षेत्र के इन वोटरों की है। चुने हुए प्रतिनिधि उनके इस पहलू पर कितना गौर करते हैं यह देखने वाली बातों होगी।