भारत का मिडिल क्लास जो भी शहरों में नौकरी करता है. अपनी रोजी-रोटी के लिए गांव छोड़कर किराए के मकान में परिवार के साथ रहता है. उन सभी परिवारों का एक सपना आम होता है कि काश इतना पैसा जुटा लें कि इस शहर में अपना घर हो जाए. लेकिन क्या आपको पता है कि देश में अपना घर लेना बहुत कठिन हो गया है. कमाई की मुकाबले प्रॉपर्टी की कीमतें दो गुनी हो गई हैं. देश के लगभग सभी शहरों का हाल है. इस पर हाल में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है. आइए आपको हम उसी रिपोर्ट के सहारे बताते हैं कि देश में प्रॉपर्टी की कीमतों की स्थिति असल में क्या है. आम आदमी के घर खरीदने का सपना क्यों नहीं पूरा हो सकता है?
अपने घर की अहमियत क्या होती है इस पर मशहूर शायर सलीम अहमद का एक शेर है कि दर-ब-दर ठोकरें खाईं तो ये मालूम हुआ
घर किसे कहते हैं क्या चीज़ है बे-घर होना… लेकिन अभी जिस हिसाब से हाउसहोल्ड इनकम के मुकाबले घरों की कीमतें बढ़ रही हैं. इसमें घर खरीदना बहुत मुश्किल मालूम होता है. कुछ यूं कि घर बनाना या यूं कहें कि खरीदना किस तरह झमेले का काम हो गया है. ऐसी स्थिति पर रियाज़ मजीद ने लिखा है कि इक घर बना के कितने झमेलों में फंस गए, कितना सुकून बे-सर-ओ-सामानियों में था… इन शेरों से इतर जो हकीकत है वह मिडिल क्लास की जेब के लिए कतई मुफीद नहीं है. फिनोलॉजी रिसर्च डेस्क की ओर से जारी की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2020 और 2024 के बीच घरेलू आय 5.4% CAGR से बढ़ी है. जबकि उसके मुकाबले संपत्ति की कीमतों में 9.3% CAGR की बढ़ोतरी हुई. यानी कमाई के मुकाबले अफोर्डेबल हाउस की कीमतों में तेजी आई है.
लोगों की ओर से घर खरीदने की डिमांड तो बढ़ी है. लेकिन प्रॉपर्टी की संख्या की कम हो गई है. आम आदमी के लिए प्रॉपर्टी की कीमत जो कि 1 करोड़ रुपये से कम है. वह साल 2022 में करीब 3.1 लाख यूनिट्स थी, जो कि साल 2024 में 36 प्रतिशत घटकर 1.98 लाख यूनिट हो गई है. ये डेटा लगभग देश के सभी शहरों का है. दिल्ली एनसीआर, मुंबई और हैदराबाद जैसे शहरों में अफोर्डेबल हाउस की संख्या में सबसे ज्यादा गिरावट आई है.
शहर
अफोर्डेबल आवास में कमी (2 सालों में)
हैदराबाद |
69% |
मुंबई |
60% |
एनसीआर |
45% |
पुणे |
32% |
बेंगलुरु |
33% |
ठाणे |
36% |
नवी मुंबई |
6% |
चेन्नई |
13% |
घरों की कीमतों में आया उछाल एकाएक नहीं है. अफोर्डेबल हाउस की संख्या शहरों में इसलिए कम हो रही है क्योंकि बिल्डर्स अब ज्यादा प्रॉफिट कमाने पर ध्यान दे रहे हैं. जिस हिसाब से घर बनाने में खर्च बढ़ रहे हैं, उसी हिसाब से घर बेचने वालों ने लग्जरी घरों को ज्यादा वरीयता देना शुरू किया है, जिससे उनकी आमदनी बढ़ सके.
आंकड़ों में हकीकतअफोर्डेबल घर खरीदना कितना मुश्किल हो गया है. इसको कुछ आंकड़ों से समझा जा सकता है.
प्राइस टू इनकम रेशियोप्राइस टू इनकम रेशियो आपको यह बताता है कि आपकी सालाना इनकम के हिसाब से एक घर खरीदने में कितने साल लगेंगे. यह रेशियो अभी 11 है, जो कि अफोर्डेबल बेंचमार्क 5 या उससे कम से दोगुना है. यह रेशियो देश के अलग-अलग शहरों में अलग है. दिलचस्प बात यह है कि शहरों में पी/आई रेशिओ के मुताबिक ऑस्ट्रेलिया और यूएस में घर खरीदना ज्यादा आसान हो सकता है.
शहर
P/E रेशियो
मुंबई |
14.3 |
दिल्ली |
10.1 |
कोलकाता |
5.8 |
चेन्नई |
5.1 |
अहमदाबाद |
5.1 |
यह बताता है कि आपके मासिक वेतन का कितना हिस्सा होम लोन की ईएमआई में जाता है. इसके लिए 50% से ज्यादा का अनुपात अफोर्डेबल नहीं माना जाता है. आंकड़ों की बात करें, तो साल 2024 तक भारत का औसत 61% है, जो 2020 में 46% था. इसका सीधा सा मतलब यह है कि कई परिवारों के लिए अब घर खरीदने का मतलब है कि उन्हें अपनी जीवनशैली और शायद जरूरतों के साथ समझौता करना होगा.
क्यों बढ़ रहा है हाउसिंग क्राइसिस?हाउसिंग मार्केट में काला धन बड़ा रोल प्ले कर रहा है, खासकर सर्कल रेट के गलत इस्तेमाल से. इसमें भी कई तरीके से फ्रॉड होते हैं.
सर्कल रेट: गवर्नमेंट जो मिनिमम प्राइस प्रति स्क्वायर फीट डिक्लेयर करती है.
मार्केट प्राइस: बिल्डर्स जो असली प्राइस सेट करते हैं (जो अक्सर सर्कल रेट से कहीं ज्यादा होता है). बिल्डर्स इस गैप का फायदा उठाते हैं. वो प्रॉपर्टी को सर्कल रेट पर रजिस्टर करते हैं और बाकी पैसे कैश में लेते हैं.
बिल्डर्स का खेल
बिल्डर्स HNI (हाई नेटवर्थ इंडिविजुअल्स) और बड़े बिजनेस ओनर्स को सर्कल रेट पर बल्क में प्रॉपर्टी बेचते हैं ताकि कंस्ट्रक्शन कॉस्ट निकल जाए. फिर बाकी यूनिट्स की प्राइस बढ़ाकर अपने मार्जिन बनाए रखते हैं. ब्रोकर आर्टिफिशियल स्कार्सिटी क्रिएट करके प्राइस और बढ़ाते हैं. इससे मिडिल क्लास के लिए घर खरीदना और मुश्किल हो जाता है.
लो FSI का झोल
FSI यानी फ्लोर स्पेस इंडेक्स, जो ये बताता है कि एक प्लॉट पर कितनी कंस्ट्रक्शन हो सकती है। भारत में FSI को गवर्नमेंट सख्ती से कंट्रोल करती है. भारत का FSI बहुत कम है। जैसे, मुंबई (इंडिया की फाइनेंशियल कैपिटल) में सिर्फ 542 हाई-राइज बिल्डिंग्स हैं, जबकि सिंगापुर में 2,687 से ज्यादा है. हाई FSI वाले शहरों में ढेर सारी स्काईस्क्रेपर्स बनती हैं, जिससे हाउसिंग सप्लाई बढ़ती है और प्राइस कंट्रोल में रहता है. लेकिन भारत में लो FSI की वजह से बिल्डिंग की हाइट और फ्लोर्स लिमिटेड हैं, जिससे प्रॉपर्टी की कीमतें आसमान छू रही हैं.
क्या हाई FSI सॉल्यूशन है?
हां, हाई FSI से ज्यादा घर बन सकते हैं, लेकिन इससे गांवों से शहरों की ओर माइग्रेशन बढ़ सकता है, जो पहले से ओवरलोडेड मेट्रो सिटीज पर और प्रेशर डालेगा. मुंबई जैसे शहर पहले से ही जूझ रहे हैं. लोकल ट्रेनें ओवरक्राउडेड, पार्किंग स्पेस खत्म, पानी की सप्लाई, सीवेज सिस्टम, कचरा डिस्पोजल और रोड्स पहले से प्रेशर में हैं. पब्लिक सर्विसेज जैसे कचरा कलेक्शन, इमरजेंसी सर्विसेज और पब्लिक ट्रांसपोर्ट भी बिना अपग्रेड के फेल हो सकते हैं. कुल मिलाकर काला धन और लो FSI, दोनों मिलकर हाउसिंग क्राइसिस को और बिगाड़ रहे हैं. मिडिल क्लास के लिए घर का सपना और दूर होता जा रहा है.
शहर
FSI
Delhi |
3.5 |
Mumbai |
5 |
Tokyo |
20 |
Singapore |
25 |
New York |
15 |