क्या बिहार में अब खत्म हो रहा है लालू-नीतीश का 50 साल पुराना दौर?
Webdunia Hindi October 30, 2025 08:42 AM


Lalu Nitish era in its final phase in Bihar: बिहार की राजनीतिक मिट्टी में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इन्हें उखाड़ना किसी क्रांति से कम नहीं। 1970 के दशक में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से जन्मी यह राजनीतिक जोड़ी, आपातकाल के खिलाफ लड़ते हुए समाजवादी सपनों को साकार करने का दावा कर रही थी। पांच दशक बाद, 77 वर्षीय लालू और 74 वर्षीय नीतीश की थकान भरी आंखें बता रही हैं कि यह दौर अब आखिरी सांसें ले रहा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या बिहार अब एक नए अध्याय की ओर बढ़ रहा है या यह सिर्फ पुरानी किताब का अंतिम पन्ना है?

यह दो व्यक्तियों का पतन नहीं, बल्कि एक पूरे युग का अंत है। लालू का राजद यादवों का किला बना रहा, जहां सामाजिक न्याय का नारा पिछड़ों को लामबंद करता रहा। नीतीश का जनता दल (यूनाइटेड) अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) की आवाज बन गया, जो 2023 के जातिगत सर्वे के मुताबिक बिहार की 36 फीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व करता है। इन दोनों ने कभी साथ मिलकर, कभी एक-दूसरे को ललकारते हुए बिहार को आकार दिया।

बीच में रामविलास पासवान ने दलित-पिछड़े गठजोड़ को मजबूती दी, लेकिन 2020 में उनका निधन इस त्रयी को अधूरा छोड़ गया। अब, बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं ने इन्हें हाशिए पर धकेल दिया है। नीतीश भले मुख्यमंत्री बने हुए हैं और चुनाव अभियान पर भी निकले हैं, लेकिन उनके बिखरे बयान और आचरण सवाल खड़े करते हैं। लालू की कमान बेटे तेजस्वी ने संभाली है, लेकिन परिवारिक कलह (तेज प्रताप का अलगाव) ने उत्तराधिकार को और जटिल बना दिया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की जोड़ी इस पुराने दौर को नेस्तनाबूद करने की नई रणनीति बुन रही है। भाजपा की रणनीति साफ है—हिंदू एकीकरण से जाति की दीवारें तोड़ना, ओबीसी-ईबीसी को टिकट और लाभ देकर लुभाना और बिहार को 'विकसित भारत' का हिस्सा बनाना। यहां मोदी-शाह का फैक्टर निर्णायक है।

मोदी ने एनडीए के चुनावी अभियान की शुरुआत करते हुए कर्पूरी ठाकुर को श्रद्धांजलि दी—एक ऐसा कदम जो ईबीसी-ओबीसी को सीधा निशाना बनाता है, नीतीश के वोटबैंक को चुराने की कोशिश। जबकि शाह दरभंगा में महागठबंधन पर हमला बोल रहे हैं। भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूडी का दावा है: 'लोगों ने मन बना लिया है, एनडीए सरकार ही बनेगी।' लेकिन नीतीश को 'जोखिम' मानते हुए भी उन्हें अलग करने का साहस नहीं जुटा पा रही है भाजपा, 'नीतीश के बिना एनडीए कमजोर, उनके साथ पुराना बोझ'।

बिहार की राजनीति हमेशा गठबंधनों की बाजीगरी रही है। नीतीश का 'उल्टा-पुल्टा' गठबंधन बाहरी नजरों में अवसरवाद लगता है, लेकिन ईबीसी के लिए जीवट का प्रतीक। उन्होंने यादव-प्रधान राजद के खिलाफ बाकी पिछड़ों को एकजुट रखा। लेकिन अब खालीपन साफ है। आज राहुल-तेजस्वी की संयुक्त रैलियां (मुजफ्फरपुर-दरभंगा) महागठबंधन को गति दे रही हैं। तेजस्वी ने 'जीविका दीदियों' को 30 हजार सैलरी का वादा किया है। सत्तारूढ़ एनडीए और विपक्षी महागठबंधन के अलावा असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम मुस्लिम वोट बांट सकती है, जबकि प्रशांत किशोर की पार्टी जन सुराज युवा असंतोष भुनाने को तैयार है।

इस संक्रमण का सबसे बड़ा सवाल है: बिहार में मंडल के बाद की राजनीति कैसी होगी? लालू-नीतीश युग जाति की राजनीति का प्रतीक था। लेकिन अब, भाजपा राम मंदिर से लेकर लोक कल्याण तक जाति को तोड़ रही है। दूसरी ओर, कांग्रेस सामाजिक न्याय के उत्साह से पिछड़ों को लुभा रही, तेजस्वी युवा चेहरों से राजद को पुनर्जीवित कर रहे। बिना दिग्गजों के पार्टियां बिखर सकती हैं—ईबीसी वोट ढीला पड़ेगा, नई पीढ़ी विकास-रोजगार पर सवाल उठाएगी। जन सुराज अगर जाति से ऊपर उठी, तो क्रांति संभव है।

बिहार को पुरानी स्मृतियों से बाहर निकलना होगा।

लालू-नीतीश का दौर गरीबी-भ्रष्टाचार-जातिवाद का आईना था, लेकिन पिछड़ों को आवाज दी। अब समय है जाति-आधारित राजनीति से आगे बढ़ने का—शिक्षा, स्वास्थ्य और उद्योग पर फोकस करने का। क्या तेजस्वी नीतीश के 'उलटे-पुलटे' को दोहराएंगे? इस चुनाव के नतीजे बताएंगे कि बिहार नया जन्म लेगा या जंजीरों में जकड़ा रहेगा। नेताओं के बिना, जनता ही अभिनेता बनेगी। समय जवाब देगा, लेकिन लालू-नीतीश का 50 साल पुराना दौर वाकई खत्म हो रहा है।

© Copyright @2025 LIDEA. All Rights Reserved.