1985 का वर्ष, जब हिंदी सिनेमा ने एक अनमोल संगीतकार को खो दिया। रामकृष्ण शिंदे, जिन्होंने अपने संगीत से न केवल फिल्मों को, बल्कि भारतीय बैले को भी नई पहचान दी। उनकी कहानी केवल एक संगीतकार की नहीं, बल्कि एक ऐसे कलाकार की है, जिसने कठिनाइयों के बावजूद अपनी कला को जीवित रखा।
रामकृष्ण का जन्म 1918 में 'रामनवमी' के दिन पश्चिमी महाराष्ट्र के मालवण में एक साधारण मराठा परिवार में हुआ। उनके पिता का साया बचपन में ही उठ गया, और परिवार की जिम्मेदारी उनके मामा और मौसी पर आ गई। वे मुंबई के नानाचौक में बस गए, जहां रामकृष्ण का बचपन मुंबई की गलियों में बीता।
हालांकि उनके परिवार में संगीत का कोई इतिहास नहीं था, लेकिन रामकृष्ण के मन में सुरों की दुनिया ने घर कर लिया। उन्होंने घर से छिपकर पंडित सीताराम पंत मोदी से गायन और पंडित माधव कुलकर्णी से सितार की शिक्षा ली। वे मेलों और नुमाइशों में संगीत कार्यक्रमों में भाग लेते थे, जहां उनकी मुलाकात लता मंगेशकर जैसी प्रतिभाओं से हुई।
परिवार की आर्थिक स्थिति को देखते हुए, रामकृष्ण ने मुंबई की डॉन मिल्स में नौकरी शुरू की। लेकिन उनकी धुनें उन्हें संगीत की दुनिया की ओर खींच रही थीं। 1944 में नलिनी से विवाह के बाद, उन्होंने तबला वादक रमाकांत पार्सेकर और नृत्य-निर्देशक पार्वती कुमार कांबली से संपर्क किया।
उनकी कला ने उन्हें संगीत के प्रति समर्पित होने का निर्णय लेने पर मजबूर किया। उन्होंने अपनी नौकरी छोड़कर संगीत को अपना जीवन बना लिया। यह एक बड़ा कदम था, लेकिन उनकी कला पर विश्वास अडिग था।
रामकृष्ण शिंदे का करियर केवल हिंदी सिनेमा तक सीमित नहीं था, बल्कि भारतीय बैले में उनका योगदान अद्वितीय था। उन्होंने 'इंडियन नेशनल थिएटर' के लिए बैले-नृत्य संगीत तैयार किए, जिससे उन्हें प्रसिद्धि मिली। उनके संगीत में एक खास जादू था, जो नर्तकों की भावनाओं को सुरों में पिरो देता था।
उनकी कर्णप्रिय धुनों का जादू फिल्मी दुनिया में भी पहुंचा। 1947 में फिल्म 'मैनेजर' में संगीत देने का अवसर मिला, जिससे उनका फिल्मी सफर शुरू हुआ। उसी वर्ष उन्हें 'बिहारी' फिल्म में भी संगीत देने का मौका मिला।
रामकृष्ण ने 1966 में मराठी फिल्म 'तोचि साधू ओलाखावा' और 1970 में 'आई आहे शेतात' जैसी फिल्मों में भी संगीत दिया। उनके लिए संगीत की गुणवत्ता हमेशा प्राथमिकता रही।
हालांकि रामकृष्ण का नाम बड़ी व्यावसायिक सफलताओं से नहीं जुड़ा, लेकिन उनकी कला ने कई फिल्मों को विशेष पहचान दी। प्रमुख फिल्मों में 'मैनेजर', 'बिहारी', 'किसकी जीत', 'गौना', 'खौफनाक जंगल', 'पुलिस स्टेशन' और 'कैप्टन इंडिया' शामिल हैं।
14 सितंबर, 1985 को उनका निधन हो गया। उस समय वे 67 वर्ष के थे और अपनी रचनात्मकता के शिखर पर थे। वे दो महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे, जिसमें राजा ढाले का बैले 'चाण्डालिका' और दूरदर्शन के लिए अजित सिन्हा का बैले 'ऋतुचक्र' शामिल था।