Shivaram Hari Rajguru (Image Credit-Social Media)
Shivaram Hari Rajguruशिवराम हरि राजगुरु का जीवन: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में शिवराम हरि राजगुरु का नाम गर्व के साथ लिया जाता है। वे भगत सिंह और सुखदेव के साथ उस क्रांतिकारी त्रयी का हिस्सा थे, जिन्होंने अपने साहस और बलिदान से आज़ादी की लड़ाई को नई दिशा दी। केवल 23 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर यह साबित कर दिया कि स्वतंत्रता और स्वाभिमान के लिए किसी भी हद तक जाया जा सकता है।
राजगुरु का जन्म 24 अगस्त 1908 को महाराष्ट्र के पुणे जिले के खेड़ा (अब राजगुरुनगर) में हुआ। वे एक साधारण मराठी ब्राह्मण परिवार से थे। उनके पिता का निधन जब वे केवल छह वर्ष के थे, तब उनकी माँ पार्वती बाई और बड़े भाई ने उनका पालन-पोषण किया। घर की आर्थिक स्थिति सामान्य थी, लेकिन उपेक्षा ने उनके भीतर स्वाभिमान और स्वतंत्रता की ज्वाला को और प्रज्वलित किया।
बचपन से ही वे छत्रपति शिवाजी महाराज और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से प्रेरित थे। इन महान विभूतियों ने उनके मन में अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ विद्रोह की भावना जगाई।
वाराणसी में अपनी पढ़ाई के दौरान, उन्होंने उन युवाओं से संपर्क किया जो अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष में शामिल हो गए थे। यहाँ उनकी मुलाकात चंद्रशेखर आज़ाद से हुई। आज़ाद के मार्गदर्शन में, वे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) में शामिल हुए और स्वतंत्रता के लिए लड़ने का संकल्प लिया।
राजगुरु निशानेबाजी और कुश्ती में माहिर थे। चंद्रशेखर आज़ाद ने उनकी प्रतिभा को और निखारा, जो बाद में अंग्रेज़ अधिकारियों के खिलाफ निर्णायक साबित हुआ।
1928 में साइमन कमीशन के विरोध में लाहौर में प्रदर्शन हुआ। पुलिस की बर्बरता में लाला लाजपत राय गंभीर रूप से घायल हो गए और बाद में उनकी मृत्यु हो गई। इस घटना ने क्रांतिकारियों को झकझोर दिया।
17 दिसंबर 1928 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक जे.पी. सांडर्स की हत्या कर दी। राजगुरु की अद्वितीय निशानेबाज़ी इस कार्रवाई में महत्वपूर्ण रही। यह घटना ब्रिटिश सरकार के लिए एक चुनौती बन गई और क्रांतिकारियों की तलाश तेज़ कर दी गई।
सांडर्स हत्याकांड के बाद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को गिरफ्तार कर लाहौर षड्यंत्र केस में मुकदमे का सामना करना पड़ा।
मुकदमे के दौरान तीनों ने निर्भीकता से अदालत में अंग्रेज़ी शासन की आलोचना की।
• राजगुरु ने संस्कृत में जज को संबोधित किया, और जब जज कुछ समझ नहीं पाया तो उन्होंने हँसते हुए कहा – “यार भगत, इस जाहिल को अंग्रेज़ी में समझाओ, यह हमारी भाषा क्या समझेगा!”
यह उनकी निर्भीकता और हाजिरजवाबी का परिचायक था।
7 अक्टूबर 1930 को अदालत ने तीनों को फाँसी की सज़ा सुनाई।
21 मार्च 1931 – अंतिम मुलाकातें
फाँसी से दो दिन पहले परिवारजन जेल में मिले।
• भगत सिंह ने माँ से कहा – “माँ, तुम्हारा बेटा मौत से नहीं डरता। यह बलिदान भारत माता की गोद में अमरता है।”
• सुखदेव ने अपनी वृद्ध माता को समझाया – “माँ, यह रोने का समय नहीं है। मेरा बलिदान देश की आने वाली पीढ़ियों को रास्ता दिखाएगा।”
• राजगुरु ने हँसते हुए अपनी माँ से कहा – “माँ, हम हँसते-हँसते फाँसी पर चढ़ेंगे।”
22 मार्च 1931 – अंतिम रात्रि
तीनों ने रातभर नींद नहीं ली।
• भगत सिंह किताबें पढ़ते रहे।
• सुखदेव मौन ध्यान में डूबे रहे।
• राजगुरु मज़ाक करते रहे ताकि माहौल हल्का बना रहे।
जेल अधिकारी भी यह देखकर दंग रह गए कि मृत्यु के साए में भी उनके चेहरों पर भय नहीं बल्कि संतोष और गर्व था।
फाँसी का दिन – 23 मार्च 1931
नियमानुसार फाँसी 24 मार्च को दी जानी थी, लेकिन जनता के गुस्से से डरकर अंग्रेज़ सरकार ने इसे एक दिन पहले ही कर दिया।
शाम 7 बजे लाहौर सेंट्रल जेल में तीनों को फाँसी दी गई।
• फाँसी स्थल पर पहुँचते ही तीनों ने गगनभेदी नारे लगाए – “इंकलाब ज़िंदाबाद!” “भारत माता की जय!”
• राजगुरु ने रस्सी देखकर मुस्कुराते हुए कहा – “देखो, यह रस्सी कितनी प्यारी लग रही है।”
• भगत सिंह ने गर्व से कहा – “मुझे गर्व है कि मैं भारत के लिए मर रहा हूँ।”
ब्रिटिश अधिकारियों ने जनाक्रोश से बचने के लिए उनके शवों को गुप्त रूप से फिरोज़पुर (हुसैनीवाला) ले जाकर अंतिम संस्कार कर दिया।
पूरे देश में स्वतःस्फूर्त हड़तालें, जुलूस और प्रदर्शन हुए। पंजाब, बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में लोग सड़कों पर उतर आए। तीनों की शहादत ने उन्हें रातों-रात राष्ट्रीय नायक बना दिया।
इनकी शहादत ने युवाओं को सिखाया कि स्वतंत्रता भीख माँगकर नहीं, बल्कि संघर्ष और बलिदान से मिलती है। कॉलेज छोड़कर, खेत-खलिहान और फैक्ट्री से निकलकर अनेक युवा स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े।
यह घटना ऐसे समय घटी जब महात्मा गांधी अंग्रेज़ों से समझौते की राह पर थे। तीनों की फाँसी ने आम जनता को निराश किया और क्रांतिकारी आंदोलनों को नई लोकप्रियता दी।
अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने उनकी शहादत को प्रमुखता से प्रकाशित किया। कई विदेशी नेताओं और विचारकों ने ब्रिटिश हुकूमत की बर्बरता की निंदा की।
तीनों की शहादत ने राष्ट्रीय चेतना को नई दिशा दी। आज भी 23 मार्च को शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है।
• भगत सिंह विचार और वैचारिक क्रांति के प्रतीक बने।
• सुखदेव अनुशासन और संगठन के प्रतीक बने।
• राजगुरु साहस और हंसी-खुशी के साथ बलिदान के प्रतीक बने।