अश्विनी कुमार दत्त (अंग्रेज़ी: Ashwini Kumar Dutt, जन्म- 15 जनवरी, 1856, पूर्वी बंगाल; मृत्यु- 7 नवम्बर, 1923) भारत के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता और देश भक्त थे। एक अध्यापक के रूप में उन्होंने अपना व्यावसायिक जीवन प्रारम्भ किया था। उन्होंने वर्ष 1886 में कांग्रेस के दूसरे कोलकाता अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया था। अश्विनी कुमार दत्त का जन्म का जन्म 15 जनवरी, 1856 ई. को बारीसाल ज़िला (पूर्वी बंगाल) में हुआ था। उनके पिता ब्रज मोहन दत्त डिप्टी कलक्टर थे, जो बाद में ज़िला न्यायाधीश भी बने थे। अश्विनी कुमार ने इलाहाबाद और कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) से अपनी क़ानून की शिक्षा प्राप्त की थी। इसके बाद उन्होंने कुछ समय तक अध्यापक पद पर भी कार्य किया। बाद में वर्ष 1880 में बारीसाल से वकालत की शुरुआत की।
अश्विनी जी जब हाईस्कूल में पढ़ते थे, उस समय 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' का नियम था कि 16 वर्ष से कम उम्र के विद्यार्थी हाईस्कूल की परीक्षा में नहीं बैठ सकते। अश्विनी कुमार दत्त की इस परीक्षा के समय उम्र 14 वर्ष थी। किंतु जब उन्होंने देखा कि कई कम उम्र के विद्यार्थी 16 वर्ष की उम्र लिखवाकर परीक्षा में बैठ रहे हैं, तब उन्हें भी यही करने की इच्छा हुई। उन्होंने अपने आवेदन पत्र में 16 वर्ष की उम्र लिख दी और परीक्षा दी। इस प्रकार उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके ठीक एक वर्ष बाद जब अगली कक्षा की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, तब उन्हें अपने असत्य आचरण पर बहुत खेद हुआ। उन्होंने अपने कॉलेज के प्राचार्य से बात की और इस असत्य को सुधारने की प्रार्थना की। प्राचार्य ने उनकी सत्यनिष्ठा की बड़ी प्रशंसा की, किंतु इसे सुधारने में अपनी असमर्थता जाहिर कर दी। अश्विनी कुमार का मन नहीं माना। अब अश्विनी कुमार विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार से मिले, किंतु वहाँ से भी उन्हें यही जवाब मिला कि अब कुछ नहीं हो सकता। किंतु सत्य प्रेमी अश्विनी कुमार को तो प्रायश्चित करना था। इसलिए उन्होंने दो वर्ष झूठी उम्र बढ़ाकर जो लाभ उठाया था, उसके लिए दो वर्ष तक अपनी पढ़ाई बंद रखी और स्वयं द्वारा की गई उस गलती का उन्होंने प्रायश्चित किया।
अश्विनी कुमार दत्त के कोई संतान नहीं थी, इसलिए उन्होंने अपने क्षेत्र के स्कूल जाने वाले सब बच्चों की शिक्षा की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। इसके साथ ही शिक्षा के प्रसार के लिए कुछ विद्यालय भी स्थापित किए। 1880 ई. से ही अश्विनी कुमार दत्त ने सार्वजनिक कार्यों में भाग लेना शुरू कर दिया था। सर्वप्रथम उन्होंने बारीसाल में लोकमंच की स्थापना की। वर्ष 1886 में कांग्रेस के दूसरे कोलकाता अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में भाग ती कांग्रेस में उन्होंने कहा- "यदि कांग्रेस का संदेश ग्रामीण जनता तक नहीं पहुँचा तो यह सिर्फ़ तीन दिन का तमाशा बनकर रह जाएगी।" उनके इन विचारों का प्रभाव ही था कि वर्ष 1898 में उनको पंडित मदनमोहन मालवीय, दीनशावाचा आदि के साथ कांग्रेस का नया संविधान बनाने का काम सौपा गया था।
बंगाल विभाजन ने अश्विनी कुमार दत्त के विचार बदल दिए। वे नरम विचारों के राजनीतिज्ञ न रहकर उग्र विचारों के हो गए थे। वे लोगों के उग्र विचारों के प्रतीक बन गए। उनके शब्दों का बारीसाल के लोग क़ानून की भांति पालन करते थे। महान् क्रान्तिकारी विचारक एवं लेखक सखाराम गणेश देउस्कर द्वारा लिखित क्रांतिकारी बांग्ला पुस्तक 'देशेर कथा' के बारे में अश्विनी कुमार ने अपनी कालीघाट वाली वक्तृता में कहा था कि "इतने दिनों तक सरस्वती की आराधना करने पर भी बंगालियों को मातृभाषा में वैसा उपयोगी ग्रंथ लिखना न आया जैसा एक परिणामदर्शी महाराष्ट्र के युवा ने लिख दिखाया। बंगालियों, इस ग्रंथ को पढ़ो और अपने देश की अवस्था और निज कर्तव्य पर विचार करो।"
बंगाल की जनता पर अश्विनी कुमार दत्त का बढ़ता हुआ प्रभाव अंग्रेज़ सरकार को सहन नहीं हुआ। सरकार ने उन्हें बंगाल से निर्वासित करके 1908 में लखनऊ जेल में बंद कर दिया। सन 1910 में वे जेल से बाहर आ सके। अब वे विदेशी सरकार से किसी प्रकार का सहयोग करने के विरुद्ध थे। उन्होंने महात्मा गाँधी के 'असहयोग आंदोलन' का भी समर्थन किया ब्रह्म समाजी विचारों के अश्विनी कुमार दत्त 'गीता', 'गुरु ग्रंथ साहिब' और 'बाइबिल' का श्रद्धा के साथ पाठ करते थे। वे समाज सुधारों के पक्षधर थे और छुआछूत, मद्यपान आदि का सदा विरोध करते रहे। अपने समय में पूर्वी बंगाल के बेताज बादशाह माने जाने वाले अश्विनी कुमार दत्त का 7 नवम्बर, 1923 ई. में देहांत हो गया।