प्रभु चावला ने में लिखा है कि भारतीय स्वतंत्रता के नए क्षितिज में एक नये महाराजा ने आकाश को जीत लिया था. बॉबी कूका द्वारा डिजाइन किया गया, घुमावदार मुंछों और सजी हुई पगड़ी वाला एअर इंडिया का अमर शुभंकर आकाश में स्वागत के लिए देश का प्रतीक था. पिछले कुछ वर्षो में सार्वजनिक क्षेत्र के भाई-भतीजावाद और उदासीनता के कारण यह शानदार छवि धूमिल हो गयी जिससे कुल 70 हजार करोड़ रुपये का घाटा हुआ. फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वही किया जो उनके पहले के अन्य लोगों ने किया था : अधिक वजन वाले महाराजा को अक्षमता और नुकसान से मुक्त करना. 17 हजार से अधिक कर्मचारियों वाली एअर इंडिया को भारतीय उद्योग के सबसे पुराने महाराजाओं में से एक टाटा ने अपने अधीन कर लिया.
प्रभु चावला लिखते हैं कि हर किसी को उम्मीद थी कि आसमान के राजा को एक नया रूप और अनुभव मिलेगा. दुर्भाग्य से हुआ उल्टा. एअर इंडिया का राजा और भी ज्यादा जर्जर हो गया. केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान यह जानकर हैरान रह गये कि उन्हें टूटी हुई सीट आवंटित की गयी है. नाराज शिवराज ने टाटा को एअर इंडिया का प्रबंधन सौंपे जाने पर भी सवाल उठाए. चौहान निश्चित रूप से एअर इंडिया के 4.5 करोड़ से अधिक यात्रियों के वर्ग की नाराजगी दर्शा रहे थे.
टाटा द्वारा अधिग्रहण के बाद से लगातार परिचालन और सेवा संबंधी गड़बड़ियां रही हैं. इस कारण एअर इंडिया की प्रतिष्ठा धूमिल हुई हैं. पुराने केबिन इंटीरियर, खराब सुविधाएं और खराब सेवाओं की लगातार रिपोर्ट एअर इंडिया की बेहद बुरी तस्वीर पेश करती हैं. उदाहरण के तौर पर 5 मार्च को शिकागो से दिल्ली जाने वाली एअर इंडिया की फ्लाइट 126 को शौचालयों में खराबी के कारण अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर लौटना पड़ा. एअर इंडिया तकनीकी खामियों से भी ग्रस्त है जिससे सुरक्षा और परिचालन विश्वसनीयता के बारे में चिंताएं बढ़ रही हैं.
केंद्र और राज्य में जारी तकरारप्रताप भानु मेहता ने में लिखा है कि भारत में संघवाद को लेकर कई छोटे-बड़े तूफान खड़े होते रहे हैं. उत्तर और दक्षिण भारत के राज्यों के बीच परिसीमिन और प्रतिनिधित्व के संतुलन के सवाल पर राजनीतिक सूझ-बूझ की जरूरत है. कश्मीर को भी पूर्ण राज्य का दर्जा मिलने का इंतजार है. तमिलनाडु और केंद्र एक बार फिर भाषा और शिक्षा की राजनीति पर भिड़ रहे हैं. तमिलनाडु केंद्र पर समग्र शिक्षा कोष रोकने और हिंदी थोपने की गुप्त रणनीति बनाने का आरोप लगा रहा है. वहीं केंद्र सरकार की ओर से तमिलनाडु पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति के साथ राजनीति करने और हिन्दी थोपने का झूठा वितंडा खड़ा करने का आरोप लगाए जा रहे हैं.
प्रताप भानु मेहता लिखते हैं कि संघवाद की राजनीति इस तथ्य से भी जटिल है कि राजनीतिक, सांस्कृतिक, प्रशासनिक और आर्थिक संघवाद एक ही तर्क से संचालित नहीं होते हैं. राष्ट्रीय दल महत्वपूर्ण है क्योंकि वे विभिन्न क्षेत्रों को एक साथ जोड़ते हैं. लेकिन, राष्ट्रीय दल संघवाद की मांगों को भी पीछे छोड़ सकते हैं.
एक मुख्यमंत्री केवल एक संवैधानिक पदाधिकारी, एक राज्य की सरकार का मुखिया नहीं होता है. एक मुख्यमंत्री एक पार्टी के भीतर पदसोपान का हिस्सा भी होता है. मुख्यमंत्री के तौर पर वह उससे प्रभावित भी रहता है. यह उस व्यवस्था में और भी सच है जहां पार्टी की संरचना अधिक केंद्रीकृत है. राज्य पहले से ही पार्टी के राजनीतिक तर्क में शामिल है. मुख्यमंत्री राज्य के प्रति जितना जिम्मेदार है वह उतना ही अपनी पार्टी के भीतर पदसोपान के प्रति भी जिम्मेदार है.
हत्या का रहस्य सुलझाते जनरलकरन थापर ने में लिखा है कि जनरल मनोज नरवाने की किताब इसलिए अनोखी और खास है कि बीते 77 साल में किसी जनरल ने पहली बार कोई किताब लिखी. कहानी कमीशन प्राप्त दो युवा अफसरों, लेफ्टिनेंट रोहित वर्मा, तीसरी पीढ़ी के अधिकारी और लेफ्टिनेंट रेणुका खत्री पैदल सेना रेजिमेंट में शामिल होने वाली पहली महिला के इर्द-गिर्द घूमती है. रोहित पर छेड़छाड़ का आरोप है और ज्यादातर उसे दोषी मानते हैं. रेणुका बचाव में आगे आती है. जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है दो हत्याएं होती हैं. कहानी भविष्य में सेट की गयी हैं. यह सब जून 2026 के बाद कभी भी होता है.
करन थापर आगे बताते हैं कि जनरल नरवाने की अपनी रेजिमेंट 7वीं सिख लाइट इन्फैन्ट्री थी. यहीं रोहित और रेणुका ओरिएंटेशन ट्रेनिंग के लिए आते हैं. स्पष्ट रूप से नरवाने अपने अनुभव और व्यक्तिगत ज्ञान का उपयोग कर रहे हैं. थ्रिलर लिखना मुश्किल काम है. कथानक दिलचस्प होना चाहिए. फिर जैसे-जैसे आप पढ़ते हैं आपको इसमें गहराई से उतरना चाहिए. कहानी की गति भी अहम है. इसे चरमोत्कर्ष की ओर बढ़ना चाहिए. अंत में भाषा है. इसे संक्षिप्त और कसा हुआ होना चाहिए. छोटे और चटपटे वाक्य हों. फिर भी ईमानदारी से कहें तो यह वह नहीं है जिसकी आप सेना के जनरलों से उम्मीद करते हैं.
पुस्तक के अलग-अलग रंग और इसके वर्णन की सूक्ष्मता सुखद रूप से आश्चर्यजनक है. एक क्षण है जब ब्रिगेडियर मेनन रोहित से बात कर रहे हैं और लेखक लिखते हैं : “दीवार की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, क्या आप गुरु नानक का वह कथन देखते हैं? बुराई की जीत के लिए केवल एक ही चीज़ आवश्यक है कि अच्छे लोग कुछ न करें’.” क्या गुरुनानक ने वास्तव में ऐसा कहा था? अगर उन्होंने कहा था, तो कब और कहां?
हमेशा रहता है सांप पालने का खतरातवलीन सिंह ने में लिखा है कि दशकों से पाकिस्तान के सैनिक शासकों ने दहशत को बढ़ावा दिया है. सो, पिछले सप्ताह जब बलूच आतंकवादियों ने एक ट्रेन में सौ से ज्यादा यात्रियों को बंधक बनाया तो दुनिया के मीडिया ने खास तवज्जो नहीं दी. भारत में यह ख़बर एक-दो दिन सुर्खियों में रही. लेकिन वह दर्द जो होना चाहिए बेगुनाह लोगों को मारा जाता देखकर, वह नहीं दिखा. कैसे दिखेगा जब हमारे देश के अंदर इतनी बार बेगुनाह लोगों का पाकिस्तानी आतंकवादियों ने ऐसे शिकार किया है जैसे वे इंसान ही न हों. मुंबई में आज भी जब उन जगहों से गुजरती हूं जहां अजमल कसाब और उसके साथियों ने लोगों को मारा था तो 26/11 की यादें ताजा हो जाती हैं. एक बार अमेरिकी राजनेता हिलेरी क्लिन्टन पाकिस्तान में थीं तो बतौर खास सरकारी मेहमान उन्होंने अपने भाषण में खुलकर कहा था कि जो लोग सांप पालते हैं अपने आंगन में उन्हें याद रखना चाहिए कि कभी न कभी वे सांप उनको डंस सकते हैं.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के पीछे भी पाकिस्तान का हाथ है और आज वहां महिलाओँ को पूरी तरह अदृश्य कर दिया गया है. महिलाएं न बाहर जा सकती हैं बिना बुर्के में खुद को लपेटे, न नौकरी कर सकती हैं, न पढ़ सकती हैं. कुछ महीने पहले तालिबान शासकों का फरमान आया कि उन्हें खिड़कियों पर नहीं आना चाहिए ताकि गलती से भी कोई उनको देख न ले. पाकिस्तान के सैनिक शासकों ने तालिबान को न पाला-पोसा होता तो शायद तालिबान नाम की यह जिहादी संस्था होती ही नहीं.
जब से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं हम जैसे पत्रकारों के लिए पाकिस्तान आना-जाना तकरीबन पूरी तरह बंद हो गया है. लेखिका बताती हैं कि उन्होंने अपनी आंखों से देखा है कि किस तरह आतंकवादियों को खास मेहमान की तरह रखा जाता है पाकिस्तान में. पेशावर में उन सारे अफगानी जिहादी नेताओं से मिली हूं जो आगे जाकर अफगानिस्तान के शासक बने थे. लाहौर के गुरुद्वारे में खालिस्तानी आतंकवादियों से भी मिली हूं और देखा है कि किस तरह हाफिज सईद जैसे दरिंदे को सरकारी संरक्षण में रखा गया है.
हथियार उठाने की परिस्थिति का खात्मा होजयदीप हार्डिकर ने में लिखा है कि 1 जनवरी 2025 को महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में 11 माओवादियों ने मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया. इनमें 62 साल की विमला सिदम उर्फ तारक्का भी थीं. 40 साल पहले उन्होंने हथियार उठाए थे और सुरक्षा बलों पर कई साहसिक हमलों का नेतृत्व किया था. उस पर 25 लाख रुपये का इनाम था. तारक्का के लिए संघर्ष के मायने बदल गये. माओवादियों में नैतिकता का ह्रास और घटता जनसमर्थन भी आत्मसमर्पण की वजह है. छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्र् प्रदेश, ओडिशा और तेलंगाना में दसियों माओवादी, शीर्ष नेता और अन्य लोगों ने आत्मसमर्पण किया है क्योंकि उनकी मारक क्षमता कम हो गयी.
जयदीप हार्डिकर केंद्र सरकार के आंकड़ों के हवाले से लिखते हैं कि बीते दो दशकों में वामपंथी उग्रवाद में 2000 से अधिक कर्मियों की हत्या हुई. 6 हजार से ज्यादा नागरिक और माओवादी मारे गये. छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम और कांग्रेस के पूरे शीर्ष नेतृत्व को खत्म कर देने वाली वारदात का भी लेखक जिक्र करते हैं.
भारत सरकार ने बड़े पैमाने पर माओवादियों को विवश किया है. लेकिन सरकार ने अपनी दमनकारी प्रक्रियाएं नहीं बदली हैं जिस वजह से गरीब और सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े आदिवासी हाशिए पर चले आते हैं. एक सीमा तक राजनीतिक शून्यता अब भी बनी हुई है. जिन परिस्थितियों ने माओवादियों के प्रसार में मदद की, वे कमोबेश बनी हुई हैं. इनमें निम्न मानव विकास सूचकांक, प्राकृतिक संसाधनों की बेलगाम लूट और दोहन शामिल हैं. अब यह केंद्र और राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है कि वे सुनिश्चित करें कि आत्मसमर्पण करने वाले कार्यकर्ताओं और स्थानीय जनजातीय लोगों को बंदूकों के स्थान परलोकतांत्रिक भागीदारीपूर्ण शासन चुनने पर पछतावा न हो.