भारत का मिडिल क्लास अब क्यों नहीं खरीद सकता है अपना घर? ये हैं बड़े कारण
TV9 Bharatvarsh June 28, 2025 02:42 PM

भारत का मिडिल क्लास जो भी शहरों में नौकरी करता है. अपनी रोजी-रोटी के लिए गांव छोड़कर किराए के मकान में परिवार के साथ रहता है. उन सभी परिवारों का एक सपना आम होता है कि काश इतना पैसा जुटा लें कि इस शहर में अपना घर हो जाए. लेकिन क्या आपको पता है कि देश में अपना घर लेना बहुत कठिन हो गया है. कमाई की मुकाबले प्रॉपर्टी की कीमतें दो गुनी हो गई हैं. देश के लगभग सभी शहरों का हाल है. इस पर हाल में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है. आइए आपको हम उसी रिपोर्ट के सहारे बताते हैं कि देश में प्रॉपर्टी की कीमतों की स्थिति असल में क्या है. आम आदमी के घर खरीदने का सपना क्यों नहीं पूरा हो सकता है?

अपने घर की अहमियत क्या होती है इस पर मशहूर शायर सलीम अहमद का एक शेर है कि दर-ब-दर ठोकरें खाईं तो ये मालूम हुआ
घर किसे कहते हैं क्या चीज़ है बे-घर होना… लेकिन अभी जिस हिसाब से हाउसहोल्ड इनकम के मुकाबले घरों की कीमतें बढ़ रही हैं. इसमें घर खरीदना बहुत मुश्किल मालूम होता है. कुछ यूं कि घर बनाना या यूं कहें कि खरीदना किस तरह झमेले का काम हो गया है. ऐसी स्थिति पर रियाज़ मजीद ने लिखा है कि इक घर बना के कितने झमेलों में फंस गए, कितना सुकून बे-सर-ओ-सामानियों में था… इन शेरों से इतर जो हकीकत है वह मिडिल क्लास की जेब के लिए कतई मुफीद नहीं है. फिनोलॉजी रिसर्च डेस्क की ओर से जारी की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2020 और 2024 के बीच घरेलू आय 5.4% CAGR से बढ़ी है. जबकि उसके मुकाबले संपत्ति की कीमतों में 9.3% CAGR की बढ़ोतरी हुई. यानी कमाई के मुकाबले अफोर्डेबल हाउस की कीमतों में तेजी आई है.

बाजार में हुई बढ़ोतरी

लोगों की ओर से घर खरीदने की डिमांड तो बढ़ी है. लेकिन प्रॉपर्टी की संख्या की कम हो गई है. आम आदमी के लिए प्रॉपर्टी की कीमत जो कि 1 करोड़ रुपये से कम है. वह साल 2022 में करीब 3.1 लाख यूनिट्स थी, जो कि साल 2024 में 36 प्रतिशत घटकर 1.98 लाख यूनिट हो गई है. ये डेटा लगभग देश के सभी शहरों का है. दिल्ली एनसीआर, मुंबई और हैदराबाद जैसे शहरों में अफोर्डेबल हाउस की संख्या में सबसे ज्यादा गिरावट आई है.

शहर

अफोर्डेबल आवास में कमी (2 सालों में)

हैदराबाद

69%

मुंबई

60%

एनसीआर

45%

पुणे

32%

बेंगलुरु

33%

ठाणे

36%

नवी मुंबई

6%

चेन्नई

13%

घरों की कीमतों में आया उछाल एकाएक नहीं है. अफोर्डेबल हाउस की संख्या शहरों में इसलिए कम हो रही है क्योंकि बिल्डर्स अब ज्यादा प्रॉफिट कमाने पर ध्यान दे रहे हैं. जिस हिसाब से घर बनाने में खर्च बढ़ रहे हैं, उसी हिसाब से घर बेचने वालों ने लग्जरी घरों को ज्यादा वरीयता देना शुरू किया है, जिससे उनकी आमदनी बढ़ सके.

आंकड़ों में हकीकत

अफोर्डेबल घर खरीदना कितना मुश्किल हो गया है. इसको कुछ आंकड़ों से समझा जा सकता है.

प्राइस टू इनकम रेशियो

प्राइस टू इनकम रेशियो आपको यह बताता है कि आपकी सालाना इनकम के हिसाब से एक घर खरीदने में कितने साल लगेंगे. यह रेशियो अभी 11 है, जो कि अफोर्डेबल बेंचमार्क 5 या उससे कम से दोगुना है. यह रेशियो देश के अलग-अलग शहरों में अलग है. दिलचस्प बात यह है कि शहरों में पी/आई रेशिओ के मुताबिक ऑस्ट्रेलिया और यूएस में घर खरीदना ज्यादा आसान हो सकता है.

शहर

P/E रेशियो

मुंबई

14.3

दिल्ली

10.1

कोलकाता

5.8

चेन्नई

5.1

अहमदाबाद

5.1

EMI टू इनकम रेशियो

यह बताता है कि आपके मासिक वेतन का कितना हिस्सा होम लोन की ईएमआई में जाता है. इसके लिए 50% से ज्यादा का अनुपात अफोर्डेबल नहीं माना जाता है. आंकड़ों की बात करें, तो साल 2024 तक भारत का औसत 61% है, जो 2020 में 46% था. इसका सीधा सा मतलब यह है कि कई परिवारों के लिए अब घर खरीदने का मतलब है कि उन्हें अपनी जीवनशैली और शायद जरूरतों के साथ समझौता करना होगा.

क्यों बढ़ रहा है हाउसिंग क्राइसिस?

हाउसिंग मार्केट में काला धन बड़ा रोल प्ले कर रहा है, खासकर सर्कल रेट के गलत इस्तेमाल से. इसमें भी कई तरीके से फ्रॉड होते हैं.

सर्कल रेट: गवर्नमेंट जो मिनिमम प्राइस प्रति स्क्वायर फीट डिक्लेयर करती है.

मार्केट प्राइस: बिल्डर्स जो असली प्राइस सेट करते हैं (जो अक्सर सर्कल रेट से कहीं ज्यादा होता है). बिल्डर्स इस गैप का फायदा उठाते हैं. वो प्रॉपर्टी को सर्कल रेट पर रजिस्टर करते हैं और बाकी पैसे कैश में लेते हैं.

बिल्डर्स का खेल

बिल्डर्स HNI (हाई नेटवर्थ इंडिविजुअल्स) और बड़े बिजनेस ओनर्स को सर्कल रेट पर बल्क में प्रॉपर्टी बेचते हैं ताकि कंस्ट्रक्शन कॉस्ट निकल जाए. फिर बाकी यूनिट्स की प्राइस बढ़ाकर अपने मार्जिन बनाए रखते हैं. ब्रोकर आर्टिफिशियल स्कार्सिटी क्रिएट करके प्राइस और बढ़ाते हैं. इससे मिडिल क्लास के लिए घर खरीदना और मुश्किल हो जाता है.

लो FSI का झोल

FSI यानी फ्लोर स्पेस इंडेक्स, जो ये बताता है कि एक प्लॉट पर कितनी कंस्ट्रक्शन हो सकती है। भारत में FSI को गवर्नमेंट सख्ती से कंट्रोल करती है. भारत का FSI बहुत कम है। जैसे, मुंबई (इंडिया की फाइनेंशियल कैपिटल) में सिर्फ 542 हाई-राइज बिल्डिंग्स हैं, जबकि सिंगापुर में 2,687 से ज्यादा है. हाई FSI वाले शहरों में ढेर सारी स्काईस्क्रेपर्स बनती हैं, जिससे हाउसिंग सप्लाई बढ़ती है और प्राइस कंट्रोल में रहता है. लेकिन भारत में लो FSI की वजह से बिल्डिंग की हाइट और फ्लोर्स लिमिटेड हैं, जिससे प्रॉपर्टी की कीमतें आसमान छू रही हैं.

क्या हाई FSI सॉल्यूशन है?

हां, हाई FSI से ज्यादा घर बन सकते हैं, लेकिन इससे गांवों से शहरों की ओर माइग्रेशन बढ़ सकता है, जो पहले से ओवरलोडेड मेट्रो सिटीज पर और प्रेशर डालेगा. मुंबई जैसे शहर पहले से ही जूझ रहे हैं. लोकल ट्रेनें ओवरक्राउडेड, पार्किंग स्पेस खत्म, पानी की सप्लाई, सीवेज सिस्टम, कचरा डिस्पोजल और रोड्स पहले से प्रेशर में हैं. पब्लिक सर्विसेज जैसे कचरा कलेक्शन, इमरजेंसी सर्विसेज और पब्लिक ट्रांसपोर्ट भी बिना अपग्रेड के फेल हो सकते हैं. कुल मिलाकर काला धन और लो FSI, दोनों मिलकर हाउसिंग क्राइसिस को और बिगाड़ रहे हैं. मिडिल क्लास के लिए घर का सपना और दूर होता जा रहा है.

शहर

FSI

Delhi

3.5

Mumbai

5

Tokyo

20

Singapore

25

New York

15

इन तरीकों से हो सकता है समस्या का निदान
  • भारत में अफोर्डेबल हाउसिंग क्राइसिस को ठीक करना आसान नहीं है, लेकिन कुछ स्मार्ट बदलावों से ये मुमकिन हो सकता है. आइए आपको हम आपको 8 उपायों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिनसे आपका अफोर्डेबल घर खरीदना आसान हो सकता है.
  • सर्कल रेट पॉलिसी में बदलाव: सर्कल रेट को हर साल की जगह हर महीने रिवाइज करना चाहिए, जो मार्केट की मैक्सिमम प्राइस पर बेस्ड हो. साथ ही, एक पेग सिस्टम लाना चाहिए. इससे सर्कल रेट और मार्केट प्राइस का फर्क 5-10% तक कम हो सकता है, जिससे घर खरीदना थोड़ा आसान हो जाएगा.
  • RERA के जरिए सेंट्रलाइज्ड रियल एस्टेट प्लेटफॉर्म: रियल एस्टेट रेगुलेटरी अथॉरिटी (RERA) को एक ऐसा प्लेटफॉर्म बनाना चाहिए, जहां सारी रेजिडेंशियल प्रॉपर्टी की बुकिंग और सेल हो. हर ट्रांजैक्शन के लिए वेरिफाइड डिजिटल अकाउंट जरूरी करना चाहिए और सेल प्राइस को रियल-टाइम में पब्लिश करना चाहिए. इससे ट्रांसपेरेंसी बढ़ेगी और कैश ट्रांजैक्शन या प्राइस मैनिपुलेशन कम होगा.
  • नए शहर बसाना: भारत में हर करोड़ लोगों के लिए सिर्फ एक शहर है, जबकि अमेरिका और UK जैसे देशों में 4 शहर हैं. स्टेट गवर्नमेंट्स को नए शहर डेवलप करने का प्लान बनाना चाहिए, ताकि बड़े शहरों पर प्रेशर कम हो और लोग वहां शिफ्ट हो सकें.
  • एजुकेशन और वर्कफोर्स का डिसेंट्रलाइजेशन: भारत की टॉप 100 यूनिवर्सिटीज में से 33% और 54 लाख टेक वर्कफोर्स सिर्फ 7 शहरों में हैं. अलग-अलग राज्यों में अच्छे एजुकेशन इंस्टीट्यूट्स बनाकर मेट्रो सिटीज़ में भीड़ कम की जा सकती है. इससे लोग दूसरे शहरों में भी जॉब्स और पढ़ाई के लिए जाएंगे.
  • टियर-3 शहरों में FSI बढ़ाना: मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों में FSI (फ्लोर स्पेस इंडेक्स) बढ़ाने के साथ इन्फ्रास्ट्रक्चर को भी अपग्रेड करना होगा. लेकिन टियर-3 शहरों में FSI बढ़ाकर नए हाउसिंग हब बनाए जा सकते हैं. साथ ही, इन शहरों में जॉब क्रिएशन से ये हब और सस्टेनेबल बनेंगे.
  • गवर्नमेंट लैंड ओनरशिप बढ़ाना: अमेरिका में 29% जमीन गवर्नमेंट के पास है, लेकिन भारत में सिर्फ 0.5%. गवर्नमेंट को और जमीन अपने पास रखनी चाहिए, ताकि नए शहर बनाए जा सकें और अर्बन एक्सपैंशन को कंट्रोल किया जा सके.
  • खाली घरों पर टैक्स लगाना: भारत में 1.14 करोड़ घर खाली पड़े हैं, जो अक्सर इन्वेस्टमेंट के लिए रखे जाते हैं. इन पर वैकेंसी टैक्स लगाकर ओनर्स को घर रेंट या सेल करने के लिए मजबूर किया जा सकता है. इससे मार्केट में घरों की सप्लाई बढ़ेगी.
  • NRI इन्वेस्टमेंट्स पर कंट्रोल: 2019-2020 में रियल एस्टेट में 10% इन्वेस्टमेंट NRI से आया. चूंकि वो विदेशी करेंसी में कमाते हैं, इससे प्रॉपर्टी की प्राइस बढ़ती है. NRI इन्वेस्टमेंट्स पर कैप या ज्यादा टैक्स लगाकर लोकल बायर्स को प्रोटेक्ट किया जा सकता है.
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